संघर्ष संवाद
Sangharsh Samvad

महिला नसबंदी : औरतों के शरीर पर हमला

भारत में परिवार नियोजन की पूरी जिम्मेदारी महिलाओं पर थोप दी गई है। नसबंदी कराने वालों में से 98 प्रतिशत महिलाएं ही हैं। वहीं दूसरी ओर जिन परिस्थितियों या शिविरों में यह आपरेशन किए जाते हैंं वह महिलाओं के प्रति हमारे असम्मानजनक रवैय्ये को ही सामने लाता है। इस विषम परिस्थिति की असलियत को सामने लाता कल्पना मेहता का महत्वपूर्ण आलेख जिसे हम सप्रेस से साभार आपसे साझा कर रहे है,

यह खबर पढ़कर मन में आशा जगी है कि 40 सालों से औरतों के शरीर पर चला आ रहा हमले का सिलसिला अब शायद कमजोर पडे़। मप्र के डॉक्टरों ने तय कर लिया है कि वे शिविरों में नसबंदी ऑपरेशन नहीं करेंगे। अब तक इन शिविरों का विरोध नारी आंदोलन व स्वास्थ्य समूह ही करते आ रहे थे। बाकी सभी ने चुप्पी साध रखी थी क्योंकि जनसंख्या विस्फोट के हव्वे के आगे मानवाधिकारों का हनन और गरीब औरतों के शरीर पर हमला सबको बेमानी लग रहा था।

याद हो कि सन 1975-76 में आपातकाल के दौरान पुरुषों की जबरन नसबंदी इंदिरा गांधी की सरकार डूबने का एक कारण रही थी। पर इससे ठीक-ठीक सबक यह नहीं लिया गया और पूरा अत्याचार औरतों पर थोपने के लिए दूरबीन द्वारा नसबंदी की पद्धति विकसित की गई। औरतों की ऑपरेशन के जरिए नसबंदी का अर्थ था उनकी अस्पताल में भर्ती और परिवार को असुविधा । इसीलिए दूरबीन पद्धति से सरकार और परिवार दोनों संतुष्ट हैं। जैसे ही दूरबीन ने प्रवेश किया वैसे ही शिविरों का माहौल टी-20 क्रिकेट को मात देने लगा ।प्रत्येक नसबंदी आपरेशन पर शिविर में डाक्टरों के साथ-साथ अन्य सभी को पैसे मिलते हैं । कम समय में अधिकतम ऑपरेशन करने वाले डॉक्टरों की आज पीठ ठोकी जाती है और वे नसबंदी के रिकार्ड बनाकर मैन ऑफ दी मैच बनना चाहते हैं।

गौरतलब है वर्ष 1994 में ही भारत सरकार ने घोषणा कर दी थी कि वह नसबंदी और गर्भ निरोध के लक्ष्यों को खत्म कर देगी व सलाह एवं जरूरत के अनुसार परिवार नियोजन की सुविधाएं उपलब्ध कराएगी। पर कथनी और करनी में कोेई मेल नहीं हैं। आज भी नसबंदी के लक्ष्य निर्धारित होते हैं जिन्हें नवम्बर से मार्च माह तक हासिल करने में पूरा जोर लगाया जाता हैै। इस कवायद में औरतों की तरफ ध्यान तभी जाता है जब बिलासपुर जैसा कोई हादसा हो जाता है।

ऐसें हादसों में किसी-न-किसी को तो दोषी ठहराना है , मानों जैसे वह व्यवस्था का सवाल ने होकर किसी कम्पनी या डॉक्टर विशेष की गलती हो । बिलासपुर में भी सर्जन व दवा कम्पनी के मालिक को जेल में डाल दिया गया है और यह खबर फैलाई गई कि ‘‘एंटीबायोटिक में पाया गया चूहा मारने का जहर मौतों के लिए जिम्मेदार होे इस दावे का झूठ गैर सरकारी संस्थाओं के एक सत्यशोधक समूह (फेक्ट फांइडिंग ग्रूप ) ने पकड़ लिया है। सच तो यह है कि इंसान को मारने के लिए इस चूहानाशक दवा का 5 ग्राम सेवन अनिवार्य है । अर्थात् अगर गोली पूरी की पूरी जहर की भी बनी होती तब भी 8-9 गोली खाए बगैर किसी भी औरत का मरना सम्भव नहीं था। परंतु अधिकांश ने सिर्फ रात को एक गोली खाई थी । यह तथ्य भी सामने आया हैं कि इसके पहले भी महावर कम्पनी की दवाएं नामंजूर होती रही हैं फिर बार-बार इस कम्पनी को ठेका क्यों दिया जा रहा हैं? यही नहीं छतीसगढ़ में दवा की गुणवता जॉचने की प्रयोगशालाएं नहीं होने के कारण इनके नमूनंें भी दिल्ली-कोलकाता भेजने पडे़। ऐसे में क्या पूरा औषधि नियंत्रक तंत्र दोषी नहीं ।

अब हम सर्जन की ओर ध्यान दें। क्या उसने तय किया था कि शिविर एक गंदी इमारत में लगाया जाए ? क्या वह 83 औरतों को वहॉ बटोर कर लाया था? क्या उसने ऑपरेशन थियेटर तैयार किया था? क्या उसे जरूरत अनुसार लेप्रोस्कोप दिए गए थे ? क्या उसने तय किया था कि ऑपरेशन के बाद औरतों को दरी डालकर गंदी जमीन पर पटक दिया जाए ?क्या उसने कहा था कि औरतों को घण्टें भर में घर के लिए रवाना कर दिया जाए ? वह तो टी-20 क्रिकेट का बल्लेबाज या जिसने एक लेप्रोेस्कोप से दनादन नसबंदी करके डेढ़ घण्टे में 83 औरतों को निपटा दिया।उसने क्या बांधा और क्या बंद किया उसका भी भगवान मालिक है। इस शिविर में आंतरिक अंगों को स्पष्ट रूप से देखने के लिए मात्र तीन औरतों के पेट को फुलाया गया। सर्जन केस पूरे करने में इतना तल्लीन था कि उसे यह ख्याल भी नहीं आया कि लेप्रोस्कोप का दो केसों के बीच विसंक्रमण होना है जिसके लिए उसे रुकना पड़ेगा। वह यह भी भूल गया कि उसे बीच-बीच में हाथ साफ करने थेे। एक मिनट में एक ऑपरेशन करने के दौरान जाहिर है कि उसने सूई ,दस्ताने व टांकों की तरफ कोई ध्यान नहीं दिया। पर इस डॉक्टर का व्यवहार अनूठा नहीं है कई डॉक्टर तो सैकडों नसबंदी एक दिन में करने की शान बघारते हैं। हर इलाज कराने वाला जानता है कि आजकल इलाज कितना खर्चीला हो गया है। वहीं दूसरी ओर छतीसगढ़ में नसबंदी ऑपरेशन का प्रति औरत खर्च मात्र 35रु बैठता है। राज्य में वर्ष 2013-14 में 1142 शिविर लगाये गए एवं 1लाख 19 हजार नसबंदियां की गई ।परंतु शिविरों में मात्र 42 लाख रुपये खर्च हुए। वैसे यह शिविर तो सरकार को बहुत महंगा पड़ गया क्योंकि उसे औरतों को दोबारा बटोरकर अस्पताल लाना पडा़ और मुफ्त में इलाज भी करना पड़ा। सबसे अधिक बिगड़े मामले अपोलो हॉस्पिटल को पकडा़ दिए गए जिनके लिए उसे एक करोड़ रुपए व अन्य सुविधाएं भी दी गई। मरने वाली हर औरतोें के परिवार को 4लाख रुपए भी दिए।

इलाज करने वाले डॉक्टरों के अनुसार औरतों की तकलीफंे जहर मात्र से नहीं उपजी थी बल्कि उनमें सेप्टीसीमिया के लक्षण भी दिख रहे थे। वैसे पोस्टमार्टम की जानकारी अब तक सार्वजनिक नहीं हुई है। परिवार वालों तक को नहीं बताया गया कि मौत का क्या कारण था। जाहिर है कि लीपा-पोती बदस्तूर जारी है।

शर्म की बात यह है कि इस हादसे के लिए जिम्मेदार तंत्र ने अपनी कवायद के जरिए वाह-वाही भी लूट ली है। सब की जुबान पर एक ही बात है कि सरकार की मुस्तैदी ने अनेकों औरतों को मौत के मुहं से खींच लिया। पर क्या पहले इसी सरकारी अमले ने उन्हें मौत के मुंह में नहीं ढकेला था ? क्या कलेक्टर भी मूल्यांकन रिपोर्ट में नसबंदी कार्यक्रम की सफलता नहीं दर्ज होती ? क्या साल-दर-साल कलेक्टर नसबंदी के लक्ष्य स्वास्थ्य विभाग को नहीं देते?और क्या ये लक्ष्य सबसे निचले स्वास्थ्य कार्यकर्ता पर थोपे नहीं जाते? दुःख की बात तो यह है कि आज सिर्फ गाँव में रहने वाली आशा कार्यकर्ता ही डरी हुई है । उसका दर्जा तो इतना नीचा है कि वह स्वयं ही इन घातक शिविरो में खुद की नसबंदी कराती है । आज उसे गॉव वाले का गुस्सा व बहिस्कार झेलन पड़ रहा है क्योंकि औरत को शिविर ले जाने-लाने का प्रत्यक्ष जिम्म उसी का था और उसे हर औरत की नसंबदी कराने के 150रु मिले थे ।

एक साथ इतनी औरतों की जान तो हर दिन नहीं जाती। पंरतु नसबंदी शिविरों में औरतों को मृत्यु आम है। लोकसभा में सरकार ने स्वीकारा कि 2009-12के बीच देश में 707 औरतों की नसबंदी से मृत्यु हुई। वैसे यह आंकडा़ सच से कहीं कम है क्योंकि अव्वल तो इस विषय में कोई जानकारी एकत्रित नहीं की जाती और मृत्यु के अलावा भी शिविरो के फलस्वरूप कई औरतें बीमार पड़ती हैं जिनका मुक्त इलाज अपोलो अस्पताल में नहीं होता। शिविरों में व्याप्त अनाचार के चलते सरकार ने शिविरों के एवज में अस्पताल में नियमित नसबंदी की घोषणा तो कर दी पर उस पर अमल न के बराबर है। हर बार यह बहाना बनाया जाता है कि स्वास्थ्य विभाग के पास नियमित सेवाओं के लिए न तो ऑपरेशन थियेटर है न डॉक्टर। अगर सरकार को यह सेवा आवश्यक लगती है और औरतें भी नसबंदी कराना चाहती है तो ये सेवाएँ विकसित क्यों नहीं की जाती ? जहाँ तक शिविरों का सवाल है स्वंय भारत सरकार व सर्वोच्च न्यायालय ने इनके मानक तय कर रखे है। इन के अनुसार एक कैम्प में एक दिन में एक सर्जन द्वारा अधिकतम 30 नसबंदियों की जा सकती हैं।सर्जन के साथ पूरी टीम का मौजूद होना चाहिए और उसे तीन लेप्रोेस्कोप दिए जाने चाहिए ताकि विसंक्रमण का सिलसिला बना रहे। पर ये दिशा निर्देश स्वास्थ्य कमिर्यों तक पहुते ही नहीं। अतः औरतों की देख रेख भगवान भरोसे ही है।

जहां छ़त्तीसगढ की असलियत इस एक हादसे ने उजागर कर दी पर लक्ष्य निर्धारण व विघटित होती सरकारी स्वास्थ्य व्यवस्था तो पूरे देश की सच्चाई है और औरतों की सुरक्षा की कोई गांरटी नहीं हैं। समाज भी कब तक जनसंख्या विस्फोट के भ्रमजाल मेें फंसकर इस व्यापक अत्यचार की अनदेखी करता रहेगा। यह बताना भी आवश्यक है कि नसबंदी शिविर में गई अधिकांश औरतों के दोे ही बच्चे थे। और वे स्वेच्छा से शिविर पंहुची थीं। क्या उसकी इस इच्छा को पूरी करने का कोई सुरक्षित व सम्माजनक उपाय उपलब्ध नहीं होना चाहिए ?

सुश्री कल्पना मेहता नारीवादी आंदोलन की अगुआ है और स्वास्थ्य के क्षेत्र में कार्य करती हैं।

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