कारपोरेट हित नहीं आर्थिक न्याय चाहिए
वित्त और विकास के आपसी तालमेल की परिणिति यदि मानव कल्याण में न होकर केवल कारपोरेट लाभ के लिए होती है तो वह अर्थहीन है। लैंगिक भेदभाव से मुक्त समाज की स्थापना में आर्थिक न्याय की उपलब्धता सर्र्वोेपरि है। वैश्विक नेता इसी पखवाड़े विकास हेतु वित्तीय प्रबंधन के तरीकों पर विचारविमर्श के लिए इथोपिया के आदिसअबाबा शहर में इकट्ठा हो रहे हैं। इस सम्मेलन के निर्णय मानवता के भविष्य के लिए महत्वपूर्ण हैं। पेश है एन्नी शोन्स्टीन का सप्रेस से साभार यह आलेख;
आगामी 13 से 16 जुलाई 2015 तक विभिन्न राष्ट्रों एवं सरकारों के प्रमुख एवं वित्त एवं विदेशी मामलों के मंत्री आदिस अबाबा में तीसरे ‘अंतर्राष्ट्रीय विकास के लिए वित्त सम्मेलन’ (एफ एफ डी 3) में इकट्ठा हो रहे हैं जिसमें वे एक अर्न्तसरकार समझौते को अपनाएंगे और इसके निहिताथों पर सहमति बनाएंगे। इसकी सफलता या असफलता ही संभाव्य सुस्थिर विकास लक्ष्यों तक पहुंच का मार्ग संभव कर पाएगी और विश्व के लिए ऐसा आधार तैयार कर पाएगी जिसमें लैंगिक न्याय एवं पर्यावरणीय सुस्थिरता कायम हो सके और जिसके अन्तर्गत सम्मान, संरक्षण एवं मानवाधिकारों की पूर्ति सभी नागरिकों के लिए एक वास्तविकता बन पाए। यह सब कुछ इस बात पर निर्भर करता है कि हम अपनी प्राथमिकताएं किस आधार पर तय करते हैं। आर्थिक न्याय प्राप्त करने के उद्धेश्य से मई 2015 को जारी मसौदे में कारपोरेट एवं सार्वजनिक शक्तियों के बीच मौजूदा असंतुलन में बदलाव की आवश्यकता के साथ ही साथ ‘‘उत्तर – दक्षिण‘‘ के संबंधो में व्याप्त असमानताओं के परिणामस्वरुप उत्पन्न परिस्थितियों से निपटने को कहा गया है।
एफ एफ डी 3 के माध्यम से वैश्विक नीतियों के प्रति असंबद्धता और शक्ति असंतुलन को संबोधित करना होगा। इसमें व्यापार, वैश्विक वित्तीय प्रशासन, अवैध वित्तीय प्रवाह एवं करों की चोरी जैसे अन्य तमाम मामले भी शामिल हैं और इनके लैंगिक निहितार्थ भी हैं। इसके अलावा राजनीतिक वैधता हेतु रियो (ब्राजील) में स्वीकार्य सामान्य परंतु विविधतापूर्ण जवाबदारियों की अनिवार्यता के साथ ही साथ संतुलन, सामंजस्य और एफ एफ डी एजंेडा के प्रभाव एवं सन् 2015 के बाद के व्यापक विकास एजंेडे की आवश्यकता भी है। एफ एफ डी नागरिक समाज संगठनांे के समूहों के साथ ही साथ महिलावादी एवं महिलाओं के अधिकारों के लिए संघर्षरत समूहों ने भी इस बात पर जोर दिया है।
आर्थिक न्याय की प्राप्ति हेतु वास्तविक ढांचागत रुपांतरण के लिए आवश्यक है कि वर्तमान प्रभुत्वशाली आर्थिक प्रतिमान के समानांतर बाजार आधारित विकास की वैधानिकता पर पुनर्विचार हो। यह एक ऐसा प्रतिमान है जो कि सिर्फ विकास को ही आर्थिक वृद्धि समझता है और राज्य की भूमिका एवं जवाबदारी का क्षय करते हुए निजीकरण एवं उदारीकरण के माध्यम से मोर्चाबंदी करता है। सार्वजनिक सेवाओं के निजीकरण से शिक्षा, स्वास्थ्य सुश्रुषा, पानी एवं ऊर्जा तक आम आदमी की पहुंच में नाटकीय कमी आई है और इसका बहुत असंतुलित ढंग से दुनिया भर की महिलाओं एवं लड़कियों पर नकारात्मक प्रभाव पड़ा है। स्थानीय एवं वैश्विक दोनों स्तर की सार्वजनिक नीतियों जिसमें संयुक्त राष्ट्र संघ भी शामिल हैं, पर कारपोरेट क्षेत्र एवं अंतराष्ट्रीय वित्तीय संस्थानों का बढ़ता प्रभुत्व एसोसिएशन फॉर वुमन राइट्स इन डेवलपमेंट और इसके अनेक सहयोगी संगठनों जिसमें महिलावादी एवं महिला अधिकार संस्थाएं शामिल हैं, की चिंता का मुख्य विषय है।
एफ एफ डी की प्रक्रिया द्वारा कारपोरेट क्षेत्र को और अधिकमजबूत बनाने की शक्तियां नहीं प्रदान करना चाहिए जिससे कि वह राष्ट्र के क्षेत्रों एवं जवाबदेही को अपने लाभ के लिए इस्तेमाल न कर पाएं। मानवाधिकार से संबंधित मसलों पर भीमकाय बहुराष्ट्रीय कंपनियों पर लगाम कसना आवश्यक है। साथ ही ऐसी व्यवस्था निर्मित होना चाहिए जिससे कि कारपोरेट को उनके कृत्यों के लिए जवाबदेह ठहराया जा सकें। और महिलाओं को परिपूर्ण मानवाधिकार प्राप्त होने चाहिए। महिलाओं को व्यापार में कम प्रतिनिधित्व देना भी अस्वीकार्य है। साथ ही सभी को पूर्ण मानवाधिकारों की प्राप्ति ही एकमात्र लक्ष्य होना चाहिए।
पी पी पी (सार्वजनिक निजी भागीदारी) को सुस्थिर विकास प्राप्त करने हेतु एक चमत्कारिक शब्द मान लिया गया है। अनेक अधोसंरचनात्मक परियोजनाओं में इसकी जटिलताएं (विश्वभर में) सामने आई हैं। विश्व बैंक के (आई ई जी) ने भी इसमें ढेर सारी समस्याएं बताई हैं। इनमें शामिल हैं:-
यह वित्तीय प्रबंधन करने की अत्यन्त महंगी पद्धति है और इससे सार्वजनिक व्यय की लागत अत्यधिक बढ़ जाती है।
यह लागत सामान्यतः अपारदर्शी होती है और कारपोरेशन अपने शेयरधारकों के अलावा किसी भी अन्य भागीदार के प्रति जवाबदेह नहीं होते। आई ई जी की रिपोर्ट के अनुसार इसमें छुपे हुए अनेक खर्च शामिल होते हैं और परियोजना स्तर शायद ही कभी इन्हें सार्वजनिक किया जाता है। साथ ही ये परियोजनाएं अक्सर ऋण की सीमाओं का अतिक्रमण कर देती हैं।
इनका वित्तप्रबंधन अत्यन्त जोखिम भरा होता है। विकासशील देशों से प्राप्त अनेक तथ्य बताते हैं कि इस प्रकार की 25 से 35 प्रतिशत योजनाएं योजनानुसार गतिविधि कर पाने में असफल हो जाती हैं। इनमें कार्य की गुणवत्ता अत्यन्त खराब होती हैै और पुर्नभुगतान न हो पाने की दशा में दिवालिया होने की संभावना बनी रहती है।
सम्मेलन से यह अपेक्षा की जा रही है कि इस तथ्य को ध्यान में रखे बिना कि निजी निवेश सिर्फ अधिकतम लाभ हेतु होता है अधोसंरचनात्मक कार्य आवंटित न किए जाएं। साथ ही ढांचागत भेदभाव जिसकी शिकार मुख्यतः महिलाएं, लड़कियां और देशज समुदाय होते हैं, से निपटने पर पूरा ध्यान रखा जाए। (सप्रेस/थर्ड