वन संरक्षण कानून 1980 में प्रस्तावित संशोधन जंगल को कॉरपोरेट्स के हाथों बेचने की साजिश : भूमि अधिकार आंदोलन
नई दिल्ली : 2014 में एनडीए सरकार द्वारा प्रस्तावित भूमि अधिग्रहण अधिनियम का विरोध करने के लिए शुरू किए गए भूमि अधिकार आंदोलन समूह ने 12 नवंबर को एक बार फिर राष्ट्रव्यापी विरोध का आह्वान करते हुए प्रस्तावित संशोधनों को तर्कहीन और असंवैधानिक बताया। वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय ने 2 अक्टूबर को उसी अधिनियम में 1988 में किए गए संशोधनों के संदर्भ में वन संरक्षण अधिनियम 1980 में प्रस्तावित संशोधनों पर एक परामर्श पत्र जारी किया। मंत्रालय ने इस मसौदे पर लोगों से सुझाव भी मांगे हैं। आपत्तियां और सुझाव 17 अक्टूबर तक प्रस्तुत किए जा सकते हैं लेकिन विरोधी समूह को यह समय बहुत कम और अधिकांश हितधारकों के लिए दुर्गम लगता है।
उन्होंने सुझावों के लिए केवल 15 दिनों का समय दिया है और मसौदा केवल एक भाषा उपलब्ध है जो केवल उनकी वेबसाइट पर अंग्रेजी में है। आदिवासी क्षेत्रों में रहने वाले लोग यह भी नहीं समझ सकते हैं कि क्या प्रस्तावित किया जा रहा है क्योंकि न तो वे इंटरनेट का उपयोग कर सकते हैं और न ही वे भाषा समझ सकते हैं। इसका अधिक भाषाओं में अनुवाद किया जाना चाहिए था और व्यापक रूप से प्रसारित किया जाना चाहिए था। हितधारकों को अधिक समय दिया जाए ताकि वे इस पर आपत्ति कर सकें या इसमें बदलाव का सुझाव दे सकें। हन्नान मोल्लाह ने कहा कि वन और आदिवासी समुदायों से जुड़े पर्यावरणविद, सामाजिक कार्यकर्ता और संगठनों का मानना है कि इन संशोधनों के माध्यम से वन भूमि को गैर-वानिकी उद्देश्यों के लिए आसानी से उपलब्ध कराने का प्रयास किया जा रहा है। इन संशोधनों का इरादा मूल रूप से प्राकृतिक संसाधनों को कॉरपोरेट्स के हाथों में सौंपना और जंगल में प्राकृतिक संसाधन पर निर्भर समुदायों के अधिकारों से इनकार करना है। इस संशोधन ने वन अधिकार अधिनियम 2006 को पूरी तरह से दरकिनार कर दिया है।
भूमि अधिकार आंदोलन से जुड़े सदस्यों ने यह भी आरोप लगाया कि संशोधनों के पीछे मोदी सरकार का एजेंडा कंपनियों को जंगलों तक पहुंच प्रदान करने की अनुमति देना है। ऑल इंडिया यूनियन ऑफ फॉरेस्ट वर्किंग पीपल (AIUFWP) की सदस्य रोमा ने कहा कि ये संशोधन ग्राम सभा के अधिकारों को छीनते हैं और भारत के संघीय ढांचे को भारी रूप से केंद्रीकृत किया जा रहा है। इसे निश्चित रूप से चुनौती देने की जरूरत है क्योंकि यह जैव विविधता अधिनियम की भावना के खिलाफ भी है। 10 महीने से अधिक समय से चल रहे किसान संगठनों के आंदोलन के अनुरूप समूह ने 12 नवंबर 2021 को देशव्यापी विरोध का आह्वान किया है, जिसके बाद सरकार द्वारा उनकी मांगों को स्वीकार नहीं करने पर आंदोलन किया जाएगा।
वन संरक्षण कानून, 1980 में प्रस्तावित संशोधन
वन,पर्यावरण व जलवायु परिवर्तन मंत्रालय के वन संरक्षण विभाग ने 2 अक्तूबर 2021 को वन संरक्षण कानून, 1980 में प्रस्तावित संशोधनों के मसौदे को सार्वजनिक करते हुए इस मसौदे पर विशेषज्ञों व आम जनता की टिप्पणियाँ व सुझाव मांगे हैं। ये सुझाव इस मसौदे के जारी होने यानी 2 अक्तूबर से अगले 15 दिनों की समय सीमा में ही स्वीकार किए जाएँगे।
इस मसौदे को लाने की ज़रूरत को रेखांकित करते हुए मंत्रालय ने इस पत्र में लिखा है कि- 1980 में लागू हुए इस कानून को अब 40 वर्ष बीत चुके हैं। इन चालीस वर्षों में देश की परिस्थितिकी, सामाजिक एवं पर्यावरणीय परिदृश्य में व्यापक बदलाव हो चुके हैं। हालांकि इन चालीस सालों में समय समय पर इस कानून के प्रावधानों को नियमों व गाइडलाइंस के माध्यम से सामयिक बनाए रखने के प्रयास किए जाते रहे हैं। तब भी अभी के मौजूदा परिदृश्य में जहां संरक्षण और विकास की गति को एक साथ तेज़ किए जाने की ज़रूरत पेश आ रही है, यह ज़रूरी हो गया है कि इस कानून में संशोधन किए जाएँ।
इस पत्र के साथ संलग्न प्रस्तावित संशोधनों के मसौदे को देखें तो यह बुनियादी तौर पर वन संरक्षण कानून, 1980 को बदल देता है। हालांकि इस संलग्नक में 1988 में हुए संशोधनों को आधार बनाया गया है।
हम जानते हैं कि जब यह कानून लागू हुआ तो यह महज़ संसद से पारित एक कानून ही नहीं था बल्कि इस कानून के माध्यम से या इसके लिए उचित स्थान बनाने के लिए संविधान में संशोधन किए गए थे। इस कानून के आने के बाद जंगल और उनका संरक्षण संविधान की सातवीं अनुसूची के अनुसार केवल राज्यों के विषय या कार्य-क्षेत्र नहीं रह गए थे बल्कि वन को समपवर्ती सूची में शामिल किया गया था।
प्रस्तावित संशोधन क्या हैं?
• 12.12.1996 तक तमाम राज्य सरकारें व केंद्र शासित प्रदेश के प्रशासन और संघीय सरकार इस कानून के प्रावधानों को केवल उन्हीं क्षेत्रों में लागू करती रही हैं जो क्षेत्र भारतीय वन कानून, 1927 या किसी अन्य स्थानीय कानून के अनुसार वन के रूप में अधिसूचित किया गया था। या ऐसे जंगलों पर इस कानून के प्रावधान लागू होते थे जो जंगल या वन क्षेत्र प्रत्यक्ष रूप से वन विभाग के नियंत्रण व प्रबंधन के दायरे में आता था। 12 दिसंबर 1996 को माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा प्रसिद्ध गोदाबर्मन थिरुमुलपाद बनाम भारत सरकार (2020/1995) मामले में एक निर्णय देते हुए यह स्पष्ट किया कि इस कानून के प्रावधान किन क्षेत्रों में लागू किए जा सकते हैं। इस मामले को ‘फॉरेस्ट केस’के नाम से जाना जाता है। इस बड़े फैसले में सर्वोच्च न्यायालय ने बताया कि –
– ऐसे सभी क्षेत्रों में जो किसी भी तरह के शासकीय अभिलेखों में, स्वामित्व, मान्यता और वर्गीकरण के निरपेक्ष रहते हुए वन के रूप में दर्ज़ हैं। इनमें ऐसे भी क्षेत्र हैं जो किसी भी कानून के तहत वन के रूप में अधिसूचित हों।
– ऐसे सभी क्षेत्र जो उपरोक्त क्षेत्रों से भिन्न हों लेकिन वन की शब्दकोषीय परिभाषा के दायरे में वन माने जा सकते हों।
– ऐसे सभी क्षेत्र सर्वोच्च न्यायालय द्वारा गठित विशेषज्ञ समिति द्वारा वनों के रूप में चिन्हित किए हों। जिस विशेषज्ञ समिति की सिफ़ारिशों के आधार पर सर्वोच्च न्यायालय ने 12 दिसंबर 1996 को यह अपना निर्णय दिया था और जिसके आधार पर सर्वोच्च न्यायालय में 1997 में हलफनामे प्रस्तुत किए गए थे।
राज्य सरकारों ने भी हालांकि इस कानून के प्रावधानों को उन क्षेत्रों में लागू करना शुरू कर दिया था जिन्हें सर्वोच्च न्यायालय द्वारा गठित विशेषज्ञ समिति द्वारा वन के रूप में चिन्हित किया था और ऐसी भूमि को जो शब्दकोषीय परिभाषा के तहत वन माने जा सकते हैं। सर्वोच्च न्यायालय के इस फैसले को इस रूप में देखा गया कि इसके जरिये वन संरक्षण कानून के प्रावधानाओं को उन क्षेत्रों में भी लागू किया जा सकता है जहां गैर वन भूमि पर वृक्षारोपण किया गया है।
4. इस कानून के प्रावधान के अनुसार राज्य सरकारों व केंद्र शासित प्रदेशों के प्रशासन को उस सूरत में केंद्र सरकार के अनुमति लेना अनिवार्य होगा जब वो किसी वन भूमि के डायवर्जन या अनारक्षित करने के संबंध में कोई आदेश जारी करते हैं।
परामर्श के मुद्दे
1. मौजूदा परिदृश्य में अधिसूचित और गैर अधिसूचित तमाम वन भूमि और ऐसा क्षेत्र जो किसी भी शासकीय अभिलेख में वन के रूप में दर्ज़ में है , इस कानून के दायरे में आता है। इसके अलावा ऐसी किसी भी भूमि पर जहां बनस्पति मौजूद है वहाँ भी इस कानून के प्रावधान लागू होते हैं। यहाँ इस बात से फर्क नहीं पड़ता कि वह क्षेत्र या ज़मीन किसी के स्वामित्व में है या वर्गीकृत है, किसी स्थानीय मापदण्डों के अनुसार वन के रूप में समझा जाता है। इस तरह के चिन्हिकरण के साथ कुछ हद तक सब्जेक्टिव/वैयक्तिक और यादृच्छिक होने के खतरे होते हैं। इससे एक तरह की अस्पष्टता पैदा होती है और जिसके परिणाम स्वरूप व्यक्तियों व संस्थाओं की शिकायतें पैदा होती हैं। किसी निजी भूमि को वन मान लेने से उसकी अपनी उन तमाम गतिविधियों को सीमित कर दिया जाता है जो प्रकृति में गैर-वानिकी उद्देश्यों के लिए की जाती हैं। कई बार भूमि के उपयोग से जुड़े परिवर्तन के प्रस्तावों को सरकारों द्वारा स्वीकार नहीं किया जाता जबकि वह इस कानून के प्रावधानों के दायरे में आते हैं। यहाँ तक कि अगर ऐसा किया जाना कानूनन उचित हो, भू-स्वामी को उस भूमि के बराबर गैर वन भूमि और अन्य क्षतिपूर्ति राशि मुआवज़े के तौर पर देना ज़रूरी हो जाता है, जबकि वह उसकी अपनी ज़मीन है लेकिन उस पर गैर वानिकी उद्देश्यों के लिए कोई काम करना चाहता है। इस वजह से एक ऐसी प्रविरत्ती पैदा होती है कि चिन्हित वन भूमि पर खड़े पेड़ों व अन्य बनस्पतियों को मिटा दिया जाए भले ही उस भूमि पर वृक्षारोपण के लिए अनुकूल परिस्थितियाँ मौजूद हों। इस परिस्थिति में, शिद्दत से यह महसूस किया जा रहा है कि वन संरक्षण कानून, 1980 के प्रावधानों के दायरे को निरपेक्ष ढंग से पुनरपरिभाषित किया जाये।
2. अभी, रेल मंत्रालय, सड़क, परिवहन और राजमार्ग मंत्रालय जैसे कई अन्य मंत्रालयों की नाराजगी है कि इस कानून के प्रावधान लागू होने में रेलवे, राजमार्गों के रास्ते के अधिकार (rightof way) का ध्यान नहीं रखा जा रहा है। ज़्यादातर मामलों में, रास्ते के अधिकार के तहत इस तरह के संगठनों ने 1980 से पहले ही औपचारिक रूप से अधिग्रहण के लिए आवेदन किए हुए हैं ताकि रेल मार्गों व राजमार्गों का निर्माण किया जा सके। इन उद्देश्यों के लिए अधिग्रहित ज़मीनों का जो हिस्सा अब तक इस्तेमाल हुआ है वह 1980 से पहले अधिग्रहित किया जा चुका था शेष प्रस्तावित भूमि भविष्य में ज़रूरत के लिए आरक्षित कर दी गयी थी। अब उन अधिग्रहीत ज़मीनों पेड़ खड़े हैं या जंगल बन गया है जो असल में 1980 से पहले ही अधिगृहीत की जा चुकीं थीं। इसके अलावा जहां पेड़ नहीं उगे वहाँ विभिन्न सरकारी योजनाओं के तहत वृक्षारोपण किया जा चुका है। कुछ मामलों में इन वृक्षों की सुरक्षा के मद्देनजर इन ज़मीनों को संरक्षित वनों के तौर पर अधिसूचित कर दिया गया है।
सर्वोच्च न्यायालय द्वारा इस कानून के प्रावधानों को लागू किए जाने के दायरों के साथ देखें तो ये ज़मीनें ऐसी सभी ज़मीनों का इस्तेमाल गैर वानिकी उद्देश्यों के लिए किए जाने के लिए भारत सरकार से पहले ही अनुमोदन लेने की ज़रूरत है। अत: इन तमाम एजेंसियों (मसलन रेलवे, राजमार्गों, पीडब्ल्यूडी आदि) को इस कानून के तहत अनुमोदन (एप्रूवल) लेने की ज़रूरत होगी, और साथ में मुआवजे के तौर पर नेट प्रेजेंट वैल्यू, क्षतिपूर्ति वनीकरण आदि के लिए का भुगतान करना होगा ताकि इन ज़मीनों का इस्तेमाल गैर वानिकी उद्देश्यों के लिए किया जा सके जो इन अधिग्रहीत ज़मीनों का मूल उद्देश्य था। मंत्रालय अब ऐसी ज़मीनों को इस कानून के दायरे से मुक्त करने पर विचार कर रही है जिन ज़मीनों का अधिग्रहण 25 अक्तूबर 1980 से पहले ही किया जा चुका था।
3. (i) यह भी एक तथ्य है कि भारत व्यापक तौर पर एक ऊष्णकटिबंधीय भौगोलिक क्षेत्र है जिसकी वजह से यहाँ की प्रकृति ही ऐसी है कि यहाँ की ज़मीनों पर नैसर्गिक रूप से बनस्पति पैदा हो जाती है और जिसे अगर यूं ही बढ्ने दिया जाये तो लंबे समय बाद एक जंगल का स्वरूप पैदा हो जाता है। ऐसी ज़मीनों को जहां स्वाभाविक रूप से बनस्पति के जंगल पैदा हो गए हैं उन्हें शब्दकोषीय परिभाषा के अनुसार डीम्ड फॉरेस्ट की श्रेणी में आती है।ऐसी ज़मीनों पर वन संरक्षण कानून के प्रावधान लागू किए जा सकते हैं। इसलिए यह भी प्रवृत्ति लोगों में देखी गयी है कि वो ऐसी ज़मीनों पर नैसर्गिक बनस्पति को पनपने नहीं देते हैं।
(ii) राष्ट्रीय वन नीति, 1988 के माध्यम से निर्धारित किए गए लक्ष्यों के अनुसार देश के तिहाई भौगोलिक क्षेत्र को वनाच्छादित क्षेत्र बनाने की दिशा में वृक्षारोपण अभी संतोषजनक है लेकिन इसे बनाए रखने की आवश्यकता है। अभी देश में कुल वनाच्छादित क्षेत्र 24.56 प्रतिशत है जिसे और विस्तार देने में कुछ व्यावहारिक अड़चनें हैं जिनकी वजह से वन नीति के अनुसार एक तिहाई क्षेत्रफल वनाच्छादित नहीं हो पा रहा है। इसलिए ऐसी ज़्यादा से ज़्यादा ज़मीनों को जो निजी स्वामित्व के तहत हैं उन्हें वनों के दायरे में लाये जाने की ज़रूरत है जिससे पारिस्थितिकी, आर्थिक और पर्यावरणीय लाभ हों।
(iii) 2030 तक देश में कार्बन के गोदाम (कार्बन सिंक) की क्षमता 2.5 से 3.0 बिलियन टन तक बढ़ाने के लिए ताकि लकड़ी और लकड़ी से बने विभिन्न उत्पाद आयात करने के लिए जिनकी कीमत 45 हज़ार करोड़ है उनके विदेशी मुद्रा विनिमय के भार को कम करने के लिए राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान (Nationally Determined Contribution -NDC)मानकों को लागू करने के लिए यह ज़रूरी है कि बड़े पैमाने पर वृक्षारोपण और वनीकरण को प्रओत्साहित किया जाये। इसके लिए उन सभी संभावित ज़मीनों को चिन्हित किया जाए जो शासकीय जंगलों से बाहर हैं। लेकिन यह सुनिश्चित करने के लिए, यह बहुत ज़रूरी है कि ऐसी निजी ज़मीनों के मालिकों को यह स्पष्ट किए जाने की ज़रूरत है कि अगर वो अपनी ज़मीनों पर बनस्पति और पेड़ पैदा करते हैं तो उनके ऊपर वन संरक्षण कानून, 1980 के प्रावधान लागू नहीं होंगे।
4. भारत में, वनों के अलग अलग भू-अभिलेख मौजूद हैं। कई बार गंभीर विरोधाभासी परिस्थितियां पैदा हो जाती हैं। एक ही ज़मीन शासकीय अभिलेखों में वन अभिलेखों में दर्ज़ हैं तो वही ज़मीन राजस्व अभिलेखों में भी दर्ज़ हैं। इससे गलतफहमियां पैदा होती हैं और मुकद्दमों के लिए परिस्थितियाँ बन जाती हैं। इसलिए, इन मामलों में स्पष्टतता लाने की ज़रूरत है उसी तरह यह भी तय किए जाने की ज़रूरत है कि इन ज़मीनों पर यह कानून लागू होता है। राजस्व अभिलेखों में काबिजों तथा ज़मीन की प्रकृति स्पष्ट व अनिवार्य रूप से बताना होगा जिसमें वनों को भी शामिल किया जाएगा। शिद्दत से यह महसूस किया गया है कि 12 दिसंबर 1996 के बाद गैर वन भूमि पर हुए वृक्षारोपण और वनीकरण आदि को राजस्व अभिलेखों में दर्ज़ किया जाए और इन्हें इस कानून के दायरे से बाहर माना जाये ताकि वनीकरण की गतिविधियों को प्रोत्साहित किया जा सके। इनमें कृषि वानिकी और अन्य वृक्षारोपण शामिल हों।
5. कई राजमार्गों, सड़कों व रेलमार्गों पर स्ट्रिप वृक्षारोपण विकसित हो गया है जिसे वनों के रूप में अधिसूचित किया गया है। कई क्षेत्रों में सड़कों/रेलमार्गों के समानान्तर नागरिक सुविधाएं व आवास भी विकसित हो गए हैं। इन सुविधाओं (निजी व शासकीय) के लिए पहुँच मार्गों (सड़कें व रेलमार्ग) की ज़रूरत है जो प्राय: उन अधिसूचित स्ट्रिप वनों से होकर जाएंगीं। चूंकि ये गतिविधियां गैर वानिकी प्रकृति की हैं और हर मामले में इन गतिविधियों में वन भूमि का इस्तेमाल होगा जिसके लिए संघीय सरकार से पूर्वानुमति/अनुमोदन की ज़रूरत होती है। इस तरह के सभी मामलों में लगभग 0.05 हेक्टेयर वन भूमि की आवश्यकता है। मंत्रालय की समझ है कि ऐसे मामलों में वन भूमि के इस्तेमाल को वन संरक्षण कानून के दायरे से मुक्त किया जाए ताकि इन अवसीय परिसरों में निवासरत लोगों व व्यवसायियों की कठिनाइयों को कम किया जा सके।
6. कानून के मौजूदा प्रावधान नियामक और गैर निषेधात्मक हैं और इसलिए इस कानून में ऐसे कोई प्रावधान नहीं हैं कि किसी ऐसे क्षेत्र में ज़मीनों के गैर वानिकी उपयोगों को रोक सकें, जिन क्षेत्रों को अपनी विशिष्टाओं और high landscape integrated value की वजह से उच्च श्रेणी के संरक्षण की ज़रूरत है. इसके अलावा, इन 40 सालों के दौरान जब से यह कानून लागू हुआ है,परिस्थितिकी व पर्यावरणीय परिदृश्य में बड़े पैमाने पर बदलाव हुए हैं। प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण, सुरक्षा और विकास की दिशा में बनी नीतियों और कार्यक्रमों में पूरी दुनिया में आमूलचूल बदलाव हुए हैं ताकि बदलते परिस्थितिक सामाजिक और आर्थिक परिवेश को समावेशित किया जा सके। इन बदलावों को ध्यान में रखते हुए, मंत्रालय इन कानून में ऐसे प्रावधान शामिल किए जाने पर विचार कर रहा है ताकि इन प्राचीन वनों को इनके समृद्ध पारिस्थितिक मूल्यों के संरक्षण और नुमाइश के लिए कुछ समय के लिए संरक्षित रखा जा सके।
7. देश की अंतरराष्ट्रीय सीमाओं पर आधारभूत संरचनाओं का विकास बहुत महत्वपूर्ण है ताकि हम अपनी सरहदों को सुरक्षित बनाए रख सकें और देश की संप्रभुता पर कोई आंच न आए। वन भूमि के गैर वानिकी कार्यों के लिए इस्तेमाल हेतु अनिवार्य रूप से स्वीकृतियाँ लेने के कठिन प्रावधानों के मौजूदा परिदृश्य में कई बार यह देखा गया है कि राष्ट्रीय महत्व के रणनीतिक व सुरक्षा संबंधी परियोजनाओं के निर्माण में अनवशयक देरी हो जाती है और इससे सामरिक महत्व की लोकेशन्स में आधारभूत संरचनाओं के निर्माण को धक्का लगता है। क्या ऐसी परियोजनाओं के लिए कानून में दिये गए प्रावधानों के अनुसार संघीय सरकार से स्वीकृति लेने की बाध्यता खत्म की जा सकती है? और ऐसी परियोजनाओं को स्वीकृति देने के लिए राज्य सरकारों को अधिकृत किया जा सकता है ताकि सामरिक और सुरक्षा से जुड़ी ऐसी परियोजनाओं के लिए जिन्हें एक निश्चित समय सीमा में पूरा हो जाना चाहिए, राज्य सरकारें ही वन भूमि पर गैर वानिकी प्रयोजनों के लिए स्वीकृतियाँ दे सकें।
8. यह भी देखा गया है कि खनन पट्टों के मामलों में,कानून में दिये गए दो प्रावधान बड़े पैमाने पर अस्पष्टतता व गलतफहमियाँ पैदा करते हैं। ये दो प्रावधान क्रमश: उप- अनुच्छेद 2 (ii) व 2 (iii) हैं। उप-अनुच्छेद 2 (ii) में खनन लीज़ के लिए असाइनमेंट के लिए है जबकि उप अनुच्छेद 2 (iii) वन भूमि को गैर वानिकी कार्यों के लिए इस्तेमाल से संबंधित है। मौजूदा प्रावधान के अनुसार उप-अनुच्छेद 2 (iii) के अनुसार केवल वन भूमि की नेट प्रेजेंट वैल्यू (NPV) का ही भुगतान किया जाता है। इसके अलावा, इस तरह की अनुमतियों पर विचार करते समय ज़रूरी पड़ताल के लिए बहुत कम अवसर हैं। जबकि उप-अनुच्छेद 2 (ii) के तहत अनुमति देने के लिए प्रस्ताव का विस्तृत परीक्षण किया जाने के अवसर होते हैं,जहां निर्णय तक पहुँचने के लिए ज़रूरी सहयोगी परिस्थितियां (डिसीज़न सपोर्ट सिस्टम) होती हैं और कई पद्धतियां जो नियमों व गाइडलाइंस के जरिये व न्यायलयीन आदेशों को अपनाया जाता है। जंगल की नेट प्रेजेंट वेल्यू (एनपीवी) के अलावा क्षतिपूर्ति वनीकरण के लिए लेवी क्षतिपूर्ति वनीकरण के लिए भूमि, सेफ़्टी ज़ोन प्लांटेशन आदि का भी भुगतान किया जाता है। इस स्थिति में खनन के लिए लीज़ के इच्छुक उद्योगपति उप-अनुच्छेद 2(iii) का उपयोग करेंगे और जंगल का बड़ा क्षेत्रफल केवल नेट प्रेजेंट वेल्यू के भुगतान करके प्रपट कर लेंगे। यह भी स्पष्ट नहीं है कि उप-अनुच्छेद 2(iii)के तहत प्रदान की गयी स्वीकृति को ‘वन स्वीकृति’ माना जाएगा या नहीं? और सर्वोच्च न्यायालय के अनुसार fait accompli की स्थिति से बचने के लिए पर्यावरण (संरक्षण) कानून, 1986 के तहत ‘पर्यावरण स्वीकृति’प्रदान की जा सकती है। ऐसी स्थिति में जहां उप-अनुच्छेद 2 (ii) के तहत अनुमति ली जा चुकी है लेकिन लीज़ के लिए उप-अनुच्छेद 2 (ii)के तहत आवेदन किया है।
मूल रूप से, उप-अनुच्छेद 2(iii)कुछ निश्चित उद्देश्यों मसलन वृक्षारोपण (जहां ज़मीन की खुदाई या पेड़ों की कटाई करके ज़मीन की सफाई का उद्देश्य न हो) और ऐसे कार्यों के लिए जिनका उद्देश्य ज़मीनों की खुदाई या सफाई हो जैसे खनन लीज़ आदि पर लागू होता था। लेकिन बाद में उप-अनुच्छेद 2(iii)का इस्तेमाल खनन लीज़ और इस तरह के अन्य गैर वानिकी कार्यों के लिए होना शुरू हो गया। इसलिए यह प्रस्ताव किया जा रहा है कि इस अनुच्छेद यानी 2(iii)को कानून से खारिज किया जाये और यह स्पष्ट किया जाये कि उप अनुच्छेद 2(ii) का ही इस्तेमाल किसी भी तरह की लीज़ जिनकी मंशा गैर-वानिकी कार्यों की हो, के लिए इस्तेमाल किया जाएगा।
9. नयी तकनीकी अब आ रही है जैसे एक्स्टेंडेड रीच ड्रिलिंग (ERD) जिससे वन भूमि के गहरे तलों से तेल व प्राकृतिक गैसों की खोज व उन्हें निकालने की सुविधाएं बढ़ीं हैं और जिनके उपयोग से वन के बाहरी क्षेत्रों ड्रिलिंग की जा सकती है इससे वनों के लिए ज़रूरी मृदा और जलभृत (aquifer) को कोई नुकसान नहीं पहुंचता है। मंत्रालय, इस तरह की तकनीकी के उपयोग पर विचार कर रही है जो पर्यावरण हितैषी हैऔर जिसे इस कानून के दायरे से बाहर रखा जाये।
10. ऐसे व्यक्तियों की शिकायतों का समाधान करने के लिए जिनकी भूमि राज्यों के अपने निजी वन क़ानूनों के दायरे में आती हैं या 12 दिसंबर 1996 को सर्वोच्च न्यायालय द्वारा जारी आदेश के तहत शब्दकोषीय परिभाषा के दायरे में आती है और ज्सिकी वजह से उन भूमियों पर वन संरक्षण कानून लागू है,मंत्रालय यह प्रस्ताव देना चाहता है कि ऐसे लोगों को वन भूमि पर संरचनाओं के निर्माण की इजाजत दी जाए जो वो प्रामाणिक उद्देश्यों के लिए किया जा रहा हो। यह इजाजत इसी शर्त पर दी जाए कि वो वन संरक्षण के तमाम प्रावधानों का पालन करें और ऐसी संरचनाओं के निर्माण के लिए एक बार में अधिकतम 250 वर्ग मीटर तक का ही इस्तेमाल कर सकें।
11. वन संरक्षण कानून, 1980 के अनुच्छेद 2 में गैर वानिकी उपयोगों की व्याख्या की गयी है। इसके तहत ऐसी गतिविधियों को चिन्हित किया गया है जिन्हें गैर वानिकी गतिविधियां माना गया है और जो इस अनुच्छेद के उद्देश्य के लिए नहीं हैं। यह समझा गया है कि ये गतिविधियां जो वन संरक्षण और वन्य जीव संरक्षण के लिए में सहयोगी हैं उन्हें गैर वानिकी उपयोग की गतिविधियों के तौर पर नहीं देखा जाना चाहिए। इसी प्रकार, यह भी प्रस्तावित किया गया है कि चिड़ियाघरों की स्थापना, सफारी, वन प्रशिक्षण के लिए संरचनाओं आदि को अनुच्छेद 2 (ii) के लिए भी गैर-वानिकी उपयोगों की परिभाषा के तहत शामिल नहीं किया जाना चाहिए।
12. क्षतिपूर्ति करारोपण अनिवार्य है ताकिगैर वानिकी उपयोगों के लिए वन भूमि की स्वीकृति के दौरान जो परिस्थितिकी सेवाएँ मुहैया कराई जा रही हैं वो वन भूमि आबंटित किए जाने के बाद ठीक रहता है। यह महसूस किया गया है कि किसी उद्देश्य के लिए लीज़ के नवीनीकरण के समय दोहरी क्षतिपूर्ति कर थोपना तार्किक नहीं है।
13. कानून में दिये गए स्पष्ट दंडात्मक प्रावधानों के बावजूद कानून के प्रावधानों के उल्लंघनों के मामले सामने आते हैं। मंत्रालय यह सोचता है कि दंड के प्रावधान और सख्त किए जाएँ ताकि कोई इंका उल्लंघन न करे। इस संदर्भ में, अनुच्छेद 2 के तहत किसी भी तरह का अपराध के लिए दंडनीय बनाया जाये जिसके अनुसार एक साल तक की अवधि के लिए जेल की सज़ा का अपरावधान किया जाए। इस तरह के अपराध संज्ञेय हों और गैर-ज़मानती हों। यह भी प्रस्ताव किया जा रहा है कि अनुच्छेद 3A के तहत जेल की सज़ा के अतिरिक्त दंडात्मक क्षतिपूर्ति का प्रावधान भी किया जाये ताकि उस नुकसान की भरपाई की जा सके जो किए जा चुके हैं। साथ ही, यह भी प्रस्ताव किया जा रहा है कि अगर किसी मामले में राज्य सरकार या केंद्र शासित प्रदेश के प्रशासन का कोई मुलाज़िम किसी अपराध में लिप्त पाया जाये तो उससे भी दंडात्मक क्षतिपूर्ति की राशि वसूल की जाये जिसे राष्ट्रीय CAMPA फण्ड्स में जमा किया जाए न कि राज्य CAMPA फण्ड्स में।
14. सर्वे या परीक्षण ऐसी प्रक्रियाएं हैं जिन्हें वास्तविक ढंग से वन भूमि गैर-वानिकी उपयोग की स्थिति से पहले के तौर पर देखा जाना चाहिए। इस तरह की कई गतिविधियों में वन भूमि का इस्तेमाल बहुत कम अवधि के लिए ही होता है और इन गतिविधियों से वन भूमि और जैव विविधितता पर कोई प्रत्यक्ष प्रभाव नहीं पड़ता है। लेकिन ये गतिविधियां चूंकि गैर वानिकीउद्देश्यों की श्रेणियों में आती हैं इसलिए इन्हें संघीय सरकार से पूर्वानुमतियों की ज़रूरत होती है जिसके लिए औपचारिक प्रक्रिया संचालित होती है जिसमें बहुत वक़्त लग जाता है। इस मामले को देखते हुए, विशेष रूप से ऐसी गतिविधियों को ध्यान में रखते हुए जहां कोई प्रत्यक्ष प्रभाव/नुकसान नहीं होते उन गतिविधियों के लिए कानून के प्रावधान लागू नहीं होंगे।