संघर्ष संवाद
Sangharsh Samvad

नदियों को नाथने के नतीजे

नदियां सिर्फ नदियां नहीं हैं, ये हमारा सांस्‍कृतिक जीवन भी हैं। नदियों का निर्मल जल दोनों किनारों और दियारे की हरी-भरी उर्वर भूमि, फैली रेत, असंख्‍य जीव-जन्‍तु, तरह-तरह के पेड़-पौधे और वनस्‍पतियां और करोड़ों-करोड़ लोग, हंसते, गाते और कभी दुख में आंसू बहाते, सब मिलकर बनता है नदियों का संसार। मनुष्‍य ने इन नदियों से बहुत कुछ पाया है। ये हमारी पालनहार हैं। ठीक वैसे ही जैसे माताएं अपने बच्‍चों की गंदगी साफ करती हैं और उन्‍हें अपने स्‍तनों का दूध पिलाती हैं।

मनुष्‍य ने इन्‍हें बांधने की कोशिश की। गटर समझकर इनमें जहरीले कचरे गिराये जाने लगे, प्रगति के नाम पर बड़े-बड़े बांध और बराज बनाने लगे, उनके दोनों किनारों को तटबंधों से जकड़ने की कोशिश की गई, लेकिन नदियां इन बंदिशों और जकड़नों को तोड़ देना चाहती हैं। मानो मनुष्‍य को यह संदेश देना चाहती हैं कि वे भी गुलामी के बंधनों को तोड़कर स्‍वतंत्र और स्‍वाभाविक जीवन की ओर अग्रसर हैं। नदियों की अपनी-अपनी प्रकृति होती है, उसी प्रकृति के अनुकूल वे स्‍वयं अनुशासित भी होती हैं, लेकिन जब उनमें कचरे का अंबार डाला जाने लगता है या उन्‍हें बंधनों में जकड़ने की कोशिश होती है, तो नदियां भी अपना संयम और अनुशासन छोड़कर विनाशकारी रूप लेने लगती हैं।

प्रकृति के रहस्‍यों, उसके नियमों और अवस्‍थाओं, उसमें होने वाले परिवर्तनों के बारे में जैसे-जैसे जानकारियां मिलती गईं, वैसे-वैसे मनुष्‍य ने आपदाओं से सुरक्षा के रास्‍ते खोजे। इस संदर्भ में सबसे महत्‍वपूर्ण है – प्रकृति के साथ सामंजस्‍य करके चलना। देखा गया है कि मनुष्‍य ने जब-जब प्रकृति के साथ खिलवाड़ करने की कोशिश की, प्रकृति ने पलटकर वार किया है और विनाश-लीला मचाई है। विश्‍व इतिहास में ऐसे ढेरों उदाहरण मौजूद हैं।

‘हड़प्‍पा’ और ‘मोहन-जोदड़ो’ की उन्‍नत सभ्‍यता का नाश भी वनों की अत्‍यधिक कटाई और प्रकृति के साथ अत्‍यधिक छेड़-छाड़ का परिणाम था, ऐसा अनेक लोगों का मत है। जिन्‍हें हम प्राकृतिक आपदाएं कहते हैं उनमें से ज्‍यादातर मानवकृ‍त आपदाएं होती हैं। विज्ञान और टेक्‍नोलॉजी का विकास जिस कदर हो रहा है उसका उपयोग करके यह संभव हो सकता है कि हम प्रकृति के साथ सामंजस्‍य करके चलें, लेकिन ऐसा न करके प्रकृति के अनियंत्रित दोहन की कोशिश की जा रही है।

इससे ऐसी-ऐसी समस्‍याएं पैदा हो रही हैं जो मानव जाति एवं पूरे जीव-जगत के लिए कष्‍ट और तबाही का कारण बनती जा रही हैं। तमाम चीजों को समग्रता में देखने के बजाय एकांगी दृष्‍टिकोण अपनाने और समस्‍याओं का समाधान टुकड़े-टुकड़े में खोजने की कोशिश ने भारी प्राकृतिक असंतुलन पैदा करना शुरू कर दिया है। इसका दुष्‍प्रभाव नदियों और उनके उद्गम-स्‍थलों पर साफ-साफ दिखाई पड़ने लगा है।

हाल के दिनों में नदियों पर एक और संकट ‘नदी जोड़ परियोजना’  की शक्ल में आया है। जो लोग ‘नदी जोड़ परियोजना’  के लिए प्रयासरत हैं उनके दावे हैं कि नदियों को जोड़ने से देश में सूखे की समस्‍या का स्‍थायी समाधान निकल आएगा और लगभग 15 करोड़ हेक्‍टेयर क्षेत्र में सिंचाई क्षमता बढ़ाई जा सकेगी। दूसरे, इससे गंगा और ब्रह्मपुत्र क्षेत्र में हर साल आने वाली बाढ़ की समस्‍या कम हो जाएगी और तीसरे, राष्‍ट्रीय बिजली उत्‍पादन के क्षेत्र में 34,000 मेगावाट पन-बिजली का और अधिक उत्‍पादन होगा।

नदियों को जोड़ने का प्रस्‍ताव करीब 100 साल पहले सर आर्थर कॉटन ने रखा था। सन् 1972 में तत्‍कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की सरकार के सिंचाई मंत्री के.एल. राव ने प्रस्‍ताव रखा था कि गंगा को कावेरी से जोड़ा जाए। सन् 1974 में कैप्‍टन दिनशा जे. दस्‍तूर ने ‘गारलैंड केनाल’ के नाम से इसे सामने लाए थे। उसके बाद तो जब, जिसके मन में आता है, ‘नदी जोड़ परियोजना’ की वकालत करने लगता है। इस तरह की योजनाओं के सर्वांगीण पक्षों पर गहराई से अध्‍ययन और विचार किए बिना भी कई महत्‍वपूर्ण लोगों ने इसकी वकालत की है।

डॉ. ए.पी.जे. अब्‍दुल कलाम शीर्ष मिसाइल वैज्ञानिक थे, राष्‍ट्रपति तो थे ही। अगर उन्‍होंने हिमालय से निकलने वाली गंगा और ब्रह्मपुत्र घाटी की भूगर्भीय स्थिति, गाद आने की मात्रा, इन नदियों के स्‍वभाव तथा पूर्व में अमेरिका तथा भारत की अन्‍य वृहद सिंचाई परियोजनाओं तथा उनकी ताजा स्थिति का अध्‍ययन किया होता तो ‘नदी जोड़ परियोजना’  से होने वाली विभीषिकाओं का अनुमान कर लेते और इसका समर्थन कदापि नहीं करते।

योगगुरु रामदेव को योग और आयुर्वेद का गहरा ज्ञान है, लेकिन नदियों और हिमालय के शास्‍त्र के वे मर्मज्ञ नहीं हैं, फिर भी उन्‍होंने ‘नदी जोड़ परियोजना’ को लागू करने की मांग उठाई थी। भारत सरकार के जल संसाधन मंत्रालय के भूतपूर्व सचिव रामास्‍वामी आर. अय्यर ने ‘नदी जोड़ परियोजना’  को 10 साल के अंदर पूरा करने के सुप्रीमकोर्ट के निर्देश के बारे में कहा था- ‘माननीय जजों को अपना निर्देश देने से पहले मामले का पूरी तरह अध्‍ययन कर लेना चाहिए था।’

भारत में अभी भी बहुत कम लोगों को पता है कि अमेरिका में इस प्रकार की योजनाओं के दुष्‍परिणाम सामने आ चुके हैं। ‘टैनेसी वैली योजना’ (टीवीसी) की नकल पर बनी ‘डीवीसी’ (दामोदर घाटी परियोजना, भारत) की विफलता इसी का नमूना है। कोलोराडो नदी की परियोजना से लेकर मिसीसिपी घाटी तक बड़ी संख्‍या में नदी घाटी परियोजनाएं गाद भर जाने के कारण बाढ़ का प्रकोप बढ़ाने लगीं और जल-विद्युत का उत्‍पादन समाप्‍तप्राय: हो गया। बाद में उनके किनारे थर्मल पावर स्‍टेशन लगाए गए, लेकिन अंतत: उन बांधों को तोड़ना पड़ा।

अमरीका में सन् 1999 से ले‍कर सन् 2002 के बीच 100 से ज्‍यादा बांधों को तोड़ा गया है। उसके बाद भी लगातार बांधों की ‘डी कमीशनिंग’ जारी है। यह काम काफी खर्चीला होता है। एक-एक बांध तोड़ने में 10 से 15 साल लगते हैं। अनेक कंपनियां इस धंधे में लगी हैं और सार्वजनिक धन से अच्‍छा-खासा मुनाफा निकाल रही हैं। जाहिर है, आजकल नदियां सिंचाई, पेयजल जैसे अपने मूल कामों की बजाए मुनाफा कमाने में लगाई जा रही हैं। बडे बांधों, बराजों आदि का निर्माण बिल्डरों, ठेकेदारों, नौकरशाहों और राजनेताओं की जेबें भरने के लिए किया जाता है और इसे जानने के लिए किसी रॉकेट-साइंस की जरूरत नहीं पडती। इन परियोजनाओं के कथित लाभार्थी ही, अपने भोगे हुए अनुभवों की मार्फत इसे बता सकते हैं।

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लेखक अनिल प्रकाश गंगा मुक्ति आंदोलन के कार्यकर्ता हैंउनका यह आलेख सप्रेस से साभार लिया गया है।

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