करछना के किसानों पर कहर जारी : 9 सितम्बर के दमन के बाद गांवों में मेधा पाटेकर का दौरा
करछना के किसान पावर प्लांट के लिए अपनी जमीन नहीं देना चाहते, लेकिन सरकारी व्यवस्था का हर अंग जमीन पर कुंडली मारे बैठा है। किसान जब भी इससे लड़ने के लिए अपना आन्दोलन तेज करते हैं यह अपना दमनात्मक रूप उजागर करके यह जाहिर कर देता है कि वह जमीन कब्जाने वालों के साथ किस कदर है और किसानों को अपनी जमीन आसानी से वापस नहीं मिलने वाली है। बेशक, यह असंभव भी नहीं है।
पिछले वर्ष 2015 की 9 सितम्बर को करछना के तीन गांवों कचरी कचरा और देहली भगेसर जो कि सड़क से लगे हुए हैं और करछना पावर प्लांट परियोजना में मुख्यतः आने वाले गांव हैं में क्रूर पुलिसिया दमन किया। गांव के लोगों को मारा पीटा, जानलेवा हमला किया, बन्द घरों के अन्दर आंसू गैस के गोले छोड़े, रबड़ की गोलियों से हमला किया महिलाओं के साथ अभद्रता की और हाथ आये 42 लोगों को बिना किसी कसूर के जेल भेज दिया जिसमें 72 साल की बूढ़ी औरत से लेकर 16 साल के बच्चे तक थे।
इस दमन की जांच के लिए दिल्ली और इलाहाबाद की एक जांच टीम ने इन गांवों का दौरा करके तथ्य इकट्ठा किया था, जिसके आधार पर राष्टीय मानवाधिकार आयोग में शिकायत भी दर्ज करायी जा चुकी है। आयोग ने इस सम्बन्ध में उत्तर प्रदेश सचिव से जवाब भी मांगा था, परन्तु छ महीने बाद भी आज तक सचिव ने इस सम्बन्ध में जवाब नहीं भेजा है। 9 सितम्बर को इन गांवों में हुये इस दमन के बाद 26 सितम्बर को मेधा पाटकर को मेजा के गांवों में सभा करने से रोक दिया गया था, जहां एक दूसरा पावर प्लांट बन रहा है और वहां का आन्दोलन भी उस वक्त उफान पर था। हाल ही में 24 मई 2016 को मेधा पाटकर सहित इलाहाबाद की एक टीम ने कचरा कचरी और देहली भगेसर गांवों का दौरा किया, जिसमें पीयूसीएल के ओ डी सिंह,, आजादी बचाओ आन्दोलन के मनोज त्यागी, आईपीएफ के राजेश सचान और दस्तक पत्रिका की सम्पादक सीमा आजाद थी। तीन गांवों में लोगों से बात कर स्थिति की जानकारी ली और मेधा पाटकर ने गांव के लोगों को साथ देने का आश्वासन भी दिया।
पिछले दौरे के बाद से जेल गये 42 लोगों में से 39 लोग बाहर आ चुके थे, सीधा दमन तो नहीं है, लेकिन गांवों में धीमें स्तर पर चलने वाला अनवरत दमन अपनी जड़े जमाने लगा है। यह कभी-कभी होने वाले उग्र दमन से किसी भी मायने में कम नहीं है।
जेल गये 42 लोगों पहले तो जमानत लेने से इन्कार कर दिया था, उन्होंने मुकदमा खत्म कराने का ‘क्वैश केस’ हाईकोर्ट में डाला। लेकिन मुकदमा तो वापस नहीं ही हुआ उन पर धीरे-धीरे कर दूसरे कई केस डाल दिये गये जिसमें गैंगेस्टर एक्ट भी है। इस कारण इनकी जमानत होने में भी समय लगा और उसके बाद दर्जन-दर्जन भर जमानत दार ढूढ़ने में । 72 साल की प्रभावती देवी दो महीने बाद बाहर निकलीं। राजबहादुर की पत्नी रीता और 19 साल की बेटी ज्योति तीन महीने बाद। तीन लोग रामदेव, जगत बहादुर और भीमसेन अभी भी नहीं बाहर निकले हैं क्योंकि उनकी गैंगस्टर की जमानत नहीं हो सकी है।
जेल में बन्द लोगों की मुकदमें और जमानत में पैरवी करने वालों पर भी शासन का कहर टूट रहा है। उन्हें भी कोर्ट-कचहरी में धमकाया जा रहा है। इनकी पैरवी में जी-जान से लगे सन्तोष और राजेन्द्र को 28 फरवरी 2016 को वकील के घर के सामने से गिरफ्तार कर लिया और 9 साल पुराने एक मामले में जो कि आन्दोलन से ही सम्बन्धित था, में चालान कर दिया। सन्तोष बताते हैं कि उन पर ये मामला हैं उन्हें पता था। लेकिन उन्हें पहले कभी न तो इसमें गिरफ्तार किया गया, न ही कभी कोई नोटिस दी गयी, और अब जाकर गिरफ्तार कर उस केस को भी खोल दिया। उन्हें भी अपनी जमानत करानी पड़ी। जेल में बन्द लोगों की पैरवी करने के अलावा सन्तोष ने मुआवजा वापस कर जमीन लेने के सम्बन्ध में एक रिट 26 फरवरी को दाखिल की थी और 28 फरवरी को उनकी उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। राजेन्द्र पर पहले का कोई मुकदमा नहीं था। उन्हंे गिरफ्तार कर मई 2015 के एक एक्सीडेंट के बाद हुए बवाल में चालान कर दिया।
मई 2015 में हुआ एक्सीडेंट, और उसके बाद स्थानीय लोगों के उग्र विरोध को भी पुलिस व्यवस्था ने शुरू से ही अपने पक्ष में इस्तेमाल किया है। यह घटना गांव से 3-4 किमी दूर मुख्य सड़क पर हुई थी जिसमें बस की टक्कर से दो व्यक्तियों की जान गयी थी। उसके बाद स्थानीय लोगों ने चक्का जाम कर दिया था और तोड़-फोड़ भी की। पुलिस ने केस दर्ज करते समय जान-बूझ कर करछना पावर प्लांट का विरोध करने वालों का नाम दर्ज किया। नामजद के अलावा ‘अन्य’ की कटेगरी छोड़ दी गयी जिसमें आज तक लोगों का नाम डाला जाता रहता है। राजेन्द्र इसका नया शिकार हैं। दोनों की जमानत 9 मई को जाकर हो सकी। इस बीच लक्ष्मी नारायण यादव को भी पकड़ लिया। कोर्ट में सम्बन्धियों से मिलने जाने वाले सम्बन्धियों की तलाशी शुरू कर दी गयी, जो कि पहले नहीं होती थी। यानि पकड़े गये लोगों को अलग-थलग करने और बाकियों को डराने की हर संभव कोशिशें की जा रही हैं। राजबहादुर जो कि आन्दोलन का नेतृत्व कर रहे थे और जो 9 सितम्बर के बाद भूमिगत हो गये थे, को पकड़वाने का ईनाम बढ़ाने की घोषणायें अखबारों के माध्यम से की जा रही हैं।
पहले यह पुरस्कार 5000 का था। इस राशि को बढ़ाने की मुनादी हमारे इस दौरे के एक दिन पूर्व यानि 23 मई को अखबारों के माध्यम से की जा चुकी थी। गांव वालों पर उन्हें पकड़वाने का दबाव लगातार बढ़ाया जा रहा है। लालच देकर भी और डरा धमका कर भी। लालच देने का काम जमीन पर से दावा छोड़ने के लिए भी किया जा रहा है। जिन लोगों ने मुआवजा नहीं लिया था, उन्हें गढ़वा में जमीन देने की बात की जा रही है। गौरतलब है कि राजबहादुर के परिवार में किसी ने भी मुआवजा नहीं लिया है। एक व्यक्ति गढ़वा में जमीन लेने को राजी भी हो गया है। या यह अफवाह भी हो सकती है। हम जिनसे मिले उनमें से किसी ने भी गढ़वा में जमीन लेने या भविष्य में भी लेने की बात नहीं कही। उनका कहना है कि हम अपनी ही जमीन पर रहेंगे। हम कुछ लोगों को जमीन मिल भी जायेगी तो क्या, हमारा गांव तो उजड़ जायेगा।
9 सितम्बर के बाद से ही कचरा गांव के मुहाने पर स्थित धरना स्थल को पुलिस छावनी में तब्दील कर दिया गया था, और अब यहां गांव आने जाने वालों से जवाब-सवाल, पूछ-ताछ और तलाशी भी शुुरू हो गयी है। पास ही में पक्का पुलिस थाना बनाया जा रहा है। यानि क्योंकि इतने सारे लोगों को लम्बे समय तक जेल में नहीं डाल सकते इसलिए पूरे क्षेत्र को जेल बनाने की तैयारी है।
इस बीच 25 फरवरी से पावर प्लांट के लिए कब्जाई गयी जमीन पर चहारदीवारी बनाने का काम शुरू कर दिया गया है। जाहिर है तलाशी और पूछताछ का काम इसी कारण से शुरू हुआ है। इस चहारदीवारी के अन्दर भी कई घर आ रहे हैं। चाहरदीवारी पर निगरानी रखने के बहाने से भी लोगों पर लगातार नजर रखी जा रही है।
पुलिस प्रशासन ही नहीं कानून व्यवस्था भी गांवों को उजाड़कर पावर प्लांट बनने के पक्ष में ही खड़ी दिखती है। और यह कानूनी लड़ाई और इसकी भाषा इतनी पेचीदा है कि इसे आसानी से समझना सामान्य लोगों के लिए असंभव जैसा ही है। इस बीच 16 अप्रैल 2016 को 57 लोगों द्वारा जमीन वापस लेने को लेकर डाली गयी एक रिट पर न्यायधीश विक्रम नाथ ने जो फैसला सुनाया, जमीन छीनने वाले और जमीन वापस मांगने वाले दोनों ही अपने पक्ष का मान रहे हैं। जमीन वापस मांगने वाले 57 किसानों की रिट को खारिज करते हुए रिट में कहा गया है कि इस सम्बन्ध में 13 अप्रैल 2012 को हाईकोर्ट को आया फैसला ‘शासन की शर्तों के साथ’ इन 57 किसानों ही नहीं बल्कि इन गावों के सभी किसानों पर लागू होता है। इसे अब और सुने जाने की कोई जरूरत नहीं है।
जानना होगा कि 13 अप्रैल 2012 का फैसला क्या था और इसकी शर्तें क्या थीं। इस फैसले में कहा गया था कि जो किसान मुआवजा वापस कर अपनी जमीने वापस लेना चाहते हैं, उन्हें शासन जमीने वापस करे। इसके बाद शासन ने जमीन मालिकों के नामों के साथ नोटिस जारी कर कहा कि जो किसान 30 दिन के भीतर मुआवजे की राशि वापस कर देंगे वे अपनी जमीन वापस ले सकते हैं। सरकार का कहना है कि 30 दिन के भीतर एक भी व्यक्ति नहीं पहुंचा। गांव वालों का कहना है कि 20 लोग मुआवजे की राशि के साथ वापस गये थे पर उन्हें वापस कर दिया गया कि उन्हें पता ही नहीं है कि यह राशि कहां वापस होनी है। उसके बाद भी लोग गये लेकिन उन्हें भी यही जवाब मिला। अब 16 अप्रैल 2016 का जो रिट खारिज करते हुए जो नया फैसला आया है वह कहता तो है कि 2012 का फैसला सभी किसानों पर लागू होगा लेकिन ‘शर्तों के साथ’ जुड़ा होने के कारण इसके दो विश्लेषण हो रहे हैं एक यह कि शर्तों में चूंकि यह जुड़ा है कि शासनादेश जारी होने के 30 दिन के भीतर मुआवजा वापस करने वाले को ही जमीन मिलेगी।
इसलिए यह फैसला गांव वालों के खिलाफ है क्योंकि 30 दिन की अवधि कब की निकल चुकी है। पावर प्लांट के समर्थक भी सबको यही समझा रहे हैं। लेकिन 24 मई को गांवों के दौरे पर गयी मेधा पाटकर ने गांव वालों से इस फैसले को ऐतिहासिक बताते हुए उनकी जीत बताया है। साथ ही उन्होंने सामूहिक रूप से लोेगों को कचहरी पर जाकर मुआवजे की राशि वापस करने की अपील की है। गांव वाले पशोपेश में है कि उन्हें क्या करना चाहिए। अब उन्हें नया डर यह भी है कि उनकी इस कार्यवाही से कहीं नये तरीके का सरकारी दमन न शुरू हो जाय। इस समय उन्हें नेतृत्व देने वाला कोई स्थानीय व्यक्ति भी नहीं है। कोर्ट में एक दो रिट अभी और भी लम्बित है। यानि आन्दोलन का झुकाव कानूनी लड़ाई की ओर बढ़ता जा रहा है और कानून का झुकाव शासन की ओर। लेकिन ‘जमीन लेकर रहेंगे’ का नारा अभी भी चटख है।
बहुतों को इससे मतलब नहीं है कि कोर्ट में कौन सी लड़ाई चल रही है या क्या चल रहा है, उनका मुद्दा है कि जमीन मिल रही है या नहीं। जेल गये लोगों ने दमन का सबसे डराया जाने वाला रूप भी देख लिया है, वे टूटने की बजाय पहले से ज्यादा मजबूत दिखते हैं। खास तौर पर महिलायंे। हालांकि सरिता जो अपने मायके आयी थी और पुलिस ने बम फंेकने के आरोप में उसे जेल भेज दिया था, के ससुराल वालों ने अपनाने से इन्कार कर दिया है। ज्योति को देख लोग कानाफूसी कर रहे हैं कि अब जेल गयी लड़की से कौन शादी करेगा। ज्योति का जवाब है कि ‘मुझे नहीं करनी शादी, लेकिन जमीन नहीं जाने देंगे फिर लडेंगे।’ राजबहादुर की पत्नी रीता देवी भी पति के भूमिगत होने से परेशान हैं, लेकिन जमीन बचाने की लड़ाई से पीेछे हटने की बात नहीं करतीं। 72 साल की प्रभावती और 65 साल के राधेश्याम जेल से बाहर आने के बाद भी इनके हौसले 16 से 35 साल के बराबर वालों के ही है। गांव में नौजवानों का नया नेतृत्व उभर रहा है। इनका भविष्य दांव पर है। अब सबकी आंखें इन पर है। आन्दोलन अभी भी जीता जा सकता है, इनके इन पर टिकी निगाहें और उनका हौसला यही बयां करता है।