संघर्ष संवाद
Sangharsh Samvad

सम्पादकीय, दिसंबर 2010

भारत में पहला निजी बंदरगाह बनाने के लिए जिस प्रकार पोस्को कम्पनी को पारादीप में इजाजत दी गयी है उसी तरह से भारत में पहला विदेशी परमाणु ऊर्जा संयंत्र लगाने का अनुबंध फ्रांस की ओरवा कम्पनी के साथ उस वक्त किया गया जब फ्रांस के राष्ट्रपति सरकोजी परमाणु संयन्त्रों के व्यापार के संदर्भ में अभी हाल में भारत आये थे। जैतपुर (कोंकण-महाराष्ट्र) में प्रस्तावित यह परमाणु ऊर्जा संयंत्र भारत में विदेशी निवेश की पहली परमाणु ऊर्जा परियोजना होगी। इस परियोजना पर एक लाख करोड़ रूपये निवेश होगा तथा दावा किया जा रहा है कि 10,000 मेगावाट विद्युत उत्पादन होगा जो कि विश्व रिकार्ड होगा।
जिस दिन राष्ट्रपति सरकोजी भारत आये उसी दिन जैतपुर के मछुआरों, किसानों तथा पर्यावरणविदों के विरोध जुलूस पर पुलिस ने बर्बरतापूर्वक लाठी चार्ज किया। कलिंगनगर में टाटा कम्पनी की कारिडोर रोड के निर्माण का विरोध करते समय दो स्थानीय आदिवासियों की हत्या कर दी गयी। पोस्को एवं वेदांता कम्पनियों के ऊपर पर्यावरण सवालों, कानूनों की अवहेलना की शिकायतों को सही पाते हुए जहां एक तरफ उनके ऊपर कुछ नकेल लगायी वहीं इन कम्पनियों की ज्यादतियों के खिलाफ संघर्षरत जनसंघर्षों तथा उनके अगुआकारों पर राज्य एवं कारपोट की दमनात्मक कार्यवाही जारी है। कलिंगनगर में टाटा कम्पनी के जर खरीद गुलामों की लम्पट गैंगों तथा पुलिस की तरफ से, संघर्षरत लोगों को यहां तक उत्पीड़ित किया जा रहा है कि अस्पताल जाते समय भी उन्हे गिरफ्तार किया जाता रहा है। सोमपेटा (आंध्र प्रदेश), जिकरपुर (उत्तर प्रदेश), घोड़ी बछेड़ा (उत्तर प्रदेश), काठीकुण्ड (झारखंड) तथा कलिंगनगर (उड़ीसा) की निर्मम गोलीबारी से जूझते जनसंघर्ष अपनी जीविका, जीवन तथा अस्तित्व की रक्षा के लिए संघर्षरत हैं।
राष्ट्रराज्य आंतकवाद (हिन्दु और मुस्लिम साम्प्रदायिकता) तथा उग्रवाद (माओवाद) को एक औजार की तरह इस्तेमाल करते हुए जनतांत्रिक जनसंघर्षों को, वैश्विक पूंजी के हित में निर्ममता से कुचलने पर आमादा है। राष्ट्र-राज्य का ’मन’ भूमण्डलीकरण के ’माया मंत्र’ से इतना ’मोहित’ हो गया है कि भारतीय-समाज और भारतीय-लोकतंत्र के अनुभवों पर अपनी ’मन मोहनी’ दृष्टि भी नहीं डालना चाहता।
हमारा इतिहास यह बताता है कि 1947 से पहले हम वैश्विक प्रणाली का एक हिस्सा रह चुके हैं। भूमण्डलीकरण हमारे लिए कोई नया अनुभव या अवधारणा नहीं है। आजादी की प्राप्ति से पहले हम विश्व बाजार आधारित अर्थव्यवस्था में पूर्णतया एकीकृत थे, भूमण्डलीकृत थे। परंतु यह भी पूर्णतया सच है कि हमने इस व्यवस्था को कभी पसंद नहीं किया था। फलतः भारत में किसानों, मजदूरों के संघर्ष और आदिवासियों के विद्रोह तथा अन्ततः स्वाधीनता संघर्ष का अभ्युदय हुआ था। उस दौर का भूमण्डलीकरण साम्राज्यवाद के द्वारा संचालित, नियंत्रित तथा उसके अपने हित में था जिसका व्यावहारिक रूप था भारत में दरिद्रता की वृद्वि और इंग्लैड में धन का संचय। ऐसी परिस्थिति में स्वाधीनता संघर्ष अनिवार्य हो गया था, केवल भारत में ही नहीं बल्कि उन तमाम देशों में जो इस शोषणकारी प्रक्रिया-व्यवस्था के शिकार थे। आजादी के बाद गांधी एवं नेहरू के उत्तराधिकारियों ने धीरे-धीरे इस पर बात करना भी बंद कर दिया कि आजादी की जंग किस लिए थी ? और आज वे यह भी चाहते हैं कि हम भी इसे भुला दें।
विकास, समता और अनुपाती न्याय की मूल अवधारणा पर नेहरू की राष्ट्रीय परियोजना ने कालांतर में यह भ्रम पैदा किया कि राज्यवादी- पूंजीवाद ही समाजवाद है। नेहरू कालीन युग में शुरू की गयी राष्ट्रीय-परियोजना राज्यवादी-पूंजीवाद पर टिकी रही और 1990 आते आते धराशायी हो गयी तथा विकास और समता तथा अनुपाती न्याय की पोल खुल गयी। इसके विकल्प के रूप में निजीकरण, उदारीकरण के भूमण्डलीकरण को पेश किया जा रहा है। आज भूमण्डलीकरण को एक नये, नायाब तथा अनिवार्य नुस्खे के रूप में पेश किया जा रहा है, मानो यह हमारे लिए कोई नयी परिघटना हो। साथ ही साथ सर्व सामान्य की प्रगति कर पाने की पूंजीवादी व्यवस्था की असफलता को समाजवाद की विफलता के रूप में प्रचारित किया जा रहा है।
आज भारतीय समाज और भारतीय लोकतंत्र एक ऐसे दौर में है जहां उसे अपनी नयी कार्यनीति की जरूरत है। हमारे अनुभव यह बताते हैं कि नव उदारवाद (मौजूदा पूंजीवाद) और लोकतंत्र दोनों एक साथ जिंदा नहीं रह सकते।
यही वजह है कि आज ऐसी ताकतों-प्रक्रियाओं-ढांचों तथा कानूनों के खिलाफ तमाम जनसंघर्ष जारी हैं, जो खेत, खनिज, पानी, वन को मुनाफे के लिए इस्तेमाल करना चाहते हैं। वैश्विक पूंजी द्वारा संचालित तथा राष्ट्र-राज्यों द्वारा फेसिलिटेट की जा रही यह प्रक्रियायें नव उदारवाद की बानगी हैं तो इनका विरोध-प्रतिरोध लोकतंत्र की रक्षा की अनिवार्य परिणति। अतएव यह एकदम सुनिश्चित है कि मुट्ठीभर लोगों की ज्यादा से ज्यादा मुनाफा कमाने की ख्वाहिश तथा व्यापक आबादी की अपने अस्तित्व की रक्षा की जद्दोजहद के बीच खुलेआम द्वंद्वात्मक संघर्ष है। इसी कारण वैश्विक पूंजी के हित साधक के रूप में कार्यरत राष्ट्र-राज्य किसी भी हद तक जाकर जनसंघर्षों के दमन पर आमादा है।
आज जनसंघर्षों की बढ़ती एकता से बौखलायी सत्ता अपने ही देश वासियों के विरूद्व जंग छेड़ने में भी नहीं हिचक रही है।
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