‘विश्व आदिवासी दिवस’ 9 अगस्त : आदिवासियों का अपना दिन
आदिवासी इतिहास में नौ अगस्त ‘विश्व आदिवासी दिवस’ के रूप में दर्ज तो है, लेकिन क्या उन्हें इसे मनाने का अधिकार आसानी से मिल गया था? दुनिया भर के आदिवासियों को इसे हासिल करने के लिए कितने पापड बेलने पड़े थे? ‘अगस्त क्रांति दिवस’ के साथ मनाए जाने वाले ‘विश्व आदिवासी दिवस’ की पृष्ठभूमि पर प्रस्तुत है, योगेश दीवान का यह विशेष लेख;
नौ अगस्त को ‘विश्व आदिवासी दिवस’ जिस जोश, उत्साह, एकजुटता, संघर्ष और अपने इतिहास को याद करके मनाया जाता है उसी संघर्ष और एकजुटता की अंतरराष्ट्रीय ताकत से इस दिवस की उत्पत्ति होती है। यह संघर्ष साम्राज्यवादी, उपनिवेशी, पूंजीवादी सोच और सत्ता के खिलाफ था। यह सोच हमारे आसपास भी दिखाई देती है और दुनिया के हर उस हिस्से में मौजूद है जहां देशज या आदिवासी रहते हैं।
‘विश्व आदिवासी दिवस’ हर साल नौ अगस्त को देशज आबादी पर संयुक्त राष्ट्र के कार्यकारी समूह की जेनेवा में 1982 में हुई पहली बैठक की याद में मनाया जाता है। ‘संयुक्त राष्ट्र संघ’ (यूएनओ) की आमसभा ने 23 दिसम्बर 1994 को ‘आदिवासी दशक’ के दौरान नौ अगस्त को ‘विश्व आदिवासी दिवस’ मनाने का तय किया था। ‘यूएनओ’ की आमसभा ने 2004 में दूसरा देशज दशक (2004-2014) मनाने की घोषणा की। इसी आमसभा में तय किया गया कि हर साल नौ अगस्त को ‘विश्व आदिवासी दिवस’ मनाया जाएगा।
असल में दुनिया में 1960 के दशक को उपनिवेश मुक्ति दशक कहा जाता है। उपनिवेशी देशों की आजादी के बाद सातवें दशक की शुरूआत में अंतरराष्ट्रीय समुदाय को जमीन और प्राकृतिक संसाधनों के नियंत्रण एवं उपयोग को लेकर ‘देशज’ लोगों और राष्ट्रीय सरकारों के बीच के बढ़ते झगड़ों का आभास होने लगा था। उन सभी इलाकों में, जहां ‘देशज’ लोग बचे हुए थे, वे आज मुख्यधारा की आबादी द्वारा बेदखल और अपने बुनियादी संसाधनों के उपयोग से वंचित कर दिए गए हैं या वे वहां के दावेदार नहीं रहे हैं।
हर आजाद हुए देश की बड़ी-बड़ी विकास परियोजनाएं (बांध, कारखाने, सड़क, रेल) देशज आदिवासियों को उजाड़कर उन्हीं के गांव, घरों, जगलों में बनाई गई, पर उनसे यह अपेक्षा रखी गई कि वे आर्थिक और सामाजिक रूप से विकसित समाज के साथ ‘घुल-मिल’ जाएं। दूसरी ओर वे तथाकथित आर्थिक विकास और राष्ट्रीय सुरक्षा के कारण स्वयं को उपनिवेशी और अपमानित कहलाने को बाध्य हुए।
इस पूंजीवादी-शोषणकारी सोच के चलते कनाडा, अमरीका, आस्ट्रेलिया तथा भारत जैसे नव-स्वतंत्र देशों और वहां के देशज लोगों के बीच झगड़ों ने तूल पकड़ना शुरू कर दिया। सातवें दशक में ये झगड़े इस कदर बढ़ गए कि देशज मुद्दों और समस्याओं के शांतिपूर्ण समझौते को भी अंतर्राष्ट्रीय समुदाय और राष्ट्रीय सरकारों में महत्वपूर्ण मसले के तौर पर मान्यता दी जाने लगी। पश्चिम के कई समाजशास्त्रियों और इतिहासकारों ने देशज लोगों की समस्याओं को उपनिवेशवाद की धरोहर के एक न सुलझ सकने वाले हिस्से के तौर पर परखा।
इसके बाद अधिकांश राष्ट्रीय सरकारें इन समस्याओं को अंतरराष्ट्रीय मुद्दा समझकर मान्यता देने लगीं, पर वे अपने-अपने देश में देशज लोगों की इन्हीं समस्याओं को अंदरूनी मानने का इसरार करने लगीं। आदिवासी संगठनों और देशज समाजशास्त्रियों, बुद्धिजीवियों के जरिए देशज अधिकारों की बढ़ती अंतरराष्ट्रीय चिंताओं से जूझते हुए, अंततः सन् 1972 में ‘यूएनओ’ की आर्थिक व सामाजिक परिषद ने ‘संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार आयोग’ को देशज लोगों के खिलाफ हो रहे अन्याय एवं शोषण पर एक अध्ययन करने की जिम्मेदारी सौंपी।
यह विशेष कार्यदल देशज लोगों के खिलाफ पक्षपात की समस्याओं पर अध्ययन में जुटा ही हुआ था कि वर्ष1982 में स्पेन की सरकार ने, कुछ यूरोपीय तथा अमरीकी देशों के साथ यह प्रस्ताव रखा कि ‘यूएनओ’ को 1992 में क्रिस्टोफर कोलम्बस की अमरीका की खोज के 500 वर्ष पूरे होने का जलसा मनाना चाहिए। इस प्रस्ताव का विरोध मुख्य तौर पर अफ्रीकी देशों द्वारा हुआ, जिन्होंने जोर देकर कहा कि ‘यूएनओ’ को तो कम-से-कम उपनिवेशवाद का उत्सव नहीं मनाना चाहिए। उत्तरी और दक्षिणी अमरीका, आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड के सभी देशज लोगों ने स्पेन की ऐसी कोशिश का जमकर विरोध किया।
याद रखें, अमरीका के कई हिस्सों में 12 अक्टूबर क्रिस्टोफर कोलम्बस द्वारा ‘नईदुनिया’ की खोज के सम्मान में ‘कोलम्बस दिवस’ के तौर पर मनाया जाता है। वह इसी दिन ‘वेस्टइंडीज’ की जमीन पर उतरा था। कोलम्बस इटली का नाविक था और स्पेन में काम करता था। वह पन्द्रहवीं शताब्दी में भारत के लिए रवाना हुआ था, लेकिन पूरब की ओर जाने की बजाय, पश्चिम की ओर चला गया और वहां कैरीबियन द्वीप में उतरा, जिसे उसने ‘वेस्टइंडीज’ नाम दिया और वहां के लोगों को ‘इंडियन’ कहा जो कि वहां के मूल-निवासी थे। इसी कारण बाद में उन्हें ‘रेड इंडियन’ कहा जाने लगा। आज ये लोग इस पहचान का विरोध करते हैं।
कोलम्बस के बाद अमरीका में और भी कई लोग आए और उन्होंने उस अनजान दुनिया को अपना उपनिवेश बना लिया, जिसमें प्रकृति से जुड़े लोग रहा करते थे। सन 1519 में मेक्सिको में लाखों लोगों के ‘एजटेक साम्राज्य’ को अपने अधीन कर लिया गया। सन 1532 में फ्रांसिस्को पिजारो और उसके हमलावर सेनानियों ने उस ‘इन्का’ की घनी आबादी वाली सभ्यता को तहस-नहस करके रख दिया, जो आज दक्षिणी अमरीका में चिली से लेकर कोलंबिया तक 2000 मील में फैली है।
उत्तरी अमरीका, जहां फ्रांस और अमरीका दबदबा जमाने की होड़ में लगे थे, करीब 600 अमरीकी मूल के राष्ट्र और समुदाय थे, जिनमें ज्यादातर ऐसे किसान थे जो स्थाई तौर पर खेती करते थे। अमरीका के इन्हीं देशज किसानों ने ही मक्का, आलू, सैम, निम्बू, कद्दू, कपास और तम्बाकू की खोज की। इन लोगों को उनकी जमीन से उखाड़कर गुलाम बनाया गया और बेचा गया।
यहां के जुझारू लोगों को स्पेनिश और ब्रिटिश सेना द्वारा निर्दयता से कुचला और बाहर कर दिया गया। ‘ऐज टेक’ साम्राज्य की आबादी तीन करोड़ से घटकर एक करोड़ रह गई। स्पेन ने हिस्पोनियोला द्वीप (आज के हेती) से हरेक देशज कैरीबियन इंडियन को उखाड़कर अफ्रीकी गुलामों के बीच बसा दिया गया। प्रशांत महासागर में मरियाना द्वीप के चमोरो, देशज लोगों की आबादी साठ साल से भी कम समय में 70 हजार से घटकर 16 सौ रह गई।
उत्तरी अमरीका में देशज आदमियों, औरतों और बच्चों के कत्ल करने की नीति को उच्चस्तर से स्वीकृति मिली हुई थी। लगभग सभी यूरोपीय उपनिवेशियों का मानना था कि यहां के रहने वाले इंडियन आदिम और जंगली हैं। सन् 1867 में अमरीका के कन्सास शहर से निकलने वाले एक अखबार ‘द वीकली लीडर’ में ‘इंडियंस’ के बारे में छपा था कि वे दयनीय, गंदे, जूं पड़े हुए, कच्चा मांस खाने वाले लोग हैं, जिन्हें मुक्ति दिलाने के लिए सभी लोगों को प्रार्थना करनी चाहिए। यही हालत आस्ट्रेलिया के एबोरिजिन, न्यूजीलेंड के माओसिस और उन कई प्रशांत व कैरिबियन द्वीपों के देशज लोगों की थी, जिन्हें यूरोपियों ने अपना उपनिवेश बनाया हुआ था।
ऐसे में स्पेन का यह प्रस्ताव आगे नहीं बढ़ पाया, क्योंकि अधिकांश सदस्य देशों को इसमें इतिहास की क्रूरतम, शोषणकारी सोच और हरकतें दिखने लगी थीं ! लेकिन फिर भी स्पेन, अमरीका और दक्षिण अमरीका के कुछेक देश इस पर महोत्सव मनाने से बाज नहीं आए। इस तरह की यह कोई अकेली घटना नहीं है। सन् 1987 में अंग्रेजों ने उस जहाजी बेड़े के जरिये आस्ट्रेलिया के उपनिवेशीकरण का महोत्सव मनाया, जो 200 साल पहले सन् 1787 में हमलावरों के झुंड के साथ इंग्लेंड से चलकर आस्ट्रेलिया के न्यूसाउथवेल्स पहुँचा था।
‘यूएनओ’ की आमसभा ने अंतत: वर्ष 1993 को देशज लोगों के लिये समर्पित कर दिया। अन्तरराष्ट्रीय दवाब के बाद भारत सरकार ने भी राष्ट्रीय स्तर पर देशज लोगों के वर्ष को मनाने के लिये विशेषज्ञों की एक समिति गठित की, लेकिन बाद में इस योजना को त्याग दिया गया। भारत सरकार ने ‘यूएनओ’ द्वारा विकसित देशज आदिवासियों की परिभाषा को नकार दिया। उसका दावा था कि ‘यूएनओ’ द्वारा परिभाषित देशज लोग भारतीय आदिवासी या अनुसूचित जनजातियां नहीं हैं, बल्कि भारत के सभी लोग देशज लोग हैं और आदिवासियों, अनुसूचित जनजातियों से किसी प्रकार का सामाजिक, राजनैतिक या आर्थिक पक्षपात नहीं हो रहा है।
नतीजे में देशज लोगों का वर्ष इस बात पर उलझ गया कि आदिवासी देशज हैं कि नहीं। कुछेक आदिवासी संगठन इसे मनाने के लिए आगे आए। ‘द इंडियन कॉन्फेडरेशन ऑफ इंडियन एण्ड ट्रायबल पीपुल’ (आईसीआईटीपी) ने दिल्ली में एक सप्ताह का कार्यक्रम आयोजित किया, जिसमें देशभर के कई आदिवासी शामिल हुए थे। दुर्भाग्य देखिये कि सरकार और मुख्यधारा के राष्ट्रीय प्रेस ने इस समूचे कार्यक्रम को ही नजरअंदाज कर दिया।
बाद में कुछ संगठनों ने कई दस्तावेजों तथा विशेषज्ञों के लेखों को एकत्र करके ‘सलेक्शन ऑफ आर्टिकल्स एण्ड डॉक्यूमेंट्स ऑन इंडिजीनस/ट्राईबल पीपुल’ नामक एक दस्तावेज छापा। इसका कई भाषाओं में अनुवाद भी हुआ। हिन्दी में ‘देशज कौन? आदिवासी कौन?’ नामक पुस्तक छपी। ऐसी कई हलचलों, विरोध और संघर्ष के बाद 9 अगस्त को पूरी दुनिया के साथ भारत में भी ‘विश्व आदिवासी दिवस’ मनाया जाता है। इस समय इसी आदिवासियत को बचाने और जिंदा रखने की जरूरत है।
साभार : सप्रेस