उत्तर प्रदेश की समाजवादी सरकार का दलित भूमि हड़पने का नया विधेयक
उत्तर प्रदेश की समाजवादी सरकार द्वारा प्रस्तावित विधेयक ‘उत्तर प्रदेश जमींदारी उन्मूलन और भूमि व्यवस्था संशोधन विधेयक 2015‘ दलित कृषकों को यह अधिकार दे देगा कि वे अपनी भूमि अब गैरदलितों को भी बेच सकेंगे। साथ ही साथ न्यूनतम कृषि भूमि की शर्त भी खत्म की जा रही है। दलितों के पक्ष में प्रचारित किया जा रहा यह निर्णय अंततः उनके लिए धीमा जहर ही साबित होगा। पेश है कृष्ण प्रताप सिंह का आलेख जिसे हम सप्रेस से साभार साझा कर रहे है;
आम लोगों को सपने दिखा कर किस प्रकार शासन-प्रशासन द्वारा लूटा जा रहा है इसे केंद्र में रख कर गंगा एक्प्रेस वे विरोधी आंदोलन के साथी बलवन्त यादव ने भोजपुरी में यह गीत लिखा है जिसे हम यहाँ पर साझा कर रहे है;
बताव काका, कहँवा से चोर घुस जाता
कहँवा से चोर घुस जाता
सोचती जा हमनी के राहत आई
स्वदेशी शासन, रामराज ले आई
झूठा भइल हमनीके सपना
स्वदेशी राज भइल पूंजीपतियन के अपना
नून-तेल के दाम बढ़े, मोबाइल, टी.वी. सस्ता
बताव काका, कहँवा से ………….
कहेले मोदी राहेब, देशवा बा खतरेमें
आई एस आई एजेन्ट सब, घुसल बा सगरेमें
काहे अमेरिका से, हथवा मिलवल
देश के मुनाफा, विदेश भेजवल
कैप्सूल में सतुवा, भरिके बीकासूल कहाता
बताव काका, कहँवा से …………………..
आइल बा देश में, अजब लोकशाही
थाना में इज्जत, लूटे सिपाही
बांधि-बांधि मारिके मुठभेड़ कहाता
बताव काका, कहँवा से …………………..
किसान-मजदूर यहाँ, भूखों मरतबा
गेहूँ और चावल, गोदाम में सरत बा
अम्बानी-अडानी के पूंजी बढ़त बा
देश के लुटेरा, वीआईपी कहाता
बताव काका, कहँवा से …………………..
अब आइल देख इ, स्वच्छ प्रशासन
घूस बिना डोले ना, नेताजी के आसन
‘डाढ़-पांत सडँसे बाटे फलवे नापाता
थनऊ के भीतर मर्डर होई जाता
बताव काका, कहँवा से …………………..
खिसियालन नेता जी, हमनी लड़कन पर
काहे पास होली जा, हमनी नकल पर
हमनीत इ सब, उनके से सीखली जी
भइल का चुनाव में, इस सब देखली जा
वोट मिले केहुके, कहु जीती जाता
बताव काका, कहँवा से …………………..
जे करे दंगा, बने राष्ट्रवादी
गीत गाने वाला, कहाता उग्रवादी
जेह परिवारवादी, समाजवादी कहाता
विकास के नाम पर इ देशवे बेचाता
बताव काका, कहँवा से …………………..
का कहीं काका, कहलो ना जात बा
कहलो बीना, हमरा रहलो ना जात बा
का होई राज अइसन की जान जे में जाता
की सुन काका
अब ना जुलूस इसहाता-2….
बताव काका, कहँवा से …………………..।।
मोदी सरकार को जिस ‘किसान विरोधी’ भूमि अधिग्रहण विधेयक को लेकर अपने पैर अंततः पीछे खींचने पड़े हैं, उससे सबक न लेते हुए उत्तरप्रदेश में ‘किसानों की शुभचिंतक’ अखिलेश सरकार ने प्रदेश की भूमि व्यवस्था में बदलाव का लगभग वैसा ही दलित विरोधी विधेयक पारित करा डाला है। मजे की बात यह कि पक्ष विपक्ष के विभिन्न राजनीतिक दलों ने इस विधेयक पर नजरिया तय करने में न सिर्फ अपने अंतर्विरोधों को बेपरदा किया है बल्कि कृषि भूमि व किसानों की बाबत अपने पुराने तर्कों को ताक पर रख दिया है। यकीनन यह दलितद्रोह की समाजवादी शैली है।
इस बात की पूरी संभावना है कि लघु दलित भू-स्वामी की ‘मुक्ति’ के नाम पर लाये गये इस विधेयक की गूंज न सिर्फ उत्तरप्रदेश में बल्कि देश की दलित व किसान राजनीति में लम्बे वक्त तक सुनाई पड़ती रहेगी। कौन जाने, प्रदेश के आगामी विधानसभा चुनावों में मुलायम व मायावती की निजी खुन्नस के चलते दलित विरोध में सानी न रखने वाली सत्तारूढ़ समाजवादी और खुद को दलितों की एकमात्र हमदर्द करार देने वाली विपक्षी बहुजन समाज पार्टी के बीच वोटों की रस्साकशी का भी यह सबसे बड़ा मुद्दा बन जाये।
इस विधेयक को उत्तर प्रदेश जमींदारी उन्मूलन और भूमिव्यवस्था संशोधन विधेयक, 2015 नाम दिया गया है। यदि इसे राज्यपाल राम नाइक की स्वीकृति मिल गयी और यह कानून में परिवर्तित होकर लागू हो गया तो प्रदेश के दलितों को अपने स्वामित्व की सारी की सारी कृषि भूमि किसी को भी बेचकर फिर से भूमिहीन या खेतिहर मजदूर बनने की पूरी ‘आजादी’ हासिल हो जायेगी। अभी तक जो प्रावधान हैं, उनके अनुसार बहुत जरूरी होने पर भी वे अपनी कृषि भूमि किसी दलित को ही बेच सकते हैं, किसी गैरदलित को कतई नहीं। दलित खरीददार को भी ऐसी बिक्री तभी संभव है, जब उस बिक्री के बाद भी दलित के पास कम से कम 1.26 हेक्टेयर कृषि भूमि बच रही हो। इस बिक्री के लिए संबंधित जिले के जिलाधिकारी की अनुमति की जरूरत भी पड़ती है।
चूंकि आम दलितों के पास इतनी कृषि भूमि है ही नहीं कि उसके किसी टुकड़े की बिक्री के बाद भी 1.26 हेक्टेयर बच जाये, इसलिए इन प्रावधानों को उनकी कृषिभूमि की खरीद-बिक्री पर अघोषित प्रतिबंध के तौर पर देखा जाता है। जमींदारी उन्मूलन के वक्त इसकी व्यवस्था इस उद्देश्य से की गयी थी कि समाज के समृद्ध तबकों को दलितों की भूमि खरीदने की किंचित भी सहूलियत हासिल हो गयी तो वे दलितों को भूमि आबंटित करके भूमिधर बनाने के सारे सरकारी प्रयत्नों को निष्फल कर डालेंगे। एक ओर दलितों को भूमि आबंटित की जायेगी और दूसरी ओर लोभ, लालच, भयादोहन या धोखे की बिना पर उन्हें भूमिहीन बना दिया जायेगा।
अखिलेश सरकार सत्ता में आने के बाद से ही इन प्रावधानों को खत्म करने की ताक में थी। अब उसका तर्क है कि भूमि आबंटन के नाम पर दलितों को दिये गये भूमि के छोटे-छोटे टुकड़ों से उनका जीवनस्तर सुधारने में कोई मदद नहीं मिली है। उलटे ‘अलाभकर जोतों’ के चक्कर में फंसकर वे न घर के रह गये हैं और न घाट के। कई दलितों के पास एक बीघे से भी कम कृषि भूमि है। सो भी पड़ती, बंजर या ऊसर! वे उस पर खेती की सारी सुविधाएं व संसाधन जुटाने चलते हैं तो भी हलाकान होकर रह जाते हैं यानी नुकसान में रहते हैं। उससे छुटकारा पाकर कुछ और करना चाहते हैं तो कानूनी बाधा उन्हें ऐसा करने से रोक देती है। सांप छदूंदर वाली इस स्थिति से उनकी मुक्ति के लिए जरूरी है कि उन्हें इजाजत दी जाये कि वे अपनी कृषि भूमि जिसे भी चाहें, बेच सकें। इससे उन्हें उसकी अपेक्षाकृत बेहतर कीमत मिल सकेगी।
गौरतलब है कि अखिलेश की सरकार और शासक दल मोदी सरकार के भूमि अधिग्रहण विधेयक के संदर्भ में दलितेतर जातियों के अलाभकर जोतों के स्वामी किसानों के भूमि से मुक्ति पाने के तर्क को स्वीकार नहीं करतीं। लेकिन दलितों के मामले में प्रतिबंध की मूलभावना को ही खारिज कर यह कहने तक चली गई कि अपनी भूमि बेचने की आजादी के बगैर उनकी भू-स्वामी यानी स्वामित्व अपूर्ण, अपमानजनक और भेदभावपूर्ण है।
दलितों को इस भेदभाव से निजात दिलाने की उन्हें इतनी जल्दी है कि राजस्व मंत्री शिवपाल यादव ने सारे विपक्षी दलों के एकजुट विरोध को दरकिनार कर विधानसभा में उक्त विधेयक पेश कर दिया। उन्होंने तर्क दिए कि किसान दलित हो या गैरदलित, अपनी कृषि भूमि बहुत विपत्तिग्रस्त या मजबूर होने पर ही बेचता है।
विपत्ति में भी उसे इसकी इजाजत न देना उस पर अत्याचार करने जैसा है। लेकिन उन्होंने इस बाबत कुछ नहीं कहा कि दलितों को ऐसी मजबूरी से उबारने के कौन-कौन से प्रयत्न किये जा रहे हैं। सवाल उठता है कृषि भूमि बेचने के बाद उनकी मजबूरी और बढ़ेगी या घटेगी? वे यह बताने में भी असफल रहे कि क्या दलितों के किसी संगठन की ओर से कभी सरकार से ऐसी कोई मांग की गयी थी?
लेकिन विधेयक को लेकर सपा अकेला दल नहीं है जिसने अपने तर्क नहीं उलटे-पलटे। मोदी के भूमि अध्यादेश के संदर्भ से किसानों की अलाभकर जोतों से मुक्ति की समर्थक भाजपा यहां दलित किसानों की वैसी ही मुक्ति के खिलाफ खड़ी नजर आयी। बसपा व कांग्रेस के साथ उसने भी विधेयक को प्रवर समिति को सौंपने की मांग की और इसके लिए हंगामा व नारेबाजी की। इसे लेकर राजनीतिक हलकों में उस पर फब्तियां भी कसी गयीं।
दूसरी ओर बसपा ने कहा कि विधेयक के पीछे दलितों को फिर से भूमिहीन बनाने और किसान से खेत मजदूर में बदलने की साजिश है। सपा सरकार अपने राजनीतिक आराध्य डॉ. राममनोहर लोहिया के विचारों का गला घोटकर भू-माफियाओं को उपकृत करना चाहती है। यह भूस्वामित्व पूर्ण करने के नाम पर दलितों से किया जा रहा ऐसा धोखा है जिसे सहन नहीं किया जा सकता। उसके नेताओं ने सरकार से पूछा कि वह प्रदेश में कैसा समाजवाद लाना चाहती है और उसका समाजवाद सच्चा है तो वह ‘एक व्यक्ति एक पेशा’ के सिद्धांत पर अमल के लिए आगे क्यों नहीं आती? साथ ही, उद्यमियों, सरकारी सेवकों व आयकरदाताओं के शिकंजे में फंसी कृषि भूमि निकालकर दलितों को आबंटित क्यों नहीं करती?
बसपा के तेवर से लगता है कि वह विधानसभा चुनावों में दलितों को अपने पक्ष में एकजुट करने के लिए इस मुद्दे का इस्तेमाल अवश्य ही करेगी। राजनीतिक प्रेक्षकों का कहना है कि अखिलेश सरकार ने बैठे-ठाले उसको अपने उस वोट बैंक को नये सिरे से एकजुट करने व सहेजने का हथियार उपलब्ध करा दिया है, जो लोकसभा चुनाव में बिखर गया था। इसी के कारण बसपा का खाता तक नहीं खुला था। लेकिन इससे भी बड़ा सवाल यह है कि तब उक्त बिखराव से शानदार जीत हासिल करने वाली भाजपा अब क्या करेगी?