संघर्ष संवाद
Sangharsh Samvad

गांवों को लीलती आपदाएं

पुणे के मालिण गांव व उत्तराखंड के जखन्याली नौताड़ में हुए भू-स्खलन में करीब दो सौ लोगों की मृत्यु हुई है। मालिण गांव की त्रासदी के लिए पनचक्कियां लगाने को भी जिम्मेदार ठहराया जा रहा है। वास्तविकता यह है कि “करे कोई और भरे कोई” की शोषण आधारित व्यवस्था अब गरीबों से उनके जीने का हक भी छीन रही है। आवश्यकता रुककर विकास के गिरेबान में झांकने की है।  त्रासदी के बाद के हालातों पर सुरेश भाई का महत्वपूर्ण आलेख;

इस मानसून में पुणे के मालिण गांव एवं उत्तराखण्ड के जखन्याली नौताड़ मे आई आपदा में  लगभग दो सौ लोग मारे गये हैं। आपदा प्रभावित ये दोनों गांव पहाड़ी क्षेत्र में स्थित हैं। दोनों ही स्थानों पर प्रशासन की चूक बताई जा रही है। कहा जा रहा है कि यदि समय रहते सुरक्षा के इंतजाम किये जाते तो लोगों को बचाया जा सकता था। जखन्याली नौताड़ के आस-पास पिछले वर्ष केदारनाथ आपदा के दौरान भी भूस्खलन हुआ था। गांव के निवासियों द्वारा इसको रोकने के लिये सुरक्षा दीवार लगाने की मांग की पिछले एक वर्ष से अनसुनी की जा रही है।

इस वर्ष 30 जुलाई की रात को हुई घटना के बाद जखन्याली नौताड़ के ग्रामीणों का कहना है कि यदि लोक निर्माण विभाग इस गांव में भूस्खलन को न्योता देने वाले रईस गदेरे के दोनों ओर सुरक्षा दीवार बना देता तो आज यहां पर 14-15 घर मलवे में नहीं समाते और न ही 6 लोगों की जान जातीे।

इसी तरह मालिण गांव में भी आपदा प्रबंधन की पोल खुल गई है। यहां पर पवन चक्कियों के स्थापित किए जाने के कारण गांव में भूस्खलन हुआ हैै। स्थानीय लोग कृषि विभाग को भी इस घटना के लिये जिम्मेदार बता रहे हैं। पर्यावरणविद् माधव गाड़गिल ने भी पवनचक्कियों को मालिण गांव की तबाही का कारण बताया है। वहां पर बड़े पैमाने पर वृक्षों का कटान, पत्थरों के खनन व अवैध निर्माण ने ही गांव के 175 से अधिक लोगों को जिंदा दफना दिया है।

केदारनाथ (उत्तराखंड) में 16-17 जूून 2013 को आई आपदा के बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री डॉ0 मनमोहन सिंह एवं वर्तमान राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी ने भी उत्तराखण्ड की आपदा को मानवजनित बताया था। उन्होंने निर्देश दिये थे कि भविष्य में ऐसी घटनाओं को रोकने के उपाय खोजे जाने चाहिये। इस आपदा के बाद विशेषकर पहाड़ों व हिमालय की गोद में बसी हुई आबादी और देवभूमि के रूप में आकर्षित करने वाली यहां की धरती पर बार-बार आ रहे संकट को देखते हुये सरकारी तथा गैर सरकारी संस्थाओं व वैज्ञानिकों ने दो दर्जन से अधिक अध्ययन किये हैं।

हाल ही में गांधी शान्ति पुरस्कार से सम्मानित चिपको आंदोलन के प्रणेता चंडी प्रसाद भट्ट की एक रिपोर्ट में लिखा गया है कि 1991 के भूकम्प से उत्तरकाशी से पिथौरागढ़ को जोड़ने वाली पहाड़ियों पर दरारे पड़ी हुई हैं। इसके बाद भी लगातार छोटे बड़े भूकम्प आ रहे हैं, जो बार-बार भूस्खलन को न्यौता देंगे। उत्तरकाशी से गंगोत्री के बीच बड़े-बड़े सुरंग बांधों के निर्माण से बड़ी तबाही के संकेत तो उन्होंने पहले ही दिये थे। इसके बाद यहां पर सन् 2010 से सन् 2013 तक यहां लगातार बाढ़ आई है जिसके कारण 100 से अधिक लोग केवल उत्तरकाशी में ही मरे हैं। केदारनाथ की तबाही के बाद सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश पर डॉ. रवि चोपड़ा की अध्यक्षता में गठित एक विशेषज्ञ समिति ने अध्ययन करके यह साबित किया है कि भारी बारिश के चलते लगभग 24 सुरंग बांधों के निर्माण से नदी तटों पर जमा हुए मलबे के ढेरों ने अधिकतर गांवों में तबाही की कहानी लिख दी थी। इन बांधों पर तत्काल काम बंद करने के आदेश भी दिये गये थे। यह बात अब कई रिर्पोटों मंे खुलकर सामने आयी है। पहाड़ों की गोद को छलनी करने वाली जेसीबी मशीनों ने सड़कों के चौड़ीकरण के दौरान आपदा की अधिक गुजांइशें पैदा की हैं।

उत्तराखण्ड में “आवाज“ नामक एक नागरिक आपदा रिपोर्ट में बताया गया है कि 16-17 जून की आपदा से 5-6 वर्ष पहलेे ही पर्यावरणविद्ों, सामाजिक कार्यकर्ताओं, मौसमविद्ों और आम जनता ने जिस तरह के संयमित विकास का सुझाव सरकार को दिया था यदि उसे अनसुना न किया जाता तोेेेे जान माल का इतना नुकसान नहीं होता। मौसम विभाग ने भी 9-10 जून 2013 को ही उत्तराखण्ड में एक बड़ी आपदा आने की सूचना के संकेत दे दिये थे। रिपोर्ट में आगे लिखा है कि इसकी सूचना देने पर भी हजारों यात्रियों को केदारनाथ, गंगोत्री, यमनोत्री व बद्रीनाथ जाने दिया गया था। माउन्टेन कलेक्टिव द्वारा उत्तराखण्ड में आपदा प्रभावित दलितों की आवाज नामक रिपोर्ट में बताया है कि एक ओर तो आपदा सभी के लिये बुरे दिन लेकर आती है वहीं दूसरी ओर आपदा राहत वितरण में दलित समाज को जाति का दंश भी झेलना पड़ता है। रिपोर्ट में कहा गया है कि रुद्रप्रयाग जिले के डमार गांव के अनुसूचित जाति के परिवारों को जब सरकार ने पास के गांव के सुरक्षित घरों में पहुंचाया तो उन्हें वहां पर खाना बनाने के लिये आग तक नहीं जलाने दी गई। इसके अलावा उन्हें पर्याप्त मुआवजा भी नहीं मिला है। यहां से कुछ ही दूरी पर स्थित चन्द्रापुरी गांव की दलित बस्ती को सुरक्षित स्थान पर बसाने के लिये भी प्रशासन से लगातार गुहार करनी पड़ रही है।

गंगोत्री, यमनोत्री, केदारनाथ व बद्रीनाथ मेें आने वाले तीर्थयात्र्ाियों पर मौसम का भारी प्रभाव इस बार भी देखने केा मिल रहा है। खतरनाक सड़कों और खराब मौसम के चलते सैकड़ों तीर्थ यात्री बीच-बीच में गाड़ियों में ही सोने को मजबूर हो रहे हैं। जहां पिछले वर्ष जून 2013 लगभग ढाई लाख यात्री गंगोत्री-यमनोत्री आये थे वहीं इस बार केवल 35 हजार यात्री ही यहाँ पहुँचे हैं। जिसके कारण लगभग 40 हजार से अधिक लोगों का रोजगार प्रभावित हुआ है।

गौरतलब है इन घटनाओं के लिये जलवायु परिवर्तन को सरलता से जिम्मेदार ठहराया जा सकता है। लेकिन यह भी सोचें कि इस तरह के जलवायु संकट को बढ़ाने वाले कारक कौन से हैं? इनका पता लगाने के बाद ही आपदा को कम किया जा सकता है। दुखः इस बात का भी है कि आपदा प्रबंधन तन्त्र समाज के प्रति उतना जिम्मेदार नहीं है। उन्होंने जिलाधिकारी व पुलिस अधिकारियों पर जिम्मेदारी डाल रखी है। समाज के साथ मिलकर काम करने के लिए मजबूत व जवाबदेह आपदा नीति की भी आवश्यकता है।

जो भी आपदा की गुजांइश या स्थिति पैदा करता है उसे तो दोषी ठहराना ही होगा। इसका एक उदाहरण पिछले दिनों हिमाचल प्रदेश का है। यहां व्यास नदी पर लारजी बिजली परियोजना बांध से बिना चेतावनी दिए छोड़े गये पानी के कारण 24 छात्र-छात्रायें बह गये थे। यह एक भीषण मानवजनित आपदा थी। हमें सोचना होगा कि बाढ़-अतिवृष्टि, बर्फबारी, भूस्खलन की घटनायें पहले भी होती थीं लेकिन अब जो प्राकृतिक आपदायें आ रही हैं उन पर सवाल क्यों खड़े हो रहे हैं? इस दिशा में राज्यों का ध्यान जाना चाहिए और केेन्द्र को भी नदियों व पर्वतों में, चाहे वे हिमालय क्षेत्र हों या मैदानों में दोनों स्थितियों में बसी हुई आबादी की सुरक्षा के उपाय भी ढूंढने होंगे। सवाल उठता है उत्तराखण्ड के जखन्याली नौताड़ और पुणे के मालिण गांव की घटना का दोषी किसे माना जाय? जो लोग प्रकृति संहारक विकास के विरोधी हैं उनके अनुसार तो यह मानव जनित आपदा है। लेकिन जिन्हें सुरक्षा के उपाय पहले से कर देने थे वे तो इसे प्राकृतिक आपदा ही कहेंगे। विकास के नाम पर पहाड़ों की कंदराओं में बसे हुए गांव आज तबाही के कगार पर खड़े हैं। इन दो घटनाओं ने तो हमें कम से कम यही संदेश दिया है। (सप्रेस)

श्री सुरेश भाई उत्तराखण्ड के जाने माने गांधीवादी सामाजिक कार्यकर्त्ता हैं।

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