संघर्ष संवाद
Sangharsh Samvad

वो जो गया, आम लोगों का बेजोड़ दोस्त था.…

कुमार सुंदरम
प्रफुल्ल जी के लिए ऐसे अचानक श्रद्धांजलि लिखनी पड़ेगी, कभी सोचा न था. मैं 1990 के शुरुआती वर्षों में अर्थनीति और अंतर्राष्ट्रीय राजनीति पर उनके लेख पढ़ते हुए बड़ा हुआ. तब के अखबारी लेखक पीछे छूटते गए लेकिन बाद में जेएनयू में अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में पीएचडी करते हुए भी प्रफुल्ल जी का लिखा उतना ही काम आया. ऐसे थे प्रफुल्ल जी – एक विद्वान, पेशेवर और प्रतिबद्ध पत्रकार-बुद्धिजीवी। परमाणु निरस्त्रीकरण और अणुऊर्जा, दक्षिण एशिया से लेकर फिलीस्तीन तक के मुद्दे,पर्यावरण की वैश्विक राजनीति और उसका जनपक्ष, साम्प्रदायिकता और सेक्युलरिज़्म, बाज़ार का अर्थशास्त्र और लातीनी अमेरिका के जनकेन्द्रित प्रयोग – उनका फलक न सिर्फ विस्तृत था बल्कि हर मुद्दे पर गहन रिसर्च और तह तक जाना उनकी खासियत थी। भारत के अकादमिक जगत और पत्रकारिता दोनों की व्यापक दरिद्रता के दौर में एक मिसाल थे प्रफुल्ल बिदवई।

शनिवार को उनकी अंतिम यात्रा में शामिल होने वालों की तादाद और दायरा सबको चकित कर गया – ऊंचे दर्ज़े  के पत्रकार, नामी सामाजिक कार्यकर्ता, वाम पार्टियों के शीर्षस्थ नेता और दिल्ली के मुख्यमंत्री जैसी कई नामचीन हस्तियों सहित तमाम ऐसे युवा पत्रकार और छात्र जिनसे प्रफुल्ल जी का सहज दोस्ताना था. इस दायरे के ज़्यादातर लोग शायद एक-दूसरे को जानते भी न हों. लेकिन प्रफुल्ल जी ने यह नेटवर्क लोगों से अलग-अलग भाषा बोलकर नहीं गढ़ा था, जैसा आजकल अक्सर होता है. उनका इन सारे क्षेत्रों के लोगों से अपने कॉलमों और किताबों के माध्यम से सार्वजनिक संवाद था, सबको इसमें विश्वास था कि उनके इन प्रयासों पीछे छिपी इंसानी जद्दोजहद की प्रफुल्ल जी को पहचान और कद्र थी और उसी धरातल से इन सभी लोगों की प्रफुल्ल जी ने जब ज़रुरत हुई खुली आलोचना भी की. कभी वामपंथी पार्टी के मेंबर न रहे, नंदीग्राम-सिंगूर से लेकर सामाजिक न्याय व अन्य लोकतांत्रिक मुद्दों पर खुली आलोचना की लेकिन वे वामपंथ के भरोसेमंद दोस्त थे, इसमें किसी को कभी कोई शक न हुआ.

1977 में उन्होंने परमाणु ऊर्जा विभाग पर खोजी रिपोर्ट लिखे और सुरक्षा-खामियों को सार्वजनिक करने पर देशद्रोही तक कहलाए, 1984 में भोपाल दुर्घटना के बाद उनके पड़ताली लेख इन्साफ तलाशते भुक्तभोगियों का सम्बल बने, 90 के  दशक में साम्प्रदायिकता के तांडव और बाज़ार की नृशंसता पर उनकी कलम ने चोट किया। 1998 में युद्धप्रेमी राष्ट्रवाद के कानफाडू शोर बीच उन्होंने निर्भीकता से परमाणु परीक्षणों की निंदा की और शोधपरक लेखों के माध्यम  समझाया कि क्यों अणु-बम दक्षिण एशिया में सुरक्षा नहीं देते बल्कि हमें हथियारों की होड़ में झोंकते हैं और इसके लिए हमें पश्चिमी देशों पर निर्भर बनाते हैं.

परमाणु मुद्दे से उनका केंद्रीय सरोकार रहा और मनमोहन सिंह सरकार के तहत हुई परमाणु डील का प्रफुल्ल बिदवई ने मुखर विरोध किया। उसके राजनीतिक, पर्यावरणीय और मिलिटरी खतरों से आगाह किया। 2010 में परमाणु दुर्घटनाओं  होने वाले नुकसान की भरपाई बोझ विदेशी कंपनियों हटाकर भारतीय आमजन कंधे पर डालने की सरकारी कोशिशों विरोध में प्रफुल्ल जी ने डटकर लिखा-बोला। 2011 में जापान के फुकुशिमा परमाणु दुर्घटना के बाद एक बार फिर उन्होंने भारत में सुरक्षा-कमियों और अणुऊर्जा के अन्तर्निहित व असाध्य खतरों ओर ध्यान दिलाया और इस प्रकरण में ज़ुबानी सरकारी आश्वासनों की पोल भी खोली। उसी दौरान महाराष्ट्र के जैतापुर, तमिलनाडु के कूडनकुलम, गुजरात के मीठीविर्दी, आंध्रप्रदेश के कोव्वाडा, हरियाणा  के गोरखपुर व देश के अन्य कई इलाकों में प्रस्तावित अणुऊर्जा परियोजनाओं खिलाफ स्थानीय ग्रामीणों के आन्दोलनों का सशक्त समर्थन किया।

तीन साल पहले पर्यावरणीय राजनीति को लेकर आई उनकी किताब ने मुद्दे पर विकसित और विकासशील देशों की जद्दोजहद को साफ़ किया और यह भी स्पष्ट किया कि भारत जैसे देशों के इलीट अंतर्राष्ट्रीय नियमों से रियायतें पाने के लिए भारत के अपार गरीब जनसमुदाय के हितों का हवाला देते हैं लेकिन देश में इसका इस्तेमाल अमीरों के मुनाफे और पर्यावरण के विनाश के लिए होता है.

पिछले साल जब मोदी सरकार ने आते ही वह आईबी रिपोर्ट जारी की जिसके अनुसार कुछ ‘देशद्रोही’ लोग व संस्थाएं ‘विकास’ से जुडी परियोजनाएं रोक कर भारत की वृद्धि दर 2% कम कर रहे हैं, तो उसमें प्रफुल्ल जी और उनके बनाए परमाणु-बम व अणुऊर्जा विरोधी मंच – सीएनडीपी – का नाम शुरुआती पन्नों पर था. तब मोदी का शबाब चरम पर था लेकिन प्रफुल्ल बिदवई ने कांस्टीट्यूशन क्लब में प्रेसवार्ता कर निडरता से इस दुष्प्रचार का मुंहतोड़ दिया और सरकार को आरोपों को साबित करने की खुली चुनौती दी. विकास की जनविरोधी परिभाषा को अंतिम सत्य मान कर उसे पुलिस मैन्युअल में बदल देने और सभी असहमतों को ठिकाने लगाने वालों को दी गयी प्रफुल्ल जी की वह चुनौती हमें आगे बढ़ानी है.

परमाणु डील के मुद्दे पर विपक्ष में रहते समय विरोध करने वाली भाजपा के मौजूदा प्रधानमंत्री हर विदेशी दौरे में परमाणु समझौतों और मुआवजे शर्तों में विदेशी कंपनियों को ढील देने को ट्रॉफी तरफ चमकाते हैं. इन करारों की आख़िरी मार उन किसानों-मछुआरों पर पड़नी है जिनके यहां फुकुशिमा के बाद पूरी दुनिया में नकारे गए ये परमाणु प्लांट लगाए जा रहे हैं. प्रफुल्ल जी ने मोदी सरकार के एक साल पूरे होने पर जो शायद आख़िरी लेख लिखा, वह आने वाले कई सालों तक हमें दिशा दिखाएगा क्योंकि साल निज़ाम बदलते रहते हैं लेकिन आम जनता और प्रफुल्ल बिदवई सरीखे उसके भरोसेमंद दोस्तों की लड़ाई जारी रहती है.
साभार : तहलका

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