संघर्ष संवाद
Sangharsh Samvad

‘गंगा मुक्ति आंदोलन’ की 44वीं वर्षगांठ पर विशेष: चार दशक का ‘गंगा मुक्ति आंदोलन’

‘गंगा मुक्ति आंदोलन’ की 44वीं वर्षगांठ पर सर्वोदय प्रेस सर्विस पर प्रकाशित कुमार कृष्णन का यह विशेष लेख साभार हम संघर्ष संवाद के पाठकों के लिए यहाँ प्रस्तुत कर रहे हैं। -संघर्ष  संवाद 

22 फरवरी को कहलगांव में 43 साल पहले, 1982 में शुरु हुए ‘गंगा मुक्ति आंदोलन’ की चवालीसवीं वर्षगांठ मनाई जा रही है। गंगा बेसिन के इलाकों के महत्वपूर्ण सवाल को लेकर दो दिनों तक कागजी टोला, कहलगांव, भागलपुर में पुनः देश भर के परिवर्तनवादी जुटेंगे और आगे की योजना बनाएंगे। इस लिहाज़ से आंदोलन का शंखनाद दो दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण भी है। एक तो शासन तंत्र पर दबाव बनाने लिए, दूसरे सांगठनिक मजबूती के लिए। इस जमावडे के मौके पर लगभग चार दशकों के ‘गंगा मुक्ति आंदोलन’ के प्रभावी और बरकरार रहने पर बातचीत करना प्रासंगिक होगा।

गंगा की जमींदारी के खिलाफ शुरू हुआ यह आन्दोलन 1987-88 आते-आते बिहार के सम्पूर्ण गंगा क्षेत्र में फैल गया था और इसमें लाखों लोग शामिल हो गए थे। जब कुर्सेला से पटना तक (लगभग 500 किलोमीटर) नौका जुलूस निकाला गया तो गंगा-तट के गांव-गांव में स्त्री-पुरुषों की भागीदारी और उनका उत्साह देखने लायक था। इस नौका जुलूस के बाद जब बिहार के सम्पूर्ण गंगा क्षेत्र में ‘जलकर’ (मछली पकड़ने के एवज में दिया जाने वाला टैक्स) बंद कर दिया गया तो पानी के ठेकेदारों ने अनेक प्रकार के जुल्म ढाए। अन्ततः 1990 की जनवरी में सरकार को बाध्य होकर गंगा समेत बिहार की सभी नदियों की बहती धारा में परम्परागत मछुआरों के लिए मछली पकड़ना कर-मुक्त कर दिया गया।

1993 के पहले गंगा में जमींदारों की पानीदारी थी, जो गंगा के मालिक बने हुए थे। सुल्तानगंज से लेकर पीरपैंती तक 80 किलोमीटर के क्षेत्र में ‘जलकर जमींदारी’ थी। यह जमींदारी मुगलकाल से चली आ रही थी। सुल्तानगंज से बरारी के बीच की जमींदारी महाराज घोष की थी। बरारी से लेकी, पीरपैंती तक मकससपुर की आधी-आधी जमींदारी क्रमशः मुर्शिदाबाद, पश्चिम बंगाल के मुसर्रफ हुसैन प्रमाणिक और महाराज घोष की थी। हैरत की बात थी कि जमींदारी किसी आदमी के नाम पर नहीं, बल्कि देवी-देवताओं के नाम पर थी। ये देवता थे – श्री श्री भैरवनाथ जी, श्री श्री ठाकुर वासुदेव राय, श्री शिवजी एवं अन्य। कागजी तौर जमींदार की हैसियत केवल सेवायत की रही है।

वर्ष 1908 के आसपास बाढ प्रभावित दियारे की जमीन का काफी उलट-फेर हुआ था। जमींदारों ने जमीन पर कब्जा किया था। नतीजे में किसानों में आक्रोश फैला था। संघर्ष की चेतना पूरे इलाके में फैली; ‘जलकर जमींदार’ इस जन-जागृति से भयभीत हो गये और 1930 के आसपास ट्रस्ट बनाकर इसे देवी-देवताओं के नाम कर दिया। ‘जलकर जमींदारी’ खत्म करने के लिए 1961 में एक कोशिश की गयी; भागलपुर के तत्कालीन डिप्टी कलेक्टर ने इसे खत्म कर मछली बंदोबस्ती की जवाबदेही सरकार पर डाल दी। मई 1961 में जमींदारों ने उच्च न्यायालय में इस कार्रवाई के खिलाफ अपील की और अगस्त 1961 में जमींदारों को स्टे-ऑडर मिल गया।

1964 में उच्च न्यायालय ने जमींदारों के पक्ष में फैसला सुनाया तथा तर्क दिया कि ‘जलकर’ की जमींदारी यानी ‘फिशरीज राइट’ मुगल बादशाह ने दिए थे। अदालत ने कहा कि ‘जलकर’ के अधिकार का प्रश्न जमीन से अलग है, क्योंकि जमीन की तरह यह अचल संपत्ति नहीं है। इस कारण यह ‘बिहार भूमि-सुधार कानून’ के अंतर्गत नहीं आता। बिहार सरकार ने उच्च न्यायालय के फैसले के विरुद्ध सर्वोच्च न्यायालय में अपील दायर की और सिर्फ एक व्यक्ति मुसर्रफ हुसैन प्रमाणिक को पार्टी बनाया।

‘गंगा मुक्ति आंदोलन’ के अनिल प्रकाश के अनुसार आरंभ में जमींदारों ने इसे मजाक समझा और आंदोलन को कुचलने के लिए कई हथकंडे अपनाये, लेकिन आंदोलनकारी अपने संकल्प- ‘हमला चाहे कैसा भी हो, हाथ हमारा नहीं उठेगा’- पर अडिग रहे और निरंतर आगे बढे। संघर्ष के नतीजे में 1988 में बिहार विधानसभा में मछुआरों के हितों की रक्षा के लिए जल-संसाधनों को सरकारी नियंत्रण से मुक्त करने का एक प्रस्ताव लाया गया। कहलगांव के पत्रकार प्रदीप विद्रोही के अनुसार, मछुआरा समाज की इस आंदोलन में अग्रणी भूमिका रही है और आज भी बनी हुई है। इसके साथ ही किसानों,मजदूरों, झुग्गीवासियों, बुनकरों, बुद्धिजीवियों, कलाकारों, कवियों, साहित्यकारों और वैज्ञानिकों की महत्वपूर्ण भागीदारी ने इस आंदोलन को सशक्त और व्यापक बनाया था।

आंदोलन से  जुड़े उदय बताते हैं कि ‘जातिप्रथा के जहर के खिलाफ चेतना जाग्रत करना हमारे आंदोलन का अभिन्न हिस्सा रहा है। 1982 में आयोजित ‘एकलव्य मेला’ से इस आंदोलन की शुरुआत की गई थी। 1984 में इंदिरा गांधी की निर्मम हत्या के खिलाफ जब सिख विरोधी उत्पात शुरू हुआ तो साथियों ने आगे बढ़कर उसे रोका। भागलपुर और पटना में साम्प्रदायिक दंगे और तनाव हुए तो आंदोलन के लोगों ने जान पर खेलकर उसे रोकने की कोशिश की। यह सब ‘गंगा मुक्ति आंदोलन’ की व्यापक वैचारिक दृष्टि के कारण ही सम्भव हो सका।’

अनिल प्रकाश के अनुसार – जब ‘गंगा मुक्ति आंदोलन’ ने फरक्का-बराज को विनाशकारी बताया तो बहुतों ने खिल्ली उड़ाई थी। जब ‘कहलगांव सुपर थर्मल-पावर स्टेशन’ का आंदोलन ने विरोध किया तो हमें विकास विरोधी बताया गया। जब हम सबने रासायनिक खादों और जहरीले रासायनिक कीटनाशकों पर रोक लगाने की मांग की तब भी हमारा मजाक उड़ाया गया। सुन्दरलाल बहुगुणा और उनके साथी टिहरी बांध के निर्माण का विरोध कर रहे थे तो ‘गंगा मुक्ति आंदोलन’ भी उनके साथ था।

आज साबित हो रहा है कि हम सही रास्ते पर थे और दूसरों से आगे देख रहे थे। आज नदियां और ज्यादा जहरीली हो गई हैं, हमारे खेत जहरीले हो रहे हैं, उसमें उगने वाले अनाज, फल और सब्जियां जहरीली हो रही हैं, हमारी मछलियां भी जहरीली होती जा रही हैं। यहां तक कि सांस लेने के लिए स्वच्छ हवा भी शहरों में नहीं मिलती। आंदोलन 1980 के दशक की शुरुआत से ही इसे चीख-चीखकर कह रहा था। मनुष्य और प्रकृति के मधुर सम्बन्धों की बुनियाद पर समता मूलक लोकतांत्रिक समाज बनना हमारा लक्ष्य है। हम सब इस दिशा में निरन्तर प्रयत्नशील रहे हैं और आगे भी रहेंगे। आंदोलन के वैज्ञानिक सलाहकार डॉक्टर केएस बिलग्रामी ने ठीक ही कहा था कि ‘इकोलॉजी और इकॉनोमिक्स’ के बीच संतुलन बिठाकर चलना पड़ेगा।

फरक्का-बराज के कारण हमारी मछलियां समाप्तप्राय: हैं जिससे लाखों लोगों की रोजी-रोटी छिन गई और सामान्य जन के लिए सुलभ पौष्टिक भोजन की कमी हो गई है। मछुआरों का कहना है कि पहले गंगा में तमाम किस्म की मछलियां मिलती थीं, जैसे-हिलसा, झींगा, पंगास, सौकची, कुर्सा, कठिया, गुल्ला, महसीर,कतला, रेहू, सिंघा आदि जो अब मुश्किल से ही दिखती हैं। हिलसा तो फरक्का के ऊपर लगभग लुप्त हो गई है। यह मछली प्रजनन के लिए समुद्र से नदी के मीठे पानी में जाती है। फरक्का-बराज ने हिलसा का रास्ता रोक दिया है।

फरक्का-बराज के कारण गंगा अब ज्यादा रफ्तार से रास्ता बदल रही है, जिससे कटाव बढ़ा है। जब नदी उथली होती है तो फैलने लगती है और अपने किनारों पर दबाव डालती है।

मछलियों के लुप्त होने के लिए यहां के निवासी फरक्का-बराज के अलावा नदी किनारे बने ईंट-भट्टे, रेत खनन, प्रदूषण, गलत तरीके से मछली पकड़ने और विदेशी मछलियों को भी जिम्मेदार मानते हैं। गंगा और इसकी सहायक नदियों में मिट्टी-बालू भर गई है और बाढ़ तथा जल-जमाव की समस्या बढ़ती चली जा रही है। जलकर जमींदारी के खत्म होने के बाद भागलपुर में गंगा नदी में सुल्तानगंज के जहांगीरा (घोरघट पुल) से पीरपैंती के हजरत पीरशाह कमाल दरगाह तक, बिहार सरकार के पशुपालन एवं मत्स्य विभाग ने 11 दिसंबर 1991 को पारंपरिक मछुआरों के लिए निःशुल्क घोषित किया है।

फरक्का के अलावा भागलपुर जिले के कहलगांव स्थित ‘नेशनल थर्मल पॉवर कॉर्पोरेशन’ (एनटीपीसी) का सवाल गंभीर है। ‘एनटीपीसी’ के इस कोल पावर प्लांट का निर्माण 1985 में शुरू हुआ था और इससे विद्युत उत्पादन 1992 में शुरू हुआ। शुरुआत से ही ‘गंगा मुक्ति आंदोलन’ और स्थानीय पर्यावरणविदों ने इसके निर्माण पर आपत्ति जताई थी।

गंगा नदी के किनारे बसा यह इलाका खेती के लिहाज के काफी उर्वर है। प्रदूषण के कारण यहां पेड़ों की हरियाली समाप्त हो गई है। पेड़ के पत्तों पर राख की मोटी परतें बिछी हुई हैं। और तो और प्रदूषण के कारण लोगों में सांस फूलने की समस्या और विकलांगता बढ़ी है। यह धान, आम और पान का इलाका रहा है, मगर ‘एनटीपीसी’ की वजह से सब नष्ट हो गया।

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कुमार कृष्णन स्वतंत्र पत्रकार एवं लेखक हैं।

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