जिंदल, जंगल और जनाक्रोश : 10 सालों से पोटका के आदिवासियों का बहादुराना संघर्ष जारी
झारखण्ड के पोटका के आसोनबनी में एक स्टील संयंत्र स्थापित करने के लिए जिंदल स्टील एंड पावर लिमिटेड व झारखण्ड सरकार के बीच सहमति पत्र (एमओयू) पर 5 जुलाई, 2005 को दस्तखत किए गए थे। कंपनी का दावा है कि अब तक उसने 22,000 करोड़ रुपये की लागत वाली इस ग्रीनफील्ड परियोजना के लिए आवश्यक 1417 एकड़ ज़मीन में से 285 एकड़ ज़मीन का अधिग्रहण कर लिया है। कंपनी की योजना है कि परियोजना को 2019 तक शुरू कर दिया जाए। जमशेदपुर से करीब 25 किलोमीटर दूर पूर्वी सिंहभूम के पोटका ब्लॉक स्थित आसोनबनी में प्रस्तावित 6 मिलियन टन सालाना (एमटीपीए) की क्षमता वाले स्टील संयंत्र पर पिछले साल 8 मार्च, 2014 को आयोजित एक जन सुनवाई में गांव वालों ने इसका विरोध किया था।
यह जन सुनवाई झारखंड राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (जेएसपीसीबी) ने आसोनबनी में आयोजित की थी। गांव वाले आरंभ से ही इस परियोजना को रद्द करने की मांग कर रहे हैं। गांव वालों ने जन सुनवाई को भी रद्द करने की मांग की थी। कलकत्ता से प्रकाशित होने वाले दि टेलीग्राफ और हिंदुस्तान टाइम्स ने उस वक्त कंपनी के पक्ष में तथ्यात्मक रूप से गलत रिपोर्टिंग की थी। 9 मार्च, 2014 को ‘‘जिंदल स्टील प्लांट क्लीयर्स फर्स्ट हर्डल’’ शीर्षक से प्रकाशित खबर में पर्यावरण मंजूरी की प्रक्रिया की उपेक्षा करते हुए केंद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रालय की एक्सपर्ट अप्रेज़ल कमेटी के बारे में अनभिज्ञता जाहिर की गई थी। सच्चाई प्रेस ट्रस्ट ऑफ इंडिया द्वारा जारी और दि हिंदू के बिजनेस लाइन में प्रकाशित खबर से पता चलती है जिसमें कहा गया था कि ‘‘कुल 27 ग्रामीणों’’ ने जन सुनवाई में हिस्सा लिया था। 9 मार्च को ही दैनिक भास्कर ने खबर छापी, ‘‘कुर्सियां फेंकी गईं, पुलिस ने लाठी भांजी, विरोध के बीच पूरी हुई जन सुनवाई, आधे घंटे तक रणक्षेत्र बना रहा आसोनबनी’’। प्रभात खबर ने पहले पन्ने पर जिंदल की परियोजना को मंजूरी मिलने की खबर छापते हुए यह बताने की जहमत नहीं उठायी कि जन सुनवाई पर्यावरणीय मंजूरी मिलने की राह में सिर्फ एक चरण है। केंद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रालय में औद्योगिक परियोजनाओं पर बनी विशेषज्ञों की अप्रेज़ल कमेटी (ईएसी) को कोई भी फैसला लेने से पहले जन सुनवाई की सीडी और कार्यवाही का पर्यवेक्षण करना होता है। खबरों के मुताबिक खुद कमेटी ने दर्ज किया है कि जिंदल की परियोजना का वहां कड़ा विरोध हुआ था। यदि वास्तव में ऐसा है तब ईएसी की ओर से दी गई पर्यावरणीय मंजूरी और जेएसपीसीबी की ओर से दिया गया अनापत्ति प्रमाणपत्र व स्थापित करने की सहमति निर्विवाद कैसे रह जाते हैं।
इस जन सुनवाई के दौरान कुमार चंद मार्डी, प्रवीन महतो, साधु परमानिक और दो अन्य ग्रामीण घायल हुए थे। जन सुनवाई दिन में 11 बजे शुरू हुई और आधे घंटे के भीतर ही सुनियोजित तरीके से ग्रामीणों पर हमला किया गया। मसलन, प्रवीन महतो के सिर पर चोट आई और उसे पट्टी बंधी थी। उसने बताया, ‘‘जिसने मुझे मारा, मैं उसे और उसके भतीजों को सातवीं से दसवीं कक्षा तक का ट्यूशन देता रहा हूं।’’ कंपनी के गुंडे दीपक, अरुण गिरि, बंकिम दास, बालिका गिरि और अफसर सुब्रतो दास, राजीव रंजन व प्रभात झा इस हमले में शामिल थे। बारह बजे तक जन सुनवाई पूरी हो गई थी। गांव वालों ने 8 मार्च को ही जादूगोड़ा पुलिस थाने में कंपनी के गुंडों व अफसरों के खिलाफ शिकायत दर्ज करवा दी। कंपनी ने भी ग्रामीणों के खिलाफ मामला दर्ज करवाया। इस भूमि अधिग्रहण का विरोध आसोनबनी के अलावा चोतरो, तिलामुड़ा, घोटिडुबा, दिगारसाइ, कनिकोला, कुडापाल, लोखंडी, बिरधा, बिरगांव, लालमोहनपुर, आजादबस्ती और गोपालपुर के लोग भी कर रहे हैं।
अखबारों ने यह खबर ही नहीं दी कि 8 मार्च को जब जन सुनवाई हुई उस वक्त 4 मार्च 2014 की शाम से ही भारत के निर्वाचन आयोग ने चुनाव आचार संहिता उस इलाके में लगाई हुई थी। आचार संहिता के उल्लंघन के बारे में डिप्टी कलक्टर को लिखित में सूचित किया गया। घाटशिला से झारखण्ड मुक्ति मोर्चा के विधायक रामदास सोरेन ने जन सुनवाई से पहले झारखण्ड के मुख्य निर्वाचन अधिकारी को आचार संहिता के उल्लंघन की जानकारी दी थी। मुख्य निवार्यचन अधिकारी वीएस सम्पत को भी इसकी सूचना दी गई थी लेकिन अब तक जन सुनवाई की कार्यवाही को रद्द करने के लिए कोई कदम नहीं उठाया गया है। एक ग्रामीण बनमाली महतो प्रभावित गांवों के 1200 लोगों की आपत्ति उनके मतदाता पहचान पत्र की छायाप्रति के साथ लेकर आया था।
इस सिलसिले में विस्थापन विरोधी एकता मंच के एक प्रतिनिधिमंडल ने 1 नवंबर, 2014 को पूर्वी सिंहभूम के उपायुक्त डॉ. अमिताभ कौशल से मुलाकात की और आसोनबनी में जिंदल स्टील कंपनी के साथ झारखण्ड सरकार के किए एमओयू समेत सारे एमओयू रद्द करने की मांग की। इन्होंने इस सिलिसले में राज्यपाल को भी एक ज्ञापन सौंपा है। ये कंपनियां ग्रामीणों के भीषण विरोध और ग्राम सभाओं की मंजूरी मिलने के अभाव में अपनी परियोजनाएं पूरी नहीं कर पाई हैं।
इससे पहले जेएसपीसीबी ने 28 जनवरी, 2014 को एक नोटिस जारी कर के जन सुनवाई को रद्द करने का एलान किया था। यह नोटिस ग्रामीणों के भीषण विरोध के चलते पूर्वी सिंहभूम प्रशासन द्वारा भेजे गए एक पत्र के कारण जारी किया गया था।
यह एमओयू जुलाई 2005 में किया गया था जब अर्जुन मुंडा राज्य के मुख्यमंत्री था। एमओयू और 2013 की ईआइए रिपोर्ट कहती है कि प्रस्तावित परियोजना पर सवाल हैं। दिल्ली स्थित ईएमटीआरसी कंसल्टेंट प्राइवेट लिमिटेड द्वारा तैयार की गई विस्तृत पर्यावरण प्रभाव आकलन रिपोर्ट (ईआइए) ग्रामीणों को उपलब्ध नहीं करायी गई है।
बिरधा, आसोनबनी, लालमोहनपुर, दिगरसाही, घाटिडुबा, तिलपमुड़ा, गोपालपुर, चातरो, गोविंदपुर और अन्य गांवों के लोग प्रस्तावित स्टील संयंत्र को लेकर काफी आक्रोश में हैं।
भूमि रक्षा संघर्ष समिति और विस्थापन विरोधी एकता मंच द्वारा चलाया जा रहा संघर्ष कंपनी के हाथों से जमीनों को बचाने पर केंद्रित है।
गांव वालों ने अपनी मांगों के समर्थन में और परियोजना के खिलाफ निम्न नारे गढ़े हैंः
- जिंदल का एमओयू रद्द करो
- जन सुनवाई रद्द करो
- खेती हमें खिलाती है, कंपनी हमें खाती है
- खेती हमें खिलाती है, कंपनी हमें रुलाती है
- हमें कंपनी नहीं अनाज चाहिए
- ग्राम सभा का उल्लंघन नहीं चलेगा
- टका पैसा चार दिन, जमीन थाकबो चिरो दिन
- किसान को खेती का हक मिले, जिंदल को लात मिले
- लेना है ना देना है, जिंदल को भगाना है
- जन जन का नारा है, फैक्ट्री नहीं लगाना है
- नवीन जिंदल वापस जाओ
एमओयू और नवंबर 2013 की ईआइए रिपोर्ट के सार और अन्य प्रासंगिक दस्तावेजों से निम्न विवदास्पद तथ्य निकलकर सामने आए हैंः
- एमओयू कहता है कि 50 लाख टन सालाना उत्पादन क्षमता वाला स्टील प्लांट लगाने के लिए 11500 करोड़ का निवेश होगा।
- राज्य सरकार का दस्तावेज ‘‘स्टेटस ऑफ एमओयू साइन्ड फॉर मेगा इनवेस्टमेंट’’ कहता है कि कुल 3000 एकड़ जमीन की जरूरत है। इसे कैबिनेट की मंजूरी मिलनी बाकी है।
- ईआइए रिपोर्ट का सार कहता है कि 60 लाख टन सालाना उत्पादन क्षमता वाला स्टील प्लांट लगाने के लिए 21260 करोड़ का निवेश होगा। ऐसा लगता है कि उत्पादन क्षमता में यह इजाफा मनमाने तरीके से किया गया है।
- एमओयू कहता है कि 3000 एकड़ जमीन की जरूरत है। ईआइए रिपोर्ट का सार कहता है कि 1778 एकड़ जमीन की जरूरत होगी जिसमें 1332 एकड़ एकफसली निजी जमीन है, 372 एकड़ सरकारी जमीन है और 73 एकड़ जंगल की जमीन है। इन्हें जोड़कर कुल 1777 एकड़ जमीन बनती है। इसका साफ मतलब है कि जितनी जमीन की जरूरत दिखायी गई है वह मनमानी है और प्रच्छन्न उद्देश्यों से प्रेरित है। ऐसा लगता है कि यह जमीन हड़पने की चाल है जिसमें सत्ताधारी और विपक्ष के तमाम नेताओं समेत सारे अफसर शामिल हैं।
- ईआइए रिपोर्ट का सार कहता है कि इस 1778 एकड़ जमीन के दायरे में बिरधा, आसोनबनी, लालमोहनपुर, दिगरसाही, घाटिडुबा, तिलपमुड़ा, गोपालपुर और चातरो गांव आते हैं लेकिन कुल घरों की संख्या सिर्फ 75 है। मतदाता सूची के हिसाब से भी देखें तो यह संख्या बेमेल है।
- ईआइए रिपोर्ट का सार कहता है कि निर्माण के दौरान 4000 लोगों को 48 से 60 माह के लिए रोजगार मिलेगा जो कि मोटे तौर पर चार से पांच साल है। जाहिर है यह वजह पर्याप्त नहीं कि गांव वाले अपनी उस जमीन को सौंप दें जिसने पीढ़ियों तक उनका पेट भरा है और भविष्य की पीढ़ियों को भी खिलाती रहेंगी।
- ईआइए रिपोर्ट का सार कहता है कि संयंत्र चलने के दौरान करीब 6000 लोगों को प्रत्यक्ष रोजगार मिलेगा और 7500 लोगों को अप्रत्यक्ष काम मिलेगा जिसमें स्थानीय लोगों को तरजीह दी जाएगी। तथ्य यह है कि 1777 एकड़ जमीन ने अतीत में करोड़ों लोगों का पेट भरा है और भविष्य में भी करोड़ों लोगों को पालेगी जिसके मुकाबले यह प्रस्तावित संयंत्र सिर्फ कुछ हजार लोगों को ही नौकरी देने की बात कहता है।
- ईआइए रिपोर्ट का सार कहता है कि कंपनी कॉरपोरेट सोशल जिम्मेदारी के बतौर 1063 करोड़ रुपये खर्च करेगी, पर्याव्रण प्रबंधन पर 1200 करोड़ खर्च करेगी और प्रदूषण नियंत्रण पर 120 करोड़ खर्च किए जाएंगे। कंपनी का प्रस्ताव खुद एक गैर-जिम्मेदाराना कदम है जिसमें पर्यावरण को भारी नुकसान पहुंचाने और पर्यावरण जनित रोगों को पैदा करने की क्षमता है।
- ईआइए रिपोर्ट का सार कहता है कि कुल 3270एम3 प्रतिघंटा पानी की आवश्यकता होगी (26.85 एमसीएम सालाना)। दूसरे शब्दों में चंडील जलाशय से 32 लाख 70 लीटर पानी प्रतिघंटा की जरूरत होगी। इसके लिए कंपनी बोरवेल का भी इस्तेमाल करेगी। इससे पता चलता है कि कंपनी को राज्य सरकार से इसके लिए अनुमति मिल चुकी है।
प्रस्ताव है कि पानी सुबर्नरेखा नदी से निकाला जाना है। कॉरपोरेट के अंधमुनाफे के लिए यह नदी को सुखाने का रास्ता खोलेगा।
कुल 470 किलोमीटर लंबी सुबर्नरेखा नदी वर्षा पर आश्रित है और छोटानागपुर क्षेत्र के आदिवासियों की जीवन रेखा है। इस नदी को बचाने के लिए यहां आने वाली औद्योगिक परियोजनाओं का समग्र प्रभाव मूल्यांकन किए जाने की जरूरत है। यह ध्यान देने वाली बात है कि भूगर्भवैज्ञानिकों ने कहा है कि सुबर्नरेखा नदी सूख रही है।
केंद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रालय की विशेषज्ञ कमेटी (ईएसी) को पिस्का/नगड़ी में नदी के स्रोत का दौरा करना चाहिए जो रांची से 30 किलोमीटर दूर स्थित है तथा नदी के समूचे मार्ग का पर्यवेक्षण करना चाहिए जिसके रास्ते में रांची, सरायकेला, खरसावां और पूर्वी सिंहभूम जिले आते है।
ईएसी और झारखण्ड सरकार के अलावा पश्चिम बंगाल, ओडिशा और सभी संबद्ध राज्यों को इस नदी की सेहत का आकलन करना चाहिए तथा समग्र प्रभाव आकलन अध्ययन करवा कर इस नदी को और ज्यादा दोहन से बचाने के लिए पर्याप्त सिफारिशें करनी चाहिए क्योंकि सुबर्नरेखा बंगाल के पश्चिमी मेदिनीपुर जिले में 83 किलोमीटर तथा ओडिशा के बालासोर में भी 79 किलोमीटर बहने के बाद तलसारी के पास बंगाल की खाड़ी में जाकर गिरती है।
एमओयू में यह बात सामने आई है कि कंपनी की परियोजना अतिरिक्त पानी की जरूरत को बोरवेलों से पूरा करेगी। इसके प्रतिकूल प्रभाव काफी गंभीर होंगे।
जब तक सुबर्नरेखा नदी घाटी का समग्र प्रभाव आकलन अध्ययन नहीं कर लिया जाता तब तक इस नदी पर आश्रित औद्योगिक परियोजनाओं पर ही रोक लगा दी जानी चाहिए।
कंपनी संयंत्र के अलावा खदान खोलने का भी प्रस्ताव रखती है जहां से 32.5 करोड़ टन लौह अयस्क और 77 करोड़ टन कोयला निकाला जाना है। इसके अलावा 30 साल तक इस्तेमाल करने के लिए मैंगनीज़ की भी एक कैप्टिव खदान को पट्टे पर लेने का प्रस्ताव है।
राज्य के राजस्व विभाग ने 2007-08 में झारखण्ड इनफ्रास्ट्रक्चर डेवलपमेंट कॉरपोरेशन (जिडको) द्वारा भूमि अधिग्रहण पर आपत्ति उठायी थी क्योंकि ‘‘यह सरकार के काम से मेल नहीं खाता था- चूंकि जमीन से जुड़े सारे मामले राजस्व विभाग के पास थे। इसके बाद 2008 में उससे सारे अधिकार छीन लिए गए।’’ राजस्व विभाग से अधिकार छीने जाने पर सवाल हैं और इसकी कानूनी जांच होनी चाहिए।
ऐसा इसलिए किया गया ताकि विशेष तौर से जिंदल के लिए और सामान्यतः अन्य कंपनियों के लिए जमीन कब्जाने के काम को आसान बनाया जा सके। यह कहा गया कि एमओयू के मुताबिक ऐसा किया ही जाना था। इस मामले में बुनियादी सवराल यह उठता है कि क्या इस देश में कानून व्यवस्था का राज होगा या फिर कानून व्यवस्था पर एमओयू का डंडा चलेगा? ऐसा करने से नागरिक अधिकारों तथा सरकार को आने वाले राजस्व प्रवाह के ढांचे पर ही कानूनी अनिश्चय खड़ा हो जाएगा। यह एक खतरनाक नजीर है जिसके निहितार्थ व्यापक हैं।
यह जमीन कंपनी को नहीं दी जा सकती क्योंकि इससे छोटानागपुर काश्तकारी अधिनियम और संविधान की पांचवीं अनुसूची का उल्लंघन होगा। पूर्वी सिंहभूम का पोटका क्षेत्र सघन आदिवासी आबादी वाला इलाका है और यह पूरी तरह छोटानागपुर काश्तकारी अधिनियम और संविधान की पांचवीं अनुसूची के तहत आता है। ऐसा जान पड़ता है कि पोटका की उर्वर जमीन को सतधारी व विपक्षी नेताओं की मिलीभगत से हड़पा जा रहा है ताकि वहां एक औद्योगिक परिसर का निर्माण किया जा सके।
पोटका के ग्रामीणों का खुद मानना है कि छोटानागपुर काश्तकारी अधिनियम, संविधान की पांचवीं अनुसूची और पेसा क्षेत्र में आने वाली जमीन पर कंपनी का प्रस्तावित प्रोजेक्ट अपने आप में गैर-कानूनी है क्योंकि इसमें इस तथ्य को संज्ञान में नहीं लिया गया है कि प्रस्ताव खुद पेसा कानून का उल्लंघन होगा जिसके लिए ग्राम सभा की मंजूरी लिया जाना अनिवार्य है। पेसा, 1996 कानून पंचायत कानून को उन क्षेत्रों तक विस्तारित करता है जो संविधान की पांचवीं अनुसूची के तहत आते हैं।
पेसा का उद्देश्य कुदरती संसाधनों पर आदिवासियों के पपरंपरागत अधिकारों का संरक्षण करना है। एमओयू इन अधिकारों का हनन करता है। एमओयम में राज्य सरकार का पक्ष आदिवासी ग्रामीणों के हितों के खिलाफ जाता है जो सरकार के जन विरोधी और पर्यावरण विरोधी चरित्र को ही उजागर करता है।
राज्य सरकार के साथ जिदंल का एमओयू और इसमें राजनीतिक दलों की मिलीभगत न सिर्फ जमीन और प्रकृतिक संसाधनों पर बल्कि आदिवासी समाज और संस्कृति पर भी हमला है।
प्राकृतिक संसाधनों पर कॉरपोरेट के बढ़ते हमले के खिलाफ ग्रामीणों के भीषण विरोध के मद्देनजर उनकी जमीनों और आजीविका पर अधिकार की रक्षा करने के लिए एमओयू को रद्द किया जाना चाहिए।
कंपनी कानून, 2013 के मुताबिक यह प्रावधान है कि कंपनियां अपने सालाना मुनाफे का 7.5 फीसदी हिस्सा राजनीतिक दलों को चंदे के रूप में दे सकती हैं। ऐसा लगता है कि एमओयू पर दस्तखत का फैसला और भारी मात्रा में पानी के दोहन को मिली मंजूरी इसी सौदेबाजी का परिणाम हैं जिसमें राज्य की पिछली और मौजूदा दोनों ही सरकारों की भूमिका है। इसी के चलते सत्ताधारी दल ग्रामीणों और उनके भविष्य के हितों के प्रति लापरवाह हो जाते हैं।
कंपनी और ग्रामीणों के बीच इस संघर्ष में सरकार की बाध्यता है कि वह कंपनी के नहीं, ग्रामीणों के हितों की सुरक्षा करे। गांव वालों की मौजूदा और आने वाली पीढ़ियां सत्ताधारी नेताओं व अफसरों के इस विश्वासघात को कभी नहीं भूलेंगी और उन्हें कभी माफ नहीं करेंगी जिन्होंने उनके हितों को ही बलिवेदी पर चढ़ा दिया है।