झारखंड के मूलवासी – आदिवासियों का ऐलान : न जान देंगे, न जमीन देंगे !
जरूरी है पढ़ाई-लिखाई
लेकिन इससे भी ज्यादा जरूरी है सीखना
होती है क्या हक की लड़ाई
जरूरी है कमाई-धमाई
जोड़ना पाई-पाई
लेकिन इससे भी ज्यादा जरूरी है
बचानी अपनी जमीन
जिसे पुरखों से
समझते आ रहे हैं हम अपनी माई
और इसी कविता की अंतिम पंक्तियां कुछ इस प्रकार है-
लेकिन पैदा करती है इसे जमीन ही
यह अंतर हम समझते हैं
कैसे बदल सकते हैं हम
जमीन को मुआवजे में ।
झारखंड में 104 एमओयू हुए, आदिवासियों ने हर मोर्चे पर अपनी जमीन बचने के लिए संघर्ष किया. जिसका नतीजा रहा कि कहीं पर भी कम्पनियाँ अपना प्लांट नहीं स्थापित कर पायी. प्रदेश में जितने भी महानायक हुए है जैसे तिलकामांझी, बिरसा मुंडा, सिद्धू-कान्हू आदि
उनकी लड़ाई का एजेंडा जमीन ही रहा है। झारखंड के लोग जल-जंगल-जमीन पर अपना
हक नहीं छोड़ सकते क्योंकि ये लड़ाई उनके जीवन-मरण का है। पेश है झारखण्ड के भूमि आंदोलन पर रूपेश कुमार का महत्वपूर्ण आलेख;
दरअसल रंजीत वर्मा की यह कविता देश में मोदी सरकार के भूमि अधिग्रहण अध्यादेश के खिलाफ चल रहे आंदोलन का प्रतिनिधित्व करती है।
30 दिसम्बर 2014 को लोकसभा सत्र के बाद मोदी सरकार ने इस अध्यादेश को जारी किया था। हमारे देश में 1894 ई. में जब अंग्रेजी हुकूमत ने भूमि अधिग्रहण कानून बनाया, तो उसका मकसद भारतीय किसानों की जमीन का मनमाना इस्तेमाल करना ही था। इस कानून के जरिए अंग्रेजों ने भारत में बड़े पैमाने पर जमीन का अधिग्रहण किया। दरअसल यह कानून ईस्ट इंडिया कम्पनी के 1824 ई. वाले बंगाल के रेवेन्यू एक्ट का ही विस्तार था। 15 अगस्त 1947 ई. को अंग्रेजों ने अपने भारतीय दलालों के हाथों सत्ता का हस्तांतरण तो कर दिया लेकिन उनके विष्वस्त दलालों ने उनके ही कानून को यथासंभव बनाए रखा। इस बीच हमारे देश में 1894 ई. के कानून के तहत ही जमीन अधिग्रहण होता रहा, लेकिन नब्बे के दशक के पहले थोड़ी सी राहत ये थी कि अधिकांश अधिग्रहण सार्वजनिक क्षेत्रों के लिए ही किया गया लेकिन देश में आर्थिक उदारीकरण की नीति लागू होने के बाद बड़े पैमाने पर सरकार ने कारपोरेट के लिए जमीन अधिग्रहण करना शुरु किया। इसी के कारण ‘सेज’ के नाम पर हजारों एकड़ जमीन अधिग्रहित करके निजी कम्पनियों को सौंपा गया।
1894 ई. का कानून, जो जमीन के असली मालिक यानि किसान-आदिवासियों के पूर्णतः विरोधी था, ऐसे कानून को बदलने की मांग लम्बे समय से उठायी जा रही थी। उससे भी बड़ी बात ये थी कि ‘सेज’ के तहत भूमि अधिग्रहण को लेकर सिंगूर, नन्दीग्राम, लालगढ़, कलिंगनगर आदि जगहों पर उच्च स्तर का प्रतिरोध देखा गया था। छत्तीसगढ़ के कई इलाके में तो भूमि अधिग्रहण की कोशिश एक कदम भी आगे नहीं बढ़ पायी। आदिवासियों व किसानों का विष्वास इस व्यवस्था से पूरी तरह से खत्म ना हो जाए, इसीलिए एक ‘लॉलीपॉप’ की तरह 2013 में ‘‘उचित मुआवजा, भूमि अधिग्रहण में पारदर्षिता, पुनर्वास व पुनर्स्थापन के अधिकार अधिनियम’’ को भारतीय संसद में पारित किया गया। हां, इस अधिनियम में किसानों का थोड़ा सा हित जरूर दिखाई पड़ा था, लेकिन नववर्श की सौगात मोदी सरकार ने देषवासियों को भूमि अधिग्रहण अधिनियम, 2013 के साथ बलात्कार के जरिए दिया।
आर्थिक उदारीकरण केे वर्त्तमान दौर में कारपोरेट ने राज्य को बाध्य कर दिया है कि वह निजी कम्पनियों और इंटरनेषनल निगमों के लिए भूमि का अधिग्रहण करे। वे न केवल औद्योगिक उत्पाद परियोजना के लिए बल्कि रियल स्टेट, खनन क्षेत्र और सार्वजनिक निजी भागीदारी की विविध परियोजनाओं के लिए भी भूमि का अधिग्रहण चाहती है। यही कारण है कि राज्य सरकारें भूमि अधिग्रहण को बढ़ावा देने की खुली दौड़ में उतर पड़ी है। आज राज्य अपनी कल्याणकारी भूमिका छोड़कर निजी क्षेत्र के हित में काम करने वाला दलाल बन गया है। इसीलिए भूमि अधिग्रहण अध्यादेष के पक्ष में रोज-ब-रोज झूठी बातें फैलाकर जनता को गुमराह करने की कोषिष जारी है, लेकिन मोदी सरकार अपने तमाम कोषिषों के बावजूद भी अभी तक अध्यादेश को कानूनी षक्ल नहीं दे पायी है। कारण स्पश्ट है कि एक तरफ स्पश्ट बहुमत का अहंकार व अपने आका पूंजीपतियों ;जिन्होंने इनकी इस स्पश्ट बहुमत के लिए अपनी तिजोरी खोल दी थीद्ध को खुश करने के लिए एवं अपने पूर्वजों के तरह ही ‘एक ही बात को इतनी बार दोहराओ कि झूठ भी सच लगने लगे’ इस पंक्ति पर विष्वास के कारण मोदी सरकार इस अध्यादेष को कानूनी शक्ल देने से पीछे हटने को तैयार नहीं है, तो वहीं दूसरी ओर विपक्षी पार्टियां इस मुद्दे को आगे बढ़ाकर जनता के बीच अपने खोए विष्वास को फिर से हासिल करने के लिए अंतिम बाजी खेलने के लिए तैयार है।
राज्यसभा में बहुमत नहीं होने के कारण इस सत्र में अध्यादेश को दुबारा 3 अप्रेल को फिर से मोदी सरकार को जारी करना पड़ा है, क्योंकि नियम के अनुरूप अध्यादेश लाने के लिए संसद का कम से कम एक सदन का सत्रावसान में होना जरूरी है। नियमानुसार कोई भी अध्यादेश 6 महीने के लिए और संसद की कार्यवाही जारी रहने की स्थिति में; संबंधित बिल पारित ना होने की स्थिति में संसद सत्र शुरु होने से अगले 6 सप्ताह तक प्रभावी रहता है। इसी वजह से अध्यादेश 5 अप्रेल को समाप्त हो रहा था।
अध्यादेश करेगा झारखंड में आग में घी का काम
अध्यादेश की घोशषणा होते ही पूरे देश में इसकी खिलाफत होनी शुरु हो गई थी। भाजपा को छोड़ के तमाम राजनीतिक पार्टियों ने इस अध्यादेश का विरोध किया, यहां तक कि एनडीए में शामिल शिव सेना, अकाली दल व लोजपा ने भी अध्यादेश के कुछ बिन्दुओं पर सवाल उठाए। देश के विभिन्न जगहों पर काम कर रहे स्वतंत्र संगठनों के साथ-साथ कई एनजीओकर्मी भी अध्यादेश के खिलाफ एक मंच पर आए। मोदी को प्रधानमंत्री की कुर्सी तक पहुंचानेवाले अन्ना हजारे जैसे लोग भी इसकी खिलाफत में आगे आए। पूरे देश में आंदोलन अपने-अपने तरीके से आज भी चल रहा है। इन आंदोलनों को एक मंच से चलाने के प्रयास भी किए जा रहे हैं, लेकिन झारखंड में तो इस अध्यादेश ने जल-जंगल-जमीन को बचाने की लड़ाई लड़ रहे लोगों के दिल में जो असंतोश की आग सुलग रही थी, उसमें घी देने का ही काम किया है।
मोदी सरकार द्वारा भूमि अधिग्रहण अध्यादेश की घोषणा होते ही झारखंड के आंदोलनकारी, जो कि आंदोलन की धीमी गति से थोड़े से सुस्त हो गए थे, इस अध्यादेश को आंदोलन के लिए इंधन समझकर इसके खिलाफ उठ खड़े हुए। भूमि अधिग्रहण अध्यादेश के खिलाफ झारखंड के बुद्धिजीवियों, समाजकर्मियों, पत्रकारों व स्वतंत्र आंदोलनकारियों ने ‘‘भूमि अधिग्रहण विरोधी मोर्चा’’ का गठन किया तो वहीं दूसरी तरफ 2007 में ही गठित ‘‘विस्थापन विरोधी जन विकास आंदोलन’’ ने 20-21 जनवरी को वृहत रणनीति बनाने के लिए अपने दूसरे राज्य सम्मेलन की घोषणा की।
विस्थापन विरोधी जन विकास आंदोलन के झारखंड के संयोजक दामोदर तूरी बताते हैं कि ‘‘भूमि अधिग्रहण अध्यादेश की घोषणा के तुरंत बाद ही हमने पूरे झारखंड के आंदोलनकारियों की बैठक बुलायी और उसी बैठक में 20-21 जनवरी को रांची में राज्य सम्मेलन का निर्णय लिया गया व सम्मेलन के प्रचार के दौरान इस काले अध्यादेश की जन विरोधी बातों को पर्चा व पोस्टर के माध्यम से जनता के बीच ले जाया गया। सम्मेलन में झारखंड के विभिन्न जिले के 400 प्रतिनिधि शामिल हुए और देश के महत्वपूर्ण आंदोलनकारियों ने भी हिस्सा लिया। इस पूरे सम्मेलन में हमलोगों ने यही चर्चा की कि कैसे इस अध्यादेश के खिलाफ चल रही लड़ाई को झारखंड के जल-जंगल-जमीन को बचाने की लड़ाई से जोड़ा जाए। अंततः हमने फैसला लिया कि हम गांव स्तर पर जाकर सभा करेंगे, बैठक करेंगे और जनता को हर लड़ाई के लिए तैयार करने की कोशिश करेंगे।
सम्मेलन के बाद सभी प्रतिनिधियों के साथ मिलकर हमने अध्यादेश की प्रति को जलाया। 30 मार्च को हजारों की संख्या में हमने राजभवन मार्च किया। गांव में बैठकों का दौर जारी है। 7 मई को गुमला के पालकोट में हुई रैली व आमसभा में 5000 लोग शामिल हुए, यहां ‘‘वन प्राणी आश्रयणी’’ के नाम पर सरकार 83 मोजा की जमीन को अधिग्रहित करने की कोशिश कर रही है, लेकिन वहां की जनता की एकता के कारण अभी तक ये संभव नहीं हो पाया है।’’
हालांकि, भूमि अधिग्रहण अध्यादेश की घोषणा के बाद ही झारखंड में भाजपा को छोड़कर तमाम पार्टियों ने विरोध-प्रदर्षन शुरु कर दिया था, एक दैनिक अखबार की मानें तो जनवरी से लेकर अब तक तीन दिन के अंतराल पर किसी न किसी पार्टी का कहीं ना कहीं विरोध-प्रदर्षन हो रहा है। लेकिन भूमि अधिग्रहण अध्यादेश के सबसे पहले बड़ा कदम उठाया भाकपा (माओवादी) ने। माओवादियों ने 10 से 12 फरवरी तक तीन दिवसीय विरोध-प्रदर्षन का एलान झारखंड व बिहार में किया और इस विरोध-प्रदर्षन के अंतिम दिन यानि 12 फरवरी को बिहार-झारखंड बंद का एलान किया। उनके इस विरोध-प्रदर्षन को जबरदस्त जनसमर्थन मिला। इधर झारखंड की राजधानी रांची में तमाम आंदोलनकारी ताकतों को एक करने की कोशिश भी शुरु हो गई।
झारखंड के वरिष्ठ पत्रकार व समाजकर्मी फैसल अनुराग बताते हैं कि ‘16 मई 2014 के बाद देश में एक रेडिकल चेंज हुआ है, 16 मई के पहले की सरकार यानि कांग्रेस व भाजपा की आर्थिक नीतियों में कोई फर्क नहीं है, लेकिन उन नीतियों को लागू करने में दोनों सरकारों में गुणात्मक फर्क है। वर्त्तमान सरकार में तमाम क्षेत्रों में सरकार की आक्रामकता बढ़ी है, सारे पूंजीपति सरकार के पक्ष में गोलबंद है, किसी भी स्तर के विरोध के स्वर को निर्मम तरीके से दबाया जा रहा है, सांप्रदायिक ताकतें सभी जगह अपना पैठ बना रही है। ऐसे समय में समय की मांग है कि अमेरिकी साम्राज्यवाद व मोदी सरकार के संयुक्त हमले से टक्कर लेने के लिए हम सभी विपक्षी ताकतों को एक मंच पर लाएं। इसी सोच के साथ झारखंड में एक संयुक्त मोर्चा बनने की शुरुआत हुई, भूमि अधिग्रहण अध्यादेश के खिलाफ में। पहली बैठक में ही बहुत सारी पार्टियां आई और 4 मई को झारखंड बंद का एलान किया गया, जो कि आष्चर्यजनक रूप से सफल हुआ।
हम वैचारिक मतभेद रखते हुए भी इस सवाल पर एकजुट हुए हैं और जो पार्टियां इस मोर्चे में अब तक नहीं है, उन्हें भी शामिल करने की कोशिश की जा रही है।’’ आगे वे कहते हैं कि ‘‘एक बात साफ है कि झारखंड की जनता अब जमीन नहीं देगी, जमीन को बचाने की लड़ाई झारखंड में कोई नई बात नहीं है, अब जनता इतनी सचेत हो गई है कि वो जनता का महत्व समझने लगे हैं।’’ वे उदाहरण देकर बताते हैं कि ‘‘11 मई को रांची में ‘ग्रेटर रांची’ के नाम पर हो रहे जमीन अधिग्रहण के खिलाफ 7-8 हजार लोगों ने बिना किसी नेता के सड़क पर उतरकर प्रदर्षन किया और साफ शब्दों में जमीन देने से मना कर दिया। यहां तक कि जिन दलाल नेताओं ने मंच पर जाकर भाषण देना चाहा, उन्हें हूट करके भगा दिया गया।’’
बोकारो के स्वतंत्र पत्रकार विशद कुमार दूसरी तरफ हमारा ध्यान दिलाते हैं, वे कहते हैं कि ‘‘झारखंड में बहुफसली जमीन की मात्रा ऐसे ही कम है और सरकार अगर वो भी ले लेगी तो हम खाएंगे क्या ? बड़े-बड़े उद्योगों के लिए जमीन लेने के बजाए सरकार छोटे उद्योग क्यों नहीं खोलती ? पठारी क्षेत्रों को छोटे उद्योग के लिए क्यों नहीं उपयोग में लाया जाता है ? बात साफ है कि सरकार बड़े पूंजीपतियों की चाकरी कर रही है।’’ वे कहते हैं कि ‘‘अनाज के उत्पादन के सवाल पर कोई भी पार्टियां कुछ नहीं बोल रही है, यहो तक कि वामपंथी पार्टियां भी। लेकिन एक बात साफ है कि 1956 ई. में जब बोकारो में स्टील प्लांट के लिए जमीन का अधिग्रहण हुआ, तो किसी ने कुछ नहीं बोला, लेकिन अब स्थिति वैसी नहीं है, अब लोग लड़ेंगे, वे अपनी जमीन छीनने का तमाशा नहीं देखेंगे।’’
झारखंड में एक बात तो साफ है कि तिलकामांझी, बिरसा मुंडा, सिद्धू-कान्हू आदि जितने भी महानायक हुए हैं, उनकी लड़ाई का एजेंडा जमीन ही रहा है। झारखंड के लोग जल-जंगल-जमीन पर अपना हक नहीं छोड़ सकते क्योंकि ये लड़ाई उनके जीवन-मरण का है। लेकिन सबसे बड़ी बात ये है कि आखिर इस लड़ाई का नेतृत्व कौन करेगा ? क्या बिना नेतृत्व के लड़ाई लड़ी जा सकेगी ?
वरिष्ठ पत्रकार व समाजकर्मी फैसल अनुराग संयुक्त मोर्चे पर जोर देते हैं, वहीं विस्थापन विरोधी जन विकास आंदोलन के झारखंड संयोजक दामोदर तूरी कहते हैं कि ‘‘कल तक जिसने आदिवासियों की जमीन छीनी, अधिग्रहण के खिलाफ चल रहे आंदोलन पर लाठी-गोली बरसायी, ऐसे लोगों के साथ मिलकर लड़ाई कैसे लड़ी जा सकती है ? ये तो मौके के यार हैं, कल जैसे ही इनके हाथ में सत्ता आएगी, ये और भी तेजी से भूमि अधिग्रहण करेंगे।’’ वे बताते हैं कि ‘‘झारखंड में जो 104 एमओयू हुए थे, उसमें सबसे अधिक तो पहले मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी के शासनकसल में हुआ था और फिर जब अर्जुन मुंडा और झामुमो की संयुक्त सरकार बनी तब अधिग्रहण हुआ, तो फिर बाबूलाल और झामुमो कैसे लड़ेंगे भूमि अधिग्रहण के खिलाफ लड़ाई ?’’ वहीं बोकारो के स्वतंत्र पत्रकार विशद कुमार कहते हैं कि ‘‘संयुक्त मोर्चा सिर्फ एक राजनीतिक स्टंट है। एक दूसरे के खिलाफ हमेशा लड़ने वाली पार्टियां कभी ए मंच पर सच्चे दिल से नहीं आ सकती, ये सिर्फ जनता में भ्रम फैलाना है और वामपंथी तो अपने राजनीतिक जनाधार खत्म होने के डर से व आंदोलन में दिखने के लिए ही सिर्फ संयुक्त मोर्चे का राग अलापती है।’’
खैर, एक बात झारखंड के विभिन्न जिले का दौरा करने पर मैंने जो अनुभव किया, वह ये है कि आंदोलन किसी नेता का मोहताज नहीं है और झारखंड की जनता ने गद्दार नेताओं की एक पूरी फौज देखी है, इसलिए अब वो जल्दी किसी पर भी विष्वास नहीं कर पाती है। लेकिन उनका लड़ने का जज्बा अपने पूर्वजों से भी अधिक है। एक वाकया बताता हूं, मैं एक दिन एक गांव में कुछ लोगों से बात कर रहा था, तभी 15-16 वर्ष का एक लड़का मेरे पास आया और बोला ‘‘मेरे पास एक एकड़ जमीन है, एक छोटा सा घर है, 2 भाई और 2 बहन हैं, पापा-मम्मी इसी जमीन में मेहनत करके हमारा पालन-पोषण करते हैं और हमलोगों को पढ़ाते भी हैं। अगर सरकार हमें कल हमारी जमीन से हटने को बोलेगी तो क्या हम हट जाएंगे, कुछ पैसे लेकर ? हरगिज नहीं, हम ऐसा बोलने वालों की जान ले लेंगे, पर जमीन नहीं देंगे।’’
स्पष्टत: कहा जा सकता है कि झारखंड में ज्यों-ज्यों इस अध्यादेश के बारे में लोगों को पता चल रहा है, उनका झुकाव झारखंड में लम्बे समय से चली आ रही जल-जंगल-जमीन बचाने की लड़ाई के प्रति बढ़ रहा है। उन्हें लगने लगा है कि अब हमें मिलकर लड़ना ही होगा क्योंकि इस अध्यादेश का कानूनी शक्ल लेना सिर्फ आदिवासियों की ही नहीं बल्कि उनकी अपनी जिन्दगी भी तबाह हो जाएगी।