संसद द्वारा एकमत से पारित वनाधिकार कानून के बाद भी आदिवासियों, वनाश्रितों के साथ अन्याय क्यों?
2006 में देश की संसद द्वारा ऐतिहासिक अन्याय खत्म करने को एकमत से ‘वनाधिकार’ कानून बनाया गया था। कानून से आस जगी थी कि देश में पीढ़ियों से वनभूमि पर अपने अधिकारों से वंचित करोडों दलित, आदिवासी व घुमंतु परिवारों को न्याय मिलेगा। अन्याय खत्म होगा। करोड़ों लोगों की ज़िंदगी में आजादी का सूरज उग सकेगा। अंधियारा मिटेगा और एक सबसे बड़े भूमि-सुधार के आंदोलन को दुनिया देखेगी।
यही नहीं, कानून की प्रस्तावना में ही लोगों पर ऐतिहासिक अन्याय होने की बात को संसद द्वारा स्वीकारा गया है। उसके बावजूद अन्याय हो रहा है तो किसे व कैसे कोसा जाए। जंगल पर अपनी आजीविका और पहचान के लिए निर्भर लोगों को आस बंधी थी कि उनके साथ अब तक हुए ऐतिहासिक अन्याय का अंत होगा। लेकिन दुर्भाग्य देखिये, सरकारी कारिंदों की मनमानी के चलते, कानून का ऐसा दुरूपयोग हो रहा है कि, अधिकार मिलना तो दूर, आदिवासियों के साथ हुआ ऐतिहासिक अन्याय, आजादी के 7 दशक बाद भी बादस्तूर जारी है।
जी हां.. यह सच है, आज भी देश में वनाधिकार कानून का उपयोग, आदिवासियों को अपनी ही जमीन से उनके पुश्तैनी अधिकार को, नकारने के लिए ही किया जा रहा है। कहीं मनमाने तरीके से दावे फार्म निरस्त कर दिए जा रहे हैं तो कहीं लोगों को गैर कानूनी तरीके से बेदखली के नोटिस थमा दिए जा रहे है। काबिज काश्त के लिए दखल की गई भूमि पर से उजाड़ा जा रहा है। झूठे मुकदमे बनाए जा रहे हैं तो कहीं तैयार फसल को ही जला देने का काम किया जा रहा है। मकसद कानून की मंशा के उलट, येन केन प्रकारेण लोगों को उनके वनाधिकार से वंचित करना है। कम से कम उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड राज्य में तो यही हो रहा है। दोनों राज्यों में भाजपा की सरकार है, जिसने चुनावी वादे किये थे कि वनाधिकार का न्यायपूर्ण क्रियान्वयन होगा।
उत्तराखंड राज्य में हजारों वन ग्राम हैं लेकिन लोगों को अधिकार तो दूर, अभी तक एक भी गांव को राजस्व का दर्जा तक नहीं दिया जा सका है। सर्वे तक नहीं हुआ है। उत्तर प्रदेश में कुछ टोंगिया गांवों को राजस्व का दर्जा जरूर मिला है लेकिन सिर्फ कागजों में ही। ज्यादातर ग्रामीणों के ग्राम सभा से पास दावों को, कानून की मनमानी व्याख्या गढ़ते हुए, निरस्त कर दिया जा रहा है। जिन करीब 20 प्रतिशत लोगों को व्यक्तिगत अधिकार पत्र दिए भी गए हैं, उनका भी तहसील के राजस्व रिकॉर्ड तक में इंद्राज नहीं किया गया है।
कुल मिलाकर दोनों राज्यों में आलम यह है कि (वन) गांव हैं लेकिन गांव में रहने वालों का अपना कोई वजूद नहीं है। सामुदायिक अधिकारों पर तो लगभग चुप्पी ही साध ली गई है। कुछ चंद लोगों को काबिज काश्त के आधे अधूरे अधिकार, ऐतिहासिक अन्याय खत्म करने की (वनाधिकार) कानून की मंशा पर बड़ा प्रश्नचिन्ह लगा रहे हैं।
अब देखिए, चित्रकूट की ग्राम पंचायत ऊंचाडीह में ग्राम वनाधिकार समितियों द्वारा दखल किए गए खेतों में वन विभाग के फॉरेस्ट कर्मियों द्वारा ही आग लगा दिए जाने का मामला सामने आया है। आरोप हैं कि रेंजर के कहने पर फॉरेस्ट कर्मियों ने ही आग लगाई जिससे सरसों व अरहर की लगभग तैयार हो चुकी फसल जलकर खाक हो गई। ग्रामीणों के अनुसार, आग लगाने के बाद ग्रामीणों के विरोध करने पर एक फॉरेस्ट गार्ड ने अपनी गलती मानकर लोगों से माफी भी मांगी है। लेकिन गांववालों का कहना है, क्या माफी मांगने से हमारी जली फसल का मुआवजा मिल जाएगा। ग्रामीणों ने जलाई गई फसल के मुआवजे की मांग की है। यही नहीं, इससे पहले सोनभद्र में आदिवासियों पर हमले हो चुके हैं और खेतों में गड्ढे खुदवा दिए गए थे।
सहारनपुर में तीन टोंगिया गांवों को करीब डेढ़ साल पहले राजस्व का दर्जा दिया गया था। करीब 20 प्रतिशत लोगों को अधिकार पत्र भी दिए गए हैं लेकिन किसी एक का भी इंद्राज तहसील के राजस्व अभिलेखों में नहीं हो सका है। बाकी 80% लोगो के दावे मनमाने तरीके से खारिज कर दिए गए हैं। सहारनपुर से लगते राजाजी नेशनल पार्क (उत्तराखंड) के हजारा व टीरा टोंगिया आदि में कुछ जमीन काश्त को दी गई है लेकिन ट्यूबवैल बिजली कनेक्शन तक नहीं लगने दिया जा रहा है। नतीजा खेती बारिश पर निर्भर होकर रह गई है।
अखिल भारतीय वन जन श्रमजीवी यूनियन की राष्ट्रीय उप महासचिव रोमा कहती हैं कि टोंगिया ग्रामीण हों, वन गुर्जर हों या फिर वनों में रहने वाले अन्य वनाश्रित समुदाय हों, सभी लोग आज़ादी से बहुत पहले से वन भूमि पर बसे हैं और इनकी आजीविका भी पूरी तरह से वनों पर ही आश्रित है। वनाधिकार कानून, लोगों के वन भूमि पर अधिकारों को मान्यता देने की बात करता है लेकिन कहीं दावे नकार कर तो कहीं अभ्यारण्य व पुनर्वास आदि के नाम पर वन विभाग, उल्टे लोगों की जंगल से बेदखली की कोशिशों में ही ज्यादा लगा है। रोज अलग-अलग तरकीबें व साजिश रच रहा है। नौकरी करने जैसे उलूल जुलूल कारण बता कर, दावे खारिज कर दिए जा रहे हैं। जबकि वनाधिकार कानून साफ साफ कहता हैं कि ग्रामसभा की सहमति से ही पुनर्वास आदि किया जा सकता है। दूसरा, वनाधिकार कानून किसी भी प्रकार की वनभूमि पर दावों को मान्य करता है, चाहे वे अभ्यारण्य या राष्ट्रीय उद्यान ही क्यों न हों।
अखिल भारतीय वन जन श्रमजीवी यूनियन के राष्ट्रीय महासचिव अशोक चौधरी सवाल उठाते हुए कहते हैं कि आजादी के 59 साल बाद कानून बना है तो अब इसे लागू करने को 59 साल और चाहिए?। 15 साल तो हो गए हैं लेकिन कानून का क्रियान्वयन करने वाले अधिकारियों को ही कानून की समझ (जानकारी) नहीं है। अधिकारी ऐसे बर्ताव कर रहे हैं जैसे पट्टा वितरण कार्यक्रम हो। जबकि वनाधिकार कानून लोगों के वन भूमि पर अधिकार को मान्यता देने का कानून है। इसमें ग्राम सभा का निर्णय ही सर्वोपरि है।
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