मजदूरों-किसानों की साझी पहल : सरकार ने घुटने टेके
भूमि अधिग्रहण का जबर्दस्त विरोध।
किसानों, ग्रामीण मजदूरों को मुफ्त बिजली के वायदे से मुकरी सरकार।
रोड, रेल जाम/गिरफ्तारियां/राज्य नियोजित दमन।
किसान धीर सिंह की शहादत।
17 से ज्यादा किसान-मजदूर संगठनों ने बनाया साझा संघर्ष मोर्चा।
भारत की खाद्यान्न जरूरतों की पूर्ति में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले पंजाब के मजदूर किसान एकबार फिर से अपनी जिंदगी की बदहाली, कारपोरेट-राज्य गठजोड़ द्वारा भूमि लूट के खिलाफ तथा सरकार द्वारा बिजली की आपूर्ति में छूट जारी रखने की मांग कर रहे हैं। राज्य की बहरी सरकार तक अपनी आवाज पहुंचाने और किसान-मजदूर संगठनों पर हो रहे हमलों के कारगर प्रतिकार के लिए उन्होंने 17 से ज्यादा किसान-मजदूर संगठनों का एक साझा संघर्ष मोर्चा भी बना रखा है।
पंजाब के किसान-मजदूर संगठन पंजाब की अकाली- बीजेपी सरकार से अपने उस वादे को पूरा करने की मांग के लिए संघर्षरत हैं जिसके तहत यह वादा किया गया था कि किसानों को मुफ्त में बिजली दी जायेगी तथा ग्रामीण मजदूरों को 200 यूनिट बिजली मुफ्त में उपलब्ध करायेगी। यह करने के बजाय पंजाब सरकार ने कीमती और उपजाऊ कृषि भूमि का अधिग्रहण कारपोरेट घरानों के लिए और शिक्षा-स्वास्थ्य का निजीकरण तेजी के साथ शुरू कर दिया है। किसान नेताओं ने सरकार पर डब्लू.टी.ओ. के निर्देशों की चाकरी करने का आरोप लगाते हुए संघर्ष का बिगुल बजा दिया।
अन्ततः 10 दिसंबर 2011 को सरकार द्वारा किसानों-मजदूरों की मांग मानने के लिए विवश होना पड़ा। ग्रामीणों को 400 यूनिट तक मुफ्त बिजली सप्लाई, किसानों के मोटर पम्प (ट्यूबवेल) के बकाये की माफी और गिरफ्तार आंदोलनकारियों की रिहाई की मांगें सरकार ने मानी और बाकी समस्याओं पर बातचीत के लिए 18 दिसंबर 2011 की तारीख तय की गयी परंतु उस दिन भी बाकी समस्याओं को सरकार टाल गयी। किसान-मजदूर संगठनों के साझे संघर्ष मोर्चे ने संघर्ष को और तेज करने का निर्णय लिया है।
अपनी मांगों को मनवाने के लिए किसानों को लगातार संघर्ष का रास्ता अपनाने को विवश होना पड़ा, पुलिस दमन-उत्पीड़न और गिरफ्तारियों का भी सामना करना पड़ा। किसान-मजदूर संगठनों ने 22 नवंबर 2011 को चण्डीगढ़ में विशाल रैली करके अपनी नौ सूत्रीय मांगों के पूरा करने के लिए सरकार पर दबाव बनाने का निर्णय लिया। आंदोलन की तैयारी से घबरायी बादल सरकार ने आंदोलन को फेल करने की नीयत से 26 नवंबर 2011 को वार्तालाप की पेशकश की। आंदोलनकारियों ने वार्तालाप की बात स्वीकार करके वार्तालाप में शिरकत की परंतु वार्तालाप बेनतीजा रही। फिर से आंदोलनकारियों ने कमर कसी तथा 6 दिसंबर को चंडीगढ़ में प्रदर्शन का ऐलान किया। सरकार ने दमन का रास्ता अपनाया, छापे, गिरफ्तारियां, चंडीगढ़ की नाके बन्दी, चण्डीगढ़ आने वाली सभी सड़कों पर भारी पुलिस बल तैनात करके रास्तों पर बैरिकेड लगा दिये गये। आंदोलनकारी नेता सरकारी रुख भांपते हुए अण्डरग्राउण्ड हो गये। लोग 5 दिसंबर को ही गलियों-सड़कों पर इकट्टा होने लगे।
6 दिसंबर को भटिण्डा जिले के किसानों ने जेथुका गांव में इकट्टा होकर अम्बाला-भटिण्डा रेल लाइन पर जाम लगा दिया। वियास नदी के पुल पर हजारों किसानों ने चक्का जाम करके दिल्ली-लाहौर रोड को भी जाम कर दिया। गोइंडबल पुल तथा जालंघर-फिरोजपुर रोड को मुल्लनपुर और गुरूदासपुर रोड को कहनुवन में हजारों प्रदर्शनकारियों ने बंद करा दिया क्योंकि पुलिस प्रदर्शनकारियों को चण्डीगढ़ की तरफ नहीं जाने दे रही थी। यह संघर्ष तब तक जारी रहा जब तक कि सरकार ने 10 दिसंबर को किसानों की मांगें नहीं मान लीं।
इसके पूर्व कृषि संकट तथा बढ़ती गरीबी से आहत किसानों-मजदूरों ने 15 मार्च 2010 को 50,000 की संख्या में जगरांव में सभा करके बिजली बिल न भरने की घोषणा कर दी थी। इसके बाद 7 जून 2010 को भी किसानों ने मोगा में अपनी एकता का प्रदर्शन करके अपने इरादे स्पष्ट कर दिये थे फिर भी सरकार हरकत में नहीं आयी।
गोविंदपुरा के किसानों का भूमि अधिग्रहण के खिलाफ संघर्ष जारी हैः-
इसी बीच ‘इण्डिया बुल्स’ कंपनी के प्रस्तावित पावर प्लांट के लिए सरकार ने गोविंदपुरा (मानसा जिला) के किसानों की उपजाऊ भूमि का अधिग्रहण शुरू कर दिया। इसी बीच अकाली-भाजपा सरकार ने दो काले कानून बनाकर विरोध के अधिकार पर प्रतिबंध और आंदोलन के समय सरकारी या निजी सम्पत्ति की क्षतिपूर्ति आंदोलनकारियों को करना होगा, का ऐलान कर दिया। यह काले कानून पंजाब विधान सभा में निर्विरोध पारित हो गये विपक्ष में बैठी कांग्रेस भी सरकार के साथ थी।
सरकार के इस दमनकारी अलोकतांत्रिक फैसले के विरोध में तथा व्यापक खेतिहर आबादी की खराब होती हालत, शिक्षा-स्वास्थ्य के निजीकरण और भूमि अधिग्रहण के विरोध में 4 अगस्त 2011 को लुधियाना में एक विशाल रैली का आयोजन जनवादी ताकतों ने मिलकर किया। इसमें छात्रों, नवजवानों, महिलाओं, कर्मचारियों, किसानों-मजदूरों ने बढ़ चढ़ कर शिरकत की और सरकार के गैर जनवादी चरित्र को चुनौती दी।
इस बीच गोविंदपुरा का भूमि अधिग्रहण विरोधी संघर्ष तेज होता जा रहा है। इस आंदोलन के समर्थन में पूरे पंजाब से आवाजें उठ रही हैं। मानसा के डिप्टी कमिश्नर के कार्यालय पर लगातार धरना जारी हैं। इस आंदोलन में एक किसान धीर सिंह (गग्गो महल-अमृतसर) ने अपनी शहादत भी दी।
पंजाब में किसानों-मजदूरों का संघर्ष दमन-उत्पीड़न का सामना करते हुए अपनी एकता के बल पर कामयाबियां हासिल कर रहा है तथा उदारीकरण- निजीकरण के दूरगामी प्रभावों के बारे में खेतिहर समाज को जागरूक करते हुए राज्य-पूंजी-कारपोरेट के गठजोड़ के खिलाफ ज्यादा से ज्यादा लोगों को लामबंद करता जा रहा है। कृषि-संकट, भूमि की लूट तथा जन संघर्षों का दमन उसके सामने सबसे बड़ा मुद्दा है।
पंजाब में मानसा के गोविंदपुरा गांव में युद्ध जैसी हालत बनी हुई है। निजी कंपनियों के मुनाफे के लिए जबरन भूमि अधिग्रहण की जो कार्यवाही शुरू की गयी उसका प्रतिरोध लगातार उग्र रूप लेता जा रहा है। सरकार ने जब अक्टूबर 2010 में प्रस्तावित ताप बिजली घर योजना के नाम पर भूमि कब्जाने का काम शुरू किया तभी से पूरा ग्रामीण क्षेत्र अशांत है। जून 2011 तक हालत यह हो गयी थी कि समूचा गांव पुलिस छावनी में तब्दील हो गया था। आगे चल कर यह आंदोलन मानसा की सीमाओं को पार कर भटिंडा, संगरूर और फिरोजपुर तक फैल गया। मौजूदा भूमि अधिग्रहण नीति के खिलाफ लोगों का संघर्ष जारी है और वे लोग भी मुआवजे की राशि लौटा रहे हैं, जिन्हें बहला-फुसला कर भुगतान कर दिया गया था।
गोविन्दपुरा के लोगों का संघर्ष अभी जारी है। उन्होंने हर तरह के दमन का प्रतिकार किया और अपनी जमीन और मकान छोड़ने से इन्कार किया। इस संघर्ष में महिलाओं ने बड़ी शानदार भूमिका निभायी। जिन दिनों उनके घरों के पुरूष जेलों में बंद थे और समूचे गांव को पुलिस छावनी में तब्दील कर दिया गया था, उन्होंने इस संघर्ष को जारी रखा। ऐसी कठिन परिस्थितियों में उन्होंने पुलिस की लाठियों का मुकाबला किया और हर तरह के दमन का सामना किया।
यह उल्लेखनीय है कि अकाली दल (बादल) के इस कुप्रचार कि गोविंदपुरा के किसान अपनी मर्जी से जमीन देना चाहते हैं, उस वक्त करारा तमाचा लगा जब 11 अगस्त को सुरजीत सिंह हमीदी की श्रद्धांजलि सभा में एकत्रित 20,000 जन समुदाय के सामने गोविंदपुरा गांव के लोगों ने यह मांग की कि सरकार ‘इंडिया बुल्स पावर प्लांट’ के लिए 880 एकड़ जमीन के अधिग्रहण की नोटिस को तत्काल वापस ले। महत्वपूर्ण बात यह भी है कि किसानों के अलावा खेतिहर मजदूरों के 14 दलित परिवारों पर भी इस अधिग्रहण का बुरा असर पड़ा है। आंदोलनकारी नेताओं का कहना है कि सरकार पूरी तरह दमनात्मक कार्यवाही का सहारा ले रही है। समूचे इलाके में युद्ध जैसे हालात बने हुए हैं। पूरे गांव को छावनी में बदल दिया गया है। यहां तक कि गांव के लोग भी अगर खेतीवाड़ी के काम से या मवेशियों के लिए चारा लाने अथवा उन्हें चराने के मकसद से गांव से बाहर जाते हैं तो उनसे जबर्दस्त पूछताछ की जाती है और उनकी तलाशी ली जाती रही है। किसान और मजदूर यूनियनों, मानवाधिकार संगठनों के कार्यकर्ताओं को गांव के अंदर आने की इजाजत नहीं दी जाती रही है।
-जगमोहन सिंह