विश्वविद्यालय बनाम सरकार : सरकार बनाम देश
क्या भाजपा जेएनयू को अपना ख़ास देशी थीआनमेन स्क्वायर बनाना चाहती है? आखिर वह कौन सी चीज है जो सत्ता के सर्वोच्च शिखरों को एक विश्वविद्यालय के खिलाफ एकतरफा युद्ध जैसी स्थिति में उतार देता है? यदि जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय का नाम दीनदयाल उपाध्याय विश्वविद्यालय या श्यामाप्रसाद मुखर्जी विश्वविद्यालय होता क्या तब भी भाजपा का यही रुख रहता? लम्बे समय से केंद्र सरकारों की आँख की किरकिरी बन सकने की कूवत रखने वाले इस विश्वविद्यालय पर हो रहे हमले का निहितार्थ क्या है? आखिर क्या है जेएनयू? जेएनयू पर हमला क्यों? तमाम सवालों पर संदीप सिंह की विस्तृत रिपोर्ट कैच हिंदी से साभार;
जेएनयू पर हो रहे हमले को अलग-थलग काट कर नहीं देखा जाना चाहिए. यह देश भर में अलग-अलग समुदायों पर बढ़ रहे हमलों की निरंतरता में ही हो रहा है. फर्क सिर्फ इतना है कि सत्ता-प्रायोजित जो खुला और छुपा युद्ध अब तक भारत के आदिवासी इलाकों, किसानों, महिलाओं, दलितों, अल्पसंख्यकों, हाशियों समुदायों और ‘अशांत क्षेत्रों’ के खिलाफ चल रहा था वह अब देश की राजधानी और उसमें भी देश के सर्वोच्च शिक्षण-संस्थानों में से एक जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय तक आ पहुंचा है. इसने मध्य वर्ग के उन हिस्सों को भी अपने निशाने पर ले लिया जिन्होंने एक जमाने में इस लूट और युद्ध को अंजाम देनी वाली उदारीकरण की नीतियों से फायदा भी उठाया था. यह हमला एक चेतावनी है उन सभी लोगों के लिए जो सत्ता से, उसकी ‘विकास’ के मॉडल से, उसके राष्ट्रवाद से, उसके भाषा से जरा सी भी नाइत्तेफाकी रखते हैं. साथ ही साथ यह हमला अकादमिक स्वायत्ता, नागरिक नाफरमानी, धार्मिक निरपेक्षता, आलोचनात्मक दृष्टि और बचे-खुचे नेहरुयुगीन मूल्यों के खिलाफ भी है. इस हमले की पृष्ठभूमि में संघ-परिवार की जवाहरलाल नेहरु से दिली नफरत का मुजाहिरा साफ़-साफ़ देखा जा सकता है.
दरअसल यह दो भारत की लड़ाई है जो अब दिल्ली के दरवाजे पर दस्तक दे रही है. एक भारत है जो अपने किसानों को बर्बादी की ओर धकेल देने वाली नीतियों और निज़ाम से मुक्ति मांग रहा है, जो जंगलों में रह रहे आदिवासियों पर हो रहे हमले बंद करने की आवाज उठा रहा है और जंगल पर उनके हक की मांग कर रहा है, यह भारत पर्यावरण और भविष्य को दांव लगाकर विकास के नाम पर पूंजीपतियों के ‘अंधाधुंध मुनाफे’ के खेल को रोकने की मांग कर रहा है, यह भारत महिलाओं और दलितों के खिलाफ रोजनामचा बन चुकी हिंसा से लड़ रहा है, ज्यादा बराबरी, ज्यादा आजादी, ज्यादा खुदमुख्तारी और ज्यादा आत्मसम्मान के लिए. देश का यह दूसरा तसव्वुर धर्म या इलाके के नाम पर समुदायों के उत्पीडन के खिलाफ एकजुट हो रहा है, यह लोकतंत्र को सिर्फ बोल भर पाने के अधिकार से आगे ले जाकर जीने के अधिकार से जोड़ रहा है जहाँ फैक्ट्रियों के युवा मजदूर जेलों में नहीं सड़ाये जायेंगे, जहाँ श्रम-कानूनों को पूंजीपतियों की शह पर खोखला नहीं किया जायेगा. इस भारत में युवा हसरतों को अपराध या ‘लव-जिहाद’ नहीं समझा जायेगा और थालियों में परोसे गए भोजनों का धर्म और जाति नहीं पूछी जायेगी. इस भारत में बाबा साहेब भीमराव अम्बेडकर का संविधान पूरी ताकत और सच्ची संवेदना के साथ ज्यादा मजबूती से कमजोर से कमजोर व्यक्ति और हर एक की प्रगति और सम्मान की गारंटी करेगा.
दूसरी तरफ सत्ता का अपना भारत है जिसकी कोई भी आलोचना देशभक्ति के तराजू में तौली जाती है. इस भारत का ‘अखंड नक्शा’ नागपुर से पास हुआ है और एक पुराने मिथक को सच साबित करती हुई इसकी जान पूंजीपतियों के मुनाफारूपी तोतों और स्टॉक एक्सचेंज के ग्राफों में बसती है. सत्ता और पूंजी के गठजोड़ द्वारा पालित-पोषित मीडिया और अन्य माध्यम दिनरात इसकी सर्वोच्चता के गुण गाते हैं जिसके खिलाफ एक शब्द भी ‘देशद्रोह’ है. दादरी से लेकर हैदराबाद केन्द्रीय विश्वविद्यालय तक, उबड़-खाबड़ आदिवासी इलाकों से लेकर भारतीय किसानी के समतलों तक, मुजफ्फरनगर, मंगोलपुरी होते हुए, दाभोलकर, पंसारे और कुलबुर्गी के मृत शरीरों को तमगों की तरह पेश करते हुई यही मुनादी बज रही है. ‘जो हमारे खिलाफ है, देशद्रोही है’.
सत्ता के इस भारत में किसानों की जमीन ‘विकास’ के नाम पर कारपोरेट्स को दी जानी है और बिना किसी बाधा-अड़चन के चमचमाता भूमि-अधिग्रहण विधेयक पास किया जाना है. अब उस सरकार की खीझ समझने की कोशिश करिए जिसके प्रधान-सेवक की आँख के तारे इस भूमि विधेयक को अब भी मनचाहे रूप में सूरज की रोशनी देखने नसीब न हुई हो!
अचरज होता है कि जिस देश में क़र्ज़ और सूखे की रस्सी से लटककर आत्महत्या करने वाले किसानों, पेट फुलाए कुपोषित बच्चों और खून की कमी की शिकार औरतों की सालाना-दर बढ़ती ही जा रही हो वहां राष्ट्रीय बैंकें धन्नासेठों और उद्योगपतियों को लाखों करोड़ रुपयों का लोन माफ़ कर दे रही हों, लाखों करोड़ के रक्षा सौदे हो रहे हों जिनमें दलाल राजनेता और नौकरशाह गले तक भ्रष्टाचार में डूबे हों, और सरकार से लेकर बड़े-बड़े टीवी चैनलों पर बहस क्या, उसका दिखावा तक न हो रहा हो. क्या इसमें सरकार की रजामंदी नहीं है? क्या कृषि-नीतियों और सरकारी उपेक्षा से पैदा हुए संकट के चलते भूखों मर रहे, आत्महत्या कर रहे, गाँव-देश छोड़कर पलायन करते और शहरों में दर-दर की ठोकरें खाने को मजबूर इन किसानों की कथा-व्यथा को समझने की कोशिश यह ‘देश’ करेगा? क्या उनके लिए कोई ‘पैकेज’ बनेगा? क्या उनके कर्जे माफ़ किये जायेंगे? आखिर यह किसका देश है? यह कैसा देश है और कैसी उसकी देशभक्ति?
वैश्विक स्तर पर स्वास्थ्य, भोजन, लैंगिक-बराबरी, सामाजिक-आर्थिक समानता, श्रम, शिक्षा और पर्यावरण के सबसे निचले पायदानों खड़े इस देश की सत्ता को अपने पूंजीपतियों पर बहुत घमंड है जिनमें कई दुनिया के सबसे अमीर लोगों में आते हैं. जिस मुल्क की 60 प्रतिशत धन-सम्पदा मुट्ठी पर 10 प्रतिशत पूंजीपतियों के हाथ में केन्द्रित हो गयी हो, देश के सबसे अमीर सौ परिवारों के हाथ में मुल्क की जीडीपी के एक चौथाई से ज्यादा की संपत्ति हो और सबसे अमीर 15 परिवारों के पास देश की आधी आबादी से ज्यादा की संपत्ति हो, उसे जाने किस चालाक आदमी ने किसानों और नौजवानों का देश कहने का चलन चला दिया. रियल एस्टेट, निर्माण, अधिसंरचना और बंदरगाह सेक्टर, आईटी/सॉफ्टवेयर, फार्मासुटिकल्स, फाइनेंस, शराब, ऑटोमोबाइल्स, खनन, सीमेंट और मीडिया सहित पूंजीपतियों के लिए सोने का अंडा देने वाली मुर्गियों के समान इन क्षेत्रों में पूंजी को किसी भी तरह की अड़चन न होने का वादा कर ही हिन्दू ह्रदय सम्राट नरेन्द्र मोदी की सत्ता अस्तित्व में आयी है.
जेएनयू जैसे शिक्षण-संस्थान इसी दुरभिसंधि को बार-बार प्रश्नांकित करते हैं. जिसका खामियाजा उन्हें भुगतना पड़ रहा है. आंकड़े गवाह हैं कि यह सरकार अपने ही देश के आदिवासियों के खिलाफ उन्हें उनके जल-जंगल-जमीन से बेदखली अभियान में उतरी हुई है और बच्चों व औरतों के शरीर पर देशभक्ति के तराने लिख रही है. अगर यह देश इतिहास की सबसे बड़ी किसान आत्महत्याओं का गवाह बन रहा है तो उसका जिम्मेदार कौन है? वे कौन सी ताकते हैं जो हर मिनट और हर घंटे बलात्कार और जाति उत्पीडन को अंजाम दे रही हैं? वह आग किसने लगाई जिसमें बेगुनाहों के शरीर दंगों की आंच में झुलस रहे हैं?
जेएनयू इन प्रश्नों को उठाता है. कानून-कचहरी और नौकरशाही से लेकर पूंजी के गढ़ों तक, पुलिस-फ़ौज-फाटे से लेकर सत्ता के गलियारों और संस्कृति-धर्म की दुकानों तक यह विश्वविद्यालय और उसका छात्र आन्दोलन हाथ में लुकाठी लिए अपने तईं नए समाज का सपना देखना नहीं भूला है. सत्ता की नजर में यही जेएनयू का अपराध है, यही उसकी भूल है. वैसे भी यह ‘कड़े इरादों’ के साथ सत्ता में आयी सबक सिखाने को आतुर व देशद्रोहियों को जेल या पाकिस्तान भेजने वाली सरकार है.
अगर विविधता और प्रतिनिधित्त्व के स्तर पर जेएनयू एक अर्थ में ‘मिनी इंडिया’ है और एक उदाहरण के रूप में विचार और व्यवहार के स्तर पर लोकतंत्र की सर्वोच्च परम्पराओं व असहमति के स्वर को रचाए-बचाए जेएनयू आदर्श भारत का एक सूक्ष्म रूप (Microcosm of Ideal India) है, उसकी अंतश्चेतना है तो भाजपा सरकार का यह हमला इसी ‘आदर्श भारत’ पर है.
आखिर क्या है जेएनयू?
निशाने पर रखे गए ये छात्र-छात्राएं धूल और हसरत से भरे भारत के वास्तविक गाँवों, कस्बों और छोटे-बड़े शहरों से सपनीली आँखें लिए आते हैं. दलित-बहुजनों का आँखों देखा यथार्थ (जहाँ के ब्राह्मणवादी परिवेश में आज भी नजर से नजर मिलाना अपराध करार दिया जाता हो) और राष्ट्रीय स्तर पर आयोजित कठिन प्रवेश-परीक्षा से गुजरकर देश की राजधानी में स्थित इस विश्वविद्यालय तक पहुँचने के लिए किया गया संघर्ष उनकी मजबूती होते हैं. निश्चय ही इसमें इलाकाई पिछड़ेपन और लिंग के आधार पर अतिरिक्त अंक देने वाली प्रवेश-प्रक्रिया इत्यादि से उन्हें मदद मिलती है पर इसका कतई मतलब नहीं है कि उन्हें कैम्पस में कोई भेदभाव नहीं झेलना पड़ता. ऐसे में जेएनयू छात्रसंघ की रहनुमाई में वामपंथ के साथ-साथ बहुरंगी छात्र-आन्दोलन उनके पास उस सिम्त के रूप में आता है जिसे जेएनयू के छात्र ओढ़ते-बिछाते हैं.
हजारों किलोमीटर की दूरियां और हज़ार किस्म की चुनौतियां पार करते हुए ये छात्र-छात्राएं देश के हर राज्य से, लगभग हरएक जिले से, कमोबेश हरएक वर्ग से और दक्षिण एशिया के गरीब देशों से जेएनयू पहुँचते हैं. अपने साथ वे अपने लोगों के दुःख-दर्द, अनुभूतियाँ, भाषा और भाव, संघर्ष और सपने भी ले आते हैं जिसे जेएनयू की अकादमिक ट्रेनिंग और शोध ज्ञान-सरणियों में ढ़ालती हैं. जाहिर है इसमें विचारों और दृष्टियों की बेइंतहा टकराहट होती है जिसमें अकादमिक ट्रेनिंग से हासिल पराये और विरोधी विचारों को सुनने और समझने की सहनशीलता और छात्र आन्दोलन की वाद-विवाद से ही सभी मसलों को हल करने की जीवंत रवायत उस रसायन का काम करती है जो किसी भी आधुनिक और सभ्य देश की लोकतान्त्रिक नागरिकता के लिए आवश्यक खाद-पानी है. इसी अर्थ में विश्वविद्यालय ‘भविष्य की नर्सरी’ होते हैं.
अपवादस्वरुप ही सही जेएनयू अभी भी इस कसौटी पर खरा उतरता है. ज्यादातर लोग यकीन नहीं कर पायेंगे कि लगभग हर राजनीतिक रंग और हर विचारधारा के नरम-गरम और अतिवादी छात्रों और संगठनों की उपस्थिति के बावजूद जेएनयू में यदा-कदा ही ऐसी नौबत आती है कि प्रशासन या पुलिस को हस्तक्षेप करना पड़े. खूब विरोध होता है, खूब नारे लगते हैं, समर्थकों और विरोधियों के गले की नसें फूल जाती हैं पर मारपीट नहीं होती. छात्रसंघ चुनाव की पूरी प्रक्रिया बिना किसी प्रशासनिक सहयोग से छात्रों द्वारा चुनी ‘छात्र निर्वाचन समिति’ करती है जिसके निर्णयों पर बहस या विरोध जरूर हो सकता है पर अंतिम फैसले का अधिकार समिति के पास रहता है जो सर्वमान्य होता है. इस पूरे ताने-बाने में वह नागरिकता बनती हैं जो आधुनिक भारत निर्माताओं का स्वप्न थी, जिसे देश के संविधान की किताब में लिखा गया है और महान दार्शनिकों और राजनीतिक चिंतकों द्वारा बार-बार उद्घाटित किया गया है. उच्च कोटि के समाज-विज्ञानी, राजनीतिज्ञ, सिविल सेवक, पत्रकार, लेखक, वैज्ञानिक पैदा करने के साथ-साथ नागरिकता की यह ट्रेनिंग ‘जेएनयू का दाय’ है. विश्वविद्यालय की वसीहत रूप में जवाहरलाल नेहरु द्वारा दी गयी विश्वविद्यालय के उद्देश्य की परिभाषा इन सबमें एक प्रकाश-स्तंभ की तरह रास्ता दिखाती रहती है.
गांधी-नेहरु की सोच को इस देश की सरकारें कब की अलविदा कह चुकी हैं. पर इस मायने में भाजपा सरकार का रवैया बहुत अलग है. औपनिवेशिक संरक्षण, धार्मिक मदान्धता और जातीय अभिमान के गारे से बनी इसकी विचारधारा जिस राष्ट्र और जिस तरह के समाज का सपना लेकर आगे बढ़ रही है उसमें न तो ऐसी नागरिकता, प्रश्नाकुलता, आलोचना, बहस के लिए गुंजाईश है न ही तमाम किस्म की अस्मिताओं, राष्ट्रीयताओं, वंचित समूहों के विचारों और आकांक्षाओं की सुनवाई. उन्हें गांधी-नेहरु जैसे उदारवादी भी मंजूर नहीं हैं. पीड़ितो-वंचितों और युवाओं की आबादी में अपार लोकप्रियता के चलते अम्बेडकर और भगत सिंह जैसे नायकों पर बात करने के लिए मजबूर होने पर वे उन्हें भगवा रंग में रंगना नहीं भूलते. पर अंततः उनके नायक नाथूराम गोडसे जैसे हत्यारे और सावरकर जैसे भगोड़े ही रहते हैं जिन्हें वे इतिहास के कबाड़खाने से झाड-पोंछकर बार-बार बाहर निकलने की कोशिश में लगे रहते हैं.
जेएनयू एक सूक्ष्म प्रतिकृति के रूप में ही सही इन अपवंचित आवाजों को न सिर्फ सुनता है बल्कि सहेजता है, जगह देता है, संवर्धित करता है और जांच-परख के लिए विचारों की दुनिया में छोड़ता है. इसी के चलते अब भी यहाँ बहस का वह स्तर बचा हुआ है जिसकी कल्पना हिटलर की नाजी सेना से उधार माँगी गयी हाफ़ पेंट पहनकर सुबह-सुबह दंडवत करने और मनुस्मृति को ही प्रमाण मानने वाले कर ही नहीं सकते.
नमक का हक अदा करो: किसका टैक्स और किसका विश्वविद्यालय?
गंवार और बदमाश कहने के लोभ से बचते हुए टीवी चैनलों के एंकरों द्वारा चीख-चीखकर पूछे जा रहे इस प्रश्न का भी जवाब देने की जरूरत है. ‘हमारे टैक्स के पैसे’ से चल रहे विश्वविद्यालय, सरकारी सब्सिडी पा रहे विश्वविद्यालय के छात्र देश के खिलाफ नारे कैसे लगा सकते हैं? पहली बात तो यह समझने की जरूरत है कि सरकार खर्च से चल रही शिक्षा प्राप्त करने से यह कतई आवश्यक नहीं है कि कोई उस सरकार या देश के प्रति उत्तरदायी हो जाने की बाध्यता है. यह एक भावना है जो डंडे या धमकी से कभी नहीं आ सकती. दूसरी बात, देश को टैक्स सिर्फ इंडिया नाउ और जी न्यूज़ के एंकरों जैसे मध्यवर्ग के लोग ही नहीं देते बल्कि खेती-किसानी से लेकर, बीड़ी, साबुन, चाय, चीनी, नमक, बिजली, तेल, रेल से लेकर तमाम किस्म के परोक्ष टैक्स इस देश का आम गरीब और आदिवासी-दलित जनता देती है जो अभी भी कर-तंत्र का सबसे बड़ा हिस्सा है. अगर इसके आंकड़े दे दिए जाएँ तो इन एंकरों का दिमाग फट सकता है. पूंजीपति आकाओं का हर साल न सिर्फ क़र्ज़ माफ़ होता है बल्कि बजट में लाखों करोड़ की बड़ी-बड़ी छूटें भी दी जाती हैं. तब किसी एंकर की हिम्मत क्यों नहीं होती कि वह पूछ सके कि ‘हमारे टैक्स का पैसा कहाँ बाँट रहे हो?’ जबकि जेएनयू के छात्र पस्तहाल, गरीब और लगातार उजाड़ी जा रही जनता के हरकारे बनकर सत्ता के सम्मुख देश की लूट और गरीबों की बदहाली से जुड़े असहज सवाल खड़ा करते हैं. उनसे गलतियाँ भी हो सकती हैं पर वे नेकदिल वालों की गलतियाँ हैं. इस अर्थ में वे सच्चे देशभक्त हैं और देश की जनता के नमक का हक अदा कर रहे हैं. तीसरी बात कि किसी सरकारी विश्वविद्यालय में पढने से, किसी जमींदार के खेत में मजूरी करने से, किसी पूंजीपति की फैक्ट्री में काम करने से कोई उसका ग़ुलाम नहीं हो जाता कि मालिक के खिलाफ बोल नहीं सकता या उससे इतर विचार नहीं रख सकता. यदि ऐसा होता तो यह दुनिया कब की सड़ चुकी होती. पर कारपोरेट घरानों की फेंकी रोटी और सत्ता के टुकड़ों पर पलने वाले इन बिनमांगे ग़ुलामों को यह कभी समझ नहीं आएगा.
जैसा कि निशिता जैन लिखती हैं ‘आप जानना चाहते हैं कि हमारा टैक्स कहाँ जाता है? 5 लाख करोड़ पूंजीपतियों की टैक्स माफी में, 1.14 लाख करोड़ बुरे लोन में, 98,000 करोड़ बुलेट ट्रेन में, 70,000 करोड़ रफाएल की डील में, 2,000 करोड़ शिवाजी की मूर्ति में, 3,000 करोड़ सरदार पटेल की मूर्ति में, 35 करोड़ नरेन्द्र मोदी की सालाना विदेश यात्राओं में, 32 करोड़ योगा दिवस में, 50 करोड़ एनडीए की वर्षगांठ में, एक करोड़ असफल हो चुके ‘बेटी के साथ सेल्फी’ अभियान में . ये कुछ चंद उदहारण हैं कि कैसे लोगों की मेहनत की कमाई बर्बाद की जाती है. और मीडिया जेएनयू के छात्रों पर खर्च हुए रत्ती भर पैसे की बात कर रही है वह पंथ-प्रधान के प्रसिद्ध सूट की कीमत से भी कम है. गौर करिए कि मोदी के सूट की कीमत 10 लाख थी और जेएनयू के छात्रों पर कुल 2.3 लाख रुपया सालाना खर्च होता है जिसमें सिर्फ उनकी शिक्षा का ही नहीं बल्कि अध्यापकों की तनख्वाह और रखरखाव भी शामिल है. इसलिए अब टैक्स देने वालों के पैसे का रोना बंद कीजिये और इसे जब-तब छात्रों के खिलाफ इस्तेमाल करना बंद कीजिये. हमारा पैसा शिक्षा में तो कतई नहीं जा रहा है. हम जानते हैं कि वह कहाँ जा रहा है- धन्नासेठों की जेब भरने और 56 इंच का सीना फुलाने में!’
जेएनयू पर हमला क्यों?
बार-बार यह स्पस्ट किया जा चुका है कि अफज़ल गुरु की फांसी की बरसी पर आयोजित कार्यक्रम पूर्व में छात्र संगठन डीएसयू से जुड़े छात्रों के एक छोटे से समूह ने किया था. अफजल गुरु की फांसी के बाद सालाना तर्ज़ पर हो रहा यह तीसरा कार्यक्रम था. जिसकी अनुमति प्रशासन ने सरकारी दबाव के चलते कार्यक्रम शुरू होने से बस 15 मिनट पहले रद्द कर दी और एबीवीपी ने कार्यक्रम स्थल पर पहुँचकर हुडदंगई शुरू कर दी. इसके विरोध में ही कार्यक्रम स्थल पर कुछ छात्रों ने (जिनमें ज्यादातर बाहरी थे) आपत्तिजनक नारेबाजी की. घमासान की इस स्थिति से निपटने एवं शांति बहाल करने के उद्देश्य से ही छात्रसंघ अध्यक्ष सहित अन्य वामपंथी संगठनों के कार्यकर्ता वहां पहुंचे थे. उन्होंने उक्त नारेबाजी से असहमति जताते हुए उसे बंद भी कराया. बार-बार यह स्पष्ट करने के बाद भी जिस तरह से छात्रसंघ अध्यक्ष सहित अन्य वामपंथी कार्यकर्ताओं को निशाने पर लिया गया है उससे एबीवीपी, सरकार, पुलिस और मीडिया की मंशा पर सन्देश होता है. एबीवीपी कार्यकर्ताओं द्वारा ‘पाकिस्तान जिंदाबाद’ का नारा लगाते हुए वीडियो के सामने आने के बाद यह संदेह और पुख्ता हो जाता है.
यह कोई नयी बात नहीं हैं कि जेएनयू में कश्मीर के मसले पर उसे भारत का हिस्सा मानने वालों से लेकर कश्मीर की पूर्ण आजादी और आत्मनिर्णय के अधिकार मिलने तक की वकालत करने वाली विचारधाराएं हमेशा मौजूद रही हैं जिनमें खूब बहस और विरोध होता रहा है. कश्मीर से आने वाले छात्रों का बड़ा हिस्सा कश्मीरी जनमानस की आकांक्षाओं की अभिव्यक्ति करता है जिससे वाद-विवाद में गर्माहट बनी रहती है. जाहिर है वे अपने साथ अपना कश्मीरी बचपन, वहां हुए हादसे, हत्याएं, गुमशुदगियाँ, आधी विधवाओं की कहानियां और दमन के इतिहास की निशानियाँ लेकर आते हैं. ऐसे में जेएनयू में अफज़ल गुरु की फांसी पर बहस होना बहुत स्वाभाविक है. बेवजह नहीं है कि अफज़ल गुरु की फांसी और उससे जुड़ी न्यायिक जांच व कानूनी प्रक्रिया को लेकर न्याधीशों, न्यायविदों सहित नागरिक समाज के काफी लोगों ने प्रश्न खड़े किये हैं. यहाँ तक कि जम्मू-कश्मीर में सरकार चला रही भाजपा के सहयोगी संगठन पीडीपी ने आज तक इस पर अपनी आपत्ति बरकरार रखी है. पर भाजपा को पीडीपी के साथ सरकार चलाने में कोई दिक्कत नहीं है.
विश्वविद्यालय विचारों की बहुतायत और बहस की जगहें हैं. देश के लगभग हर महत्वपूर्ण कैम्पस के अंदरूनी मसलों में बात-बात में अपनी नाक घुसाकर यह सरकार क्या साबित करना चाहती है? कैम्पस में हुए किसी कार्यक्रम के दौरान यदि कुछ आपत्तिजनक हुआ है तो जेएनयू प्रशासन इतना सक्षम है कि उसकी जांच कर कोई कदम उठा सके. इसमें किसी सांसद, सरकार, गृह-मंत्री, शिक्षा-मंत्री और अमित शाह जैसे दागी लोगों का कूदना साबित करता है कि सरकार किसी खास एजेंडा पर काम कर रही है. जाहिर है ‘अच्छे दिन’ का वादा कर आयी वह सरकार जब लोगों के ‘बुरे दिनों’ की मीयाद बढाती जा रही हो उसके पास ध्रुवीकरण के अलावा चारा क्या है?
पिछले एक वर्ष में जिन दो चीजों ने भाजपा सरकार की छवि को सबसे ज्यादा अडचनें पेश की हैं, उनमें पहली बुद्धिजीवियों-साहित्यकारों की धार्मिक-कट्टरपन और असहिष्णुता के खिलाफ मुहीम रही, तो दूसरा आइआइटी मद्रास में अम्बेडकर-पेरियार स्टडी सर्किल, एफटीआईआई में गजेन्द्र चौहान कि नियुक्ति, ऑकुपायी यूजीसी आन्दोलन, डब्लूटीओ वापस जाओ इत्यादि से लेकर रोहित वेमुला की संस्थानिक हत्या के खिलाफ अभूतपूर्व तरीके से उठ खड़ा हुआ छात्र आन्दोलन रहा है.
जो सरकार हकीकत और जमीन पर हुए वास्तविक काम के बजाय घोषणाओं और उससे भी ज्यादा इमेज के खेल से चल रही हो, उसका पढने-लिखने वालों, मध्य-वर्ग के तबकों और युवाओं के बीच में इस तरह लगातार एक्सपोज होना उसे एक स्तर पर बैकफुट पर रख रहा था. वैसे यह सरकार ‘कुत्ते के पिल्लों’ की मौत की मौत पर आंसू बहाने वाली सरकार न थी पर अपनी छवि पर चौतरफा पड़ रही मार और इस दौर के घटनाक्रमों ने उसे ‘कैल्कुलेटेड’ आंसू बहाने पर मजबूर जरूर कर दिया था.
इन सारे आन्दोलनों में, जाहिर है जेएनयू के छात्र-आन्दोलन की जबरदस्त भागीदारी रही है. और देश की राजधानी दिल्ली में इन सारे आन्दोलनों की गूँज बरकरार रखने का और सत्ता की नींद में खलल डालने का काम जेएनयू के छात्र-आन्दोलन ने किया है. इसी कारण आज जेएनयू पर इतना तीखा हमला किया जा रहा है. यह और कुछ नहीं ‘political vendetta’ है. पूरी कारवाही बदले और सबक सिखाने की भावना से प्रेरित है. साथ ही साथ यह संघ परिवार की नेहरु की विरासत से घनघोर घृणा को भी प्रदर्शित करता है. क्या यह स्वस्थ-राजनीति के मूल्यों व संवैधानिक भावना के खिलाफ नहीं है?
जेएनयू के रोहितों पर हमला नहीं सहेंगे
आखिर ये छात्र हैं कौन जिन्हें ‘देशद्रोही’ बताया जा रहा है? चाहे छात्रसंघ अध्यक्ष कन्हैया कुमार हों जो बिहार के बेगुसराय जिले के एक गरीब परिवार से आते हैं या छात्रसंघ महासचिव रमा नागा जो देश के निर्धनतम जिलों में से एक कोरापुट के दलित परिवार से आते हैं. इन्होने इस समाज का सच देखा है, भोगा है. अन्य नामजद छात्रों में पूर्व छात्रसंघ अध्यक्ष आशुतोष कुमार हों या मुगलसराय के एक छोटे से कस्बे के एक गरीब परिवार से आने वाली जेएनयू के भाषा, साहित्य एवं संस्कृति अध्ययन संस्थान की कन्वीनर श्वेता राज, दलित पृष्ठभूमि से आने छात्रसंघ के पूर्व महासचिव अनंत प्रकाश नारायण. ये सारे के सारे छात्र कमोबेश रोहित वेमुला जैसी परिस्थितियों से जूझते हुए जेएनयू पहुंचे हैं. अपने अकादमिक कैरियर के साथ-साथ इन्होने राजनीतिक सक्रियता का दामन इसीलिये थामा है क्योंकि ये जानते हैं कि संगठित होकर अपने हक़ों के लिए लड़ने में ही वे अपने समाज के प्रति दाय को चुका पाएंगे.
जो लोग नहीं चाहते कि सामाजिक ताने-बाने, ज्ञान-विज्ञान से लेकर हर एक चीज में कुछ वर्गों का चला आ रहा वर्चस्व टूटे वे इन आधुनिक एकलव्यों का येनकेनप्रकारेण अंगूठा अब भी काट लेना चाहते हैं. जेएनयू इन आधुनिक एकलव्यों को न सिर्फ माँजता है बल्कि और मारक भी बना देता है. इसलिए यह हमला दोनों पर है.
हे मां! हम तुमसे प्यार करते हैं. वन्दे मातरम! भारत माता की जय!
टीवी बहसों में कुछ उन्मादी एंकरों सहित भाजपा और एबीवीपी के लोग बार-बार वामपंथी लोगों को ‘वन्दे मातरम’ और ‘भारत माता की जय’ बोलने के लिए ललकार रहे हैं. उनको लगता है उन्होंने वामपंथियों की कमजोर नस पकड़ ली है. ये नारे मां रूपी देश या देशरूपी मां (इस रूपक की नारीवादी आलोचना को एक मिनट के लिए छोड़ भी दें तो) के लिए एक भावनात्मक उच्छवास जैसे हैं. मां के प्रति प्रेम के सिवा इन नारों में भविष्य की कोई दिशा, नए समाज का कोई सपना नहीं मिलता है. इसलिए शहीद-ए-आज़म भगत सिंह ने ‘इंकलाब जिंदाबाद’ का नारा दिया कि देश को इंक़लाब (क्रांति) की जरूरत है, वही हमारे भविष्य की दिशा है, हमें उसपर चलना है. भगत सिंह के दीवाने इसीलिये वन्दे मातरम पर इंक़लाब जिंदाबाद को तरजीह देते हैं. जाहिर है अपनी मां और देश से उनका प्यार असंदिग्ध है.
वर्तमान गैर-बराबरी पर टिके ब्राह्मणवादी समाज को बचाए रखनेवाली ताकतें ठीक इसी कारण इन्कलाबियों से इतनी नफरत करती हैं और उन्हें बदनाम करने के लिए घिनौनी हरकतें और साजिशें करती रहती हैं. जेएनयू पर हो रहे हमले को इस नुक्ते से भी देखा जाना चाहिए.
बेदखली, बेदखली, बेदखली और कुछ नहीं!
आज भी भारत के सिर्फ तीन प्रतिशत ग्रामीण परिवार ग्रेजुएट हैं और 40 करोड़ भारतीयों ने किसी भी तरह के शिक्षण-संस्थान का मुंह नहीं देखा है. गौर कीजिये कि 3 प्रतिशत के इस राष्ट्रीय औसत में दलितों और आदिवासियों की स्थिति और भी ख़राब है. आज भी उच्च-शिक्षा में नामांकन दर के मामले में भारत श्रीलंका बांग्लादेश जैसे मुल्कों से भी पीछे है. देश में स्नातकों की तुलना में निरक्षर लोगों की संख्या 6 गुना ज्यादा है. बावजूद इसके सरकार ने पिछले बजट में उच्च-शिक्षा का आवंटन बड़े पैमाने पर घटा दिया गया जिसकी अभिव्यक्ति शोध-छात्रों की छात्रवृत्ति की कटौतियों की रूप में सामने आयी. इसी के प्रतिवादस्वरूप छात्रों का अभूतपूर्व ‘ओकुपाई यूजीसी’ आन्दोलन हुआ.
शिक्षण-संस्थानों में दलितों, महिलाओं, आदिवासियों और अल्पसंख्यकों की उपस्थिति कितनी कमजोर है यह किसी से छुपा नहीं है. जो चंद जगहें उपलब्ध हैं वह भी बहुत तेजी से वंचित तबकों की पहुँच से दूर होती जा रही हैं. जेएनयू जैसे संस्थान अकादमिक गुणवत्ता को बरकरार रखते हुए न्यूनतम फीसों और संवेदनशील प्रवेश-प्रणाली के चलते उच्च-शिक्षा का एक बेहतर विकल्प प्रस्तुत करते हैं.
जब उच्च-शिक्षा सहित शिक्षा के पूरे क्षेत्र को देशी-विदेशी पूंजी के हाथ में मनाफा कमाने का एक और जरिया बनाने की कवायद पुरजोर हो, जिसका हालिया उदाहरण दिसंबर 2015 में डब्लूटीओ के नैरोबी राउंड में भारत सरकार द्वारा उच्च-शिक्षा को भी निजी पूंजी के लिए खोल देने का कदम उठाया जा चुका हो – हालात की गंभीरता समझी जा सकती है. बीएचयू, इलाहाबाद विश्वविद्यालय, एचसीयू, जादवपुर, एफटीआइआइ, डीयू और अब जेएनयू- कृपया इस पैटर्न को पकड़ने की कोशिश करें. अनगिनती रोहित वेमुलाओं की त्रासद आत्महत्या और निष्कासन ही इस बेदखली अभियान का निकष है.
जेएनयू खुद को सही साबित करेगा
ये गर्द-गुबार बैठेगी और एक दिन खरा सच सामने आएगा. खास बात यह है कि जेएनयू चुप बैठने वाला विश्वविद्यालय नहीं है. संभवतः भाजपा सरकार के खैरख्वाहों और सलाह देने वालों से कुछ अपनी सरकार से काफी नाराज चल रहे हैं और उन्होंने सरकार को मधुमक्खियों के छत्ते में हाथ डालने के लिए उकसा दिया है. अहसमति का यह उद्घोष लम्बा खींचने वाला है और दिल्ली में 2016 का यह बसंत लाल रहेगा.