6 अगस्त हिरोशमा बरसी : परमाणु ऊर्जा से मानवजाति की तबाही की कीमत पर फल रहा साम्राज्यवाद
दुनिया भर में शासक वर्ग परमाणु ऊर्जा की खातिर अपने देश की जनता को तबाही की कगार पर ढकेल रहा है। हिरोशिमा, नागासाकी, चेर्नोबिल और फुकुशिमा, भोपाल इस तबाही का जीता-जागता सबूत है। भारत का शासक वर्ग भी अपने मुनाफे के लिए जब पूरी दुनिया में परमाणु रिएक्टरों का विरोध हो रहा है तब विकसित देशों का परमाणु भार जबरन अपनी देश की जनता पर थोप रहा है। तुहिन देब का यह आलेख न केवल परमाणु ऊर्जा से होने वाली तबाही पर प्रकाश डालता है बल्कि शासक वर्ग द्वारा फैलाया जा रहा सुरक्षित परमाणविक उर्जा के भ्रम की भी पोल खोलता है। हम यह आलेख आपके साथ यहां साझा कर रहे हैं;
1945 में द्वितीय विश्वयुद्ध के अंत में पहले से पराजित जापान के दो बड़े शहरों हिरोशिमा (6 अगस्त) तथा नागासाकी (9 अगस्त) पर नए उभरते हुए महाशक्ति अमरीका द्वारा, गिराए गए परमाणु बमों की याद विश्व की जनता के दिलो दिमाग में अमिट रूप से समा गई है। वह परमाणु हथियारों की अथाह दुष्परिणामों को आज भी नहीं भुला पा रही है।
ऐसी परिस्थिति में जबर्दस्त भूकम्प और सुनामी की लहरों से 11 मार्च 2011 को जापान के फुकुशिमा में परमाणु ऊर्जा के इतिहास में सबसे बड़ी नाभिकीय तबाही मची थी। इसकी वजह से हुई दुर्घटना पर आज भी काबू नहीं पाया जा सका है। इससे सघन आबादी वाले जापान द्वीप का एक बड़ा इलाका लोगों की बसाहट लायक नहीं रह गया। हवा और समुद्र के जरिए फैले रेडियोधर्मी विकिरण ने पूरी दुनिया में मनुष्य के खाद्य चक्र को दुषित कर दिया है और यह आने वाले कई दशकों तक भयंकर बीमारियों को भी जन्म देगा।
तभी से परमाणु ऊर्जा के उपयोग के खिलाफ दुनिया भर में प्रतिरोध विकसित हो रहा है। यह ज्यादा से ज्यादा देशों में फैलता जा रहा है और इसने अंतरराष्ट्रीय वित्तीय पूंजी की सम्पूर्ण ऊर्जा नीति के संकट को उजागर कर दिया है।
जब साम्राज्यवादी नीतियों की पैरोकार सरकारों ने पिछले वर्ष मौसम की आपदा से बचने के लिए विकल्प के रूप में परमाणु ऊर्जा को प्रोत्साहन देने की बात कही थी, तो यह उनकी जनता को गुमराह करने वाली गलतबयानी थी। 1979 में अमेरिका के हैरिसबर्ग के निकट थ्री माइल आईलैण्ड और 1986 में उक्रेन के चेर्नोबील की दुर्घटना, और साथ ही भारी जोखिमों से भरी अन्य अनेक दुर्घटनाओं ने साफ तौर पर साबित कर दिया है कि मौजूद तकनीक के संदर्भ में परमाणु ऊर्जा के उत्पादन को नियंत्रित नहीं किया जा सकता है। बाढ़, भूकम्प, भीतरी तोड़फोड़ और हवाई जहाजों की टक्कर जैसी बाहरी कारणों के अलावा भी यह त्रुटियों और गलतियों के प्रति अतिसंवेदनशील है। मनुष्य द्वारा संचालित किसी भी अन्य तकनीकी के समान इसमें टूट-फूट और क्षरण होता रहता है तथा निर्माण और संचालन के समय गलतियों से बचा नहीं जा सकता है। परमाणु ऊर्जा के संबंध में इसके सम्भावित दुष्परिणामों को किसी तरह उचित नहीं ठहराया जा सकता और यह व्यापक जनता के स्वास्थ्य एवं जिंदगी के लिए खतरनाक है।
परमाणु बिजलीघरों से निकलने वाला कचरा लम्बे समय तक, दस लाख साल तक, रेडियोधर्मी विकिरण फैलाता है, जिसे मनुष्य द्वारा काबू नहीं किया जा सकता है। परमाणु तकनीकी के विकास के साठ साल बाद भी दुनिया में किसी भी स्थान पर बिना खतरे के रेडियोधर्मी कचरे के भण्डारण और उसे अंतिम रूप से ठिकाने लगाने का कोई स्वीकृत तरीका नहीं है। यूरेनियम खनन, परमाणु बिजलीघरों एवं परमाणु शोध संयंत्रों के निर्माण के कारण पहले ही पर्यावरण को भारी नुकसान हो चुका है और ऊर्जा की अस्वीकार्य बर्बादी हो चुकी है।
कई देशों में परमाणु बिजलीघरों का निर्माण परमाणु हथियारों के उत्पादन के लिए समृद्ध यूरेनियम की आपूर्ति के लिए किया जाता है। यह दावा करना कि इस तरह के ऊर्जा का उत्पादन कम खर्चीला है, लम्बे समय से फैलाया जा रहा भ्रम है। एक परमाणु बिजलीघर के निर्माण की लागत चार से सात बिलियन अमेरिकी डालर है। अन्य किसी किस्म की ऊर्जा को राज्य द्वारा इतना ज्यादा अनुदान नहीं दिया जाता है। इसी कारण से ऊर्जा उत्पादक कंपनियों को अधिकतम मुनाफा होता है।
यह दावा करना कि परमाणु ऊर्जा संयंत्रों के निर्माण और संचालन से उन नव-उपनिवेशिक रूप से आश्रित देशों की राष्ट्रीय संप्रभुता की गारंटी होगी जहां कच्चे माल का अभाव है, लम्बे समय से फैलाया जा रहा भ्रम है। किसी भी अन्य क्षेत्र से ज्यादा, परमाणु ऊर्जा उत्पादन की तकनीकी पर केवल गिने-चुने अन्तरराष्ट्रीय ऊर्जा इजारेदारों और संयंत्र निर्माताओं का नियंत्रण है, जैसे कि सीमन्स, तोशिबा, वेस्टिंगहाउस, जनरल इलेक्ट्रिक, रोसाटोम और अवेरा। वे कभी भी अपनी तकनीकी जानकारी को अपने हाथ से निकलने नहीं देंगे। इसके अलावा, जन समुदाय को खतरे में डालकर घातक तकनीकी की मदद से राष्ट्रीय सम्प्रभुता कभी भी एक स्वतंत्र रास्ता नहीं हो सकता है, बल्कि एक गलत रास्ता है।
हाल की फुकुशिमा दुर्घटना के बाद यह निर्विवाद है कि इस किस्म का ऊर्जा उत्पादन एकदम से अमानवीय है। फिर भी, अंतरराष्ट्रीय वित्तीय पंूजी द्वारा 26-27 मई 2011 के जी-आठ शिखर वार्ता के दौरान 500 से ज्यादा नये परमाणु बिजलीघरों के निर्माण की अपनी योजना को सक्रिय रूप से पेश किया गया, जिससे उन्हें दुनिया भर से लगभग तीन ट्रिलियन अमेरिकी डालर का आर्डर मिलने की उम्मीद है।
जन प्रतिरोध की वैश्विक लहर के जरिए एक देश की सरकार को इस राजनीति से बाज आने के लिए बाध्य किया गया है। जर्मनी में आठ परमाणु बिजलीघरों को तत्काल बन्द कर दिया गया और सरकार को शेष नौ परमाणु बिजलीघरों को 2022 तक बन्द कर देने का निर्णय लेना पड़ा है। इटली में एक जनमत संग्रह में फिर से परमाणु बिजलीघरों के निर्माण को खारिज कर दिया गया है। वेनेजुएला में, चिली में और स्विटजरलैण्ड में परमाणु ऊर्जा संयत्रों का निर्माण रद्द कर दिया गया है। जापान में 82 प्रतिशत लोगों ने आगे से परमाणु ऊर्जा के इस्तेमाल पर आपत्ति जतायी है।
देर न हो जाये कहीं, देर…………….
चेरनोबिल परमाणु संयत्र दुर्घटना को इस साल 32 साल पूरे हो गए हैं। परमाणु ऊर्जा उद्योग तथा इसके समर्थक इस दुर्घटना को भुलाकर परमाणु ऊर्जा को नयी ऊँचाईयों तक पहुंचाने का दावा कर रहे थे। मगर चेरनोबिल परमाणु दुर्घटना की 25 वीं बरसी के कुछ दिन पहले ही जापान के फुकुशिमा में दाईः ची परमाणु ऊर्जा संयंत्र की खौफनाक तबाही ने पूरे विश्व को स्तब्घ कर दिया। फुकुशिमा की तबाही ने यह बिल्कुल साफ तथा स्पष्ट कर दिया है कि ‘‘सुरक्षित परमाणु रिएक्टर‘‘ का दावा सिर्फ एक ढकोसला है और इस दावे को कभी भी जमीनी सच्चाई में नहीं बदला जा सकता। फुकुशिमा की इस तबाही के बाद फिर से परमाणु ऊर्जा तकनीक के सुरक्षित होने के गीत गाने शुरू कर दिये हैं। जापान में आयी इस महाविपदा के कारण जर्मनी ने ईमानदारी से इस खतरनाक तकनीक के भविष्य पर दुबारा से सोचा तथा अपने सभी 30 साल पुराने रियक्टरों को बंद करने का निर्णय लिया। मगर वहीं भारत बहुत ही बेशर्मी तथा अदूरदर्शिता दिखाते हुए अपने परमाणु कार्यक्रम को और विस्तृत करने में लग गया। भारत के महाराष्ट्र राज्य के जैतापुर में विश्व का सबसे बड़ा ‘परमाणु ऊर्जा पार्क‘ स्थापित करने की योजना है। तमिलनाडु के कुडनकलम परमाणु संयंत्र के खिलाफ भी जबरदस्त संघर्ष जारी है। इसके अलावा आंध्र प्रदेश, मध्य प्रदेश, पश्चिम बंगाल, उत्तर प्रदेश, हरियाणा और राजस्थान में नए परमाणु बिजलीघरों के निर्माण का प्रस्ताव है।
म.प्र. के मंडला जिले के चुटका में प्रस्तावित परमाणु सयंत्र परियोजना के खिलाफ जबरदस्त जन आंदोलन के चलते दो बार सरकार को वहां जन सुनवाई स्थगित करनी पड़ी। कर्नाटक और आंध्र प्रदेश में यूरेनियम के नये खदान खोलने की योजना है।
जहां भी संयत्र लगाने का प्रस्ताव है, वहां के किसान और जनता इसके खिलाफ विद्रोह कर रही है और अपने विस्थापन का विरोध कर रही है। जापान में फुकुशिमा परमाणु ऊर्जा संयंत्र की दुर्घटना के कुछ दिन बाद ही आनन-फानन में हमारे परमाणु ऊर्जा विशेषज्ञों तथा प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने भारत के सभी रियक्टरों के सुरिक्षित होने का दावा किया। जैतापुर में परमाणु ऊर्जा पार्क का विरोध करने पर स्थानीय संघर्षरत जनता पर लाठियां तथा गोलियां बरसाई गई जिसमें बहुत से लोग घायल हुए तथा कुछ को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा। हमारी सरकार तथा प्रधानमंत्री परमाणु ऊर्जा से पैदा होने वाली बिजली की रोशनी में अभी से अंधे हो गये हैं। जो सरकार स्वयं जबरदस्त रूप से अमरीकी परस्त है वही, कुछ स्वयंसेवी संगठनों पर अमरीका के इशारे पर चलने का आरोप लगा रहे हैं। वह भी बिना किसी सबूत के। यह सब जनसंघर्षों से विचलित होकर जनता का ध्यान असल मुद्दों से हटाने के अलावा और कुछ नहीं है।
सुरक्षित परमाणु ऊर्जा : एक मिथक
परमाणु ऊर्जा संयत्रों की दुर्घटनाओं के इतिहास की तीन सबसे भीषण दुर्घटनायें ऐसे तीन देशों में हुई हैं जिनका दर्जा महाशक्ति देश का रहा है। उदाहरण के लिए पूर्व सोवियत संघ (रूस), जो उस वक्त एक महाशक्ति था, अमेरिका जो अभी भी महाशक्ति होने का दावा करता है, जापान, जो तकनीकी रूप से सर्वश्रेष्ठ रहा है तथा जिसे अपने उपकरणों पर हमेशा नाज रहा है। हेरिसबर्ग, चेरनोबिल, फुकुशिमा इन तीनों जगह पर हुई तबाहियों ने यह साबित कर दिया है कि एक बार जब यह जिन्न अपनी बोतल से बाहर आ जाता है तो इसे काबू में करना बहुत मुश्किल होता है, भले ही आप महाशक्ति हों या दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है। इन तीनों दुर्घटनाओं को याद करना जरूरी है, क्योंकि ये इस मिथक का पुरजोर खंडन करती हैं कि परमाणु ऊर्जा मानवता के लिए सुरक्षित है।
व्यापक जन समुदायों के बीच जन जागरण के लिए व्यवस्थित ढंग से काम करके, सक्रिय प्रतिरोध का व्यापक गठबंधन बनाकर, आलोचनात्मक रूख रखने वाले वैज्ञानिकों को अपने पक्ष में लाकर, परिष्कृत जानकारी प्रदान करने के लिए कार्यक्रमों का आयोजन कर, संघर्ष, नाकेबन्दी और हड़तालों के साझे दिवस का पालन कर साम्राज्यवाद के खिलाफ संघर्ष में दुनिया के परमाणु ऊर्जा संयंत्रों को बन्द करने तथा सभी नाभिकीय हथियारों पर प्रतिबन्ध लगाने के लिए संघर्ष को अंतरराष्ट्रीय क्रांतिकारी और मजदूर वर्गीय आंदोलन का एक केन्द्रीय कार्यभार बनाया जा सकता है।
विश्वव्यापी पर्यावरण विनाश से मानवजाति की आजीविका पर मंडरा रहे खतरे के विरूद्ध पूरी दुनिया में संघर्षरत जनता की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है। प्राकृतिक वातावरण के संरक्षण के लिए संघर्ष सामाजिक और राष्ट्रीय मुक्ति के लिए तथा समाजवादी सामाजिक व्यवस्था के लिए संघर्ष का हिस्सा है, जो मानव जीवन का प्रकृति के अनुरूप उत्पादन और पुनरूत्पादन करेगा।
अंतरराष्ट्रीय मुहिम निम्न नारों के साथ चलाया जा रहा है:- समस्त संसार में तत्काल सभी परमाणु बिजलीघरों और संयंत्रों को बन्द करने के लिए सक्रिय प्रतिरोध करो! इजारेदारों की मुनाफे की लालच से पर्यावरण की रक्षा करो! संचालकों के खर्च पर दुनिया भर में सभी परमाणु बिजलीघरों को तत्काल ताला लगाओ! पर्यावरण के अनुकूल ऊर्जा का तत्काल विस्तार करो! सभी नाभिकीय, जैविक और रासायनिक हथियारों पर प्रतिबंध लगाओं और खत्म करो! प्राकृतिक वातावरण की रक्षा के लिए सक्रिय प्रतिरोध के एक अंतराराष्ट्रीय मोर्चें का गठन करो। साम्राज्यवाद के विरूद्ध और समाजवादी समाज के लिए संघर्ष करो, जहां मानवजाति और प्रकृति की एकता को साकार किया जा सके!
आइए, हम सब मिलकर दुनियाभर में चलाए जा रहे इस मुहिम का समर्थन करें। कल कहीं बहुत देर न हो जाए।
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