संघर्ष संवाद
Sangharsh Samvad

राजस्थान : रिफाइनरी के खिलाफ़ जन-प्रतिरोध और चुनावी फ़रेब



स्वतंत्र पत्रकार अभिषेक श्रीवास्तव ने बाड़मेर में रिफाइनरी परियोजना पर चल रही रस्साकशी का जायजा लेने के लिए पिछले दिनों राजस्थान का दौरा किया. ज़मीनी आंदोलन के उतार-चढ़ाव और सरकारी साजिशों की यह कहानी दूसरे कई आन्दोलनों में भी देखी जा सकती है. दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में चुनावों का लोगों की असल जिंदगियों और हितों से कैसा रिश्ता बनता है, ये सबकुछ अभिषेक की लम्बी रिपोर्ट में खुलकर सामने आता है जिसे हम संघर्ष संवाद के पाठकों के बीच तीन किस्तों में साझा कर रहे हैं. पेश है दूसरा भाग: 

बायतू में लोक कल्याण संस्थान नाम का एनजीओ चलाने वाले रिफाइनरी समर्थक समाजसेवी भंवरलाल चौधरी बताते हैं, ‘‘लीलाणा में कुछ लोग बीजेपी में ऊपर तक अच्छी पहुंच रखते हैं। उन लोगों ने किसानों को गुमराह किया कि एक करोड़ रुपया मुआवजा मांग लो। आठ-दस ग्राम पंचायतों के लोग बड़ी उम्मीद लगाकर बैठे थे कि रिफाइनरी आएगी तो विकास होगा, सब पर इन लोगों ने पानी फेर दिया।’’ वे बताते हैं कि बीजेपी से टिकट के उम्मीदवार मालाराम ने अपने लोगों को तंबू लगवाकर धरने पर बैठाया, उन्हें हाजिरी के बदले पैसे दिए, पीने के लिए डोडा दिया, गांवों से धरने में लोगों को लाने के लिए किराये पर गाड़ियां रख लीं। भंवरलाल बताते हैं, ‘‘यहां कांग्रेस में भी दो धड़े हैं। सोनाराम आदि चाहते थे कि रिफाइनरी यहीं लगे लेकिन दूसरे धड़े के अपने हित थे। उसे लगा कि सारा श्रेय कहीं सोनाराम को न मिल जाए। लोगों का हित किसी ने नहीं देखा।’’

इस रिफाइनरी को लेकर बायतू में तरह-तरह की बातें हो रही हैं। भंवरलाल की बात को ही लोग अपने-अपने तरीके से बताते हैं। लीलासर गांव के एक युवक हेताराम का कहना है कि जमीन अधिग्रहण आंदोलन के नेता रूपाराम के बेटे जोगराज को बिना किसी परीक्षा के सरकारी स्कूल में मास्टरी की नौकरी दे दी गई। उनके एक और रिश्तेदार को पुलिस में रखवा दिया गया। एक बात तकरीबन सभी के मुंह से सुनने को मिलती है कि राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत खुद नहीं चाहते थे कि रिफाइनरी बायतू में लगे। चूंकि जोधपुर उनका अपना चुनाव क्षेत्र है, इसलिए उन्होंने पचपदरा की सरकारी भूमि पर रिफाइनरी का शिलान्यास करवा दिया जो कि जोधपुर से करीब पड़ता है। एक लिहाज से पचपदरा इसलिए उपयुक्त जान पड़ता है क्योंकि वहां रिफाइनरी के लिए जमीन अधिग्रहण की जरूरत नहीं पड़ेगी क्योंकि सरकारी जमीन वहां पर्याप्त है जबकि बायतू में लोेगों से जमीन लेनी पड़ती। इस तरह सरकार के करोड़ों रुपये बच जाएंगे जो मुआवजे के तौर पर चले जाते। पिछले दस साल के दौरान बायतू के घटनाक्रम को हालांकि देखें तो लगता है कि मामला इतना सीधा भी नहीं है। 
भंवरलाल के मुताबिक दस हजार बीघा जमीन का अधिग्रहण देश में कहीं और हो रहा होता तो दस-बीस हजार परिवार विस्थापित हो जाते जबकि बायतू में सिर्फ 1000 परिवार प्रभावित हो रहे थे क्योंकि यहां आबादी का घनत्व कम है और पलायन की दर काफी ज्यादा है। दरअसल, रिफाइनरी का हल्ला मचने से पहले तक यहां छह-सात हजार रुपये प्रति बीघा जमीन का दाम था। रिफाइनरी के लिए बायतू का नाम तय होते ही हुआ ये कि जमीन की कीमत 15 से 20 लाख प्रति बीघा तक पहुंच गई और बड़े पैमाने पर जमीनों की खरीद-फरोख्त शुरू हुई। इस इलाके में तेल की खोज करने वाली कंपनी केयर्न और बाड़मेर में पावर प्लांट लगाने वाली जिंदल ने काफी जमीनें खरीदीं और भारी मुआवजा दिया। कई और छिटपुट कंपनियों ने भविष्य को देखते हुए जमीन के सौदे कर डाले और स्थानीय लोगों के पास अचानक काफी पैसा आ गया। इस पैसे से लोगों ने सबसे पहला काम यह किया कि स्कॉर्पियो और बोलेरो गाड़ियां खरीदीं और बाड़मेर शहर में कोठियां बनवा लीं। ऐसे कई मामले हुए कि राजस्थान में स्कॉर्पियो और बोलेरो नहीं मिली तो लोग एक लाख रुपया ज्यादा देकर पूर्वोत्तर से गाड़ियां खरीद लाए। एक ओर गरीब भूमिहीन लोग गुजरात में मजदूरी के लिए पलायन करने को मजबूर थे, तो दूसरी ओर जमींदारों ने शहर का रुख कर लिया। लोगों ने जमीन की बढ़ी कीमत से खूब पैसा बनाया, लेकिन विकास के बुनियादी पैमानों में गिरावट आई। यह जानना दुर्भाग्यपूर्ण है कि देश के 640 जिलों में सिर्फ दो जिले ऐसे थे जहां 2001 से 2011 के बीच दस साल के भीतर साक्षरता दर में गिरावट आई। उत्तरी बस्तर के कांकेर के अलावा दूसरा ऐसा जिला बाड़मेर है। यहां दस साल में पुरुष साक्षरता दर 0.44 फीसदी नीचे गिरी है और महिला साक्षरता दर में 2.42 फीसदी की गिरावट आई है। इससे ज्यादा चौंकाने वाला आंकड़ा यह है कि पिछले साल राजस्थान में सामूहिक बलात्कार के कुल 42 मामले दर्ज हुए जिनमें 22 अकेले बाड़मेर के खाते में हैं जबकि बाकी के 32 जिलों के खाते में 20 मामले हैं। 
जिंदल के पावर प्लांट, केयर्न के तेल के कुओं और देश की सबसे महंगी रिफाइनरी के आलोक में इन आंकड़ों को यदि यदि देखें तो ‘‘आम जनता’’ द्वारा शिलान्यास की कहानी शायद बेहतर समझ में आ सकती है। इसके बावजूद इस ‘‘जनता’’ का पक्ष समझना मुश्किल काम हो जाता है, जब स्थानीय युवक शिलान्यास पट्ट के पीछे की तस्वीर को कैमरे से हटाने का दबाव मुझ पर डालता है। हुआ यूं कि जब काले पट्ट को वे टिकाकर वापस ले जा रहे थे, तो उसके पीछे का हिस्सा मेरी तरफ था और उस पर भी सुनहरे अक्षरों में कुछ खुदा हुआ था, जो सूरज की रोशनी में पढ़ने में नहीं आ रहा था। मैंने जैसे ही कैमरे को जूम कर के उसकी तस्वीर उतारी ताकि पढ़ सकूं, युवक ने ठहर कर कहा, ‘‘नो सर, ये फोटो आपको डिलीट करनी होगी।’’ मैंने कारण पूछा, तो उसने कहा, ‘‘वो आपके काम की नहीं है, उसे हटा दीजिए।’’ उनके जाते ही मैंने तस्वीर को गौर से देखा। शिलान्यास पट्ट की दूसरी तरफ ठीक बीच में सीमा सुरक्षा बल का लोगो खुदा हुआ था, उसके ऊपर रगड़ कर मिटाए जाने के निशान थे और लोगो के नीचे जो लिखा था, उसमें तारीख गायब थीः 
का उद्घाटन
श्री बी.के. मेहता, उप महानिरीक्षक
सीमा सुरक्षा बल, बाड़मेर के कर कमलों द्वारा
… सितम्बर 2013 को संपन्न हुआ।

युवक ने लौट कर ताकीद की। मैंने भरोसा दिलाया कि तस्वीर मैंने हटा दी है। फिर मैंने पूछा कि उस पर क्या लिखा था। उसने कहा कि वो पहले का था जो मेरे काम का नहीं है। मैंने पूछा कि आपके इस शिलान्यास में क्या कोई नेता आया था, जैसे सोनाराम आदि। उसने हां में जवाब दिया। ऐसा लगा कि रिफाइनरी को लेकर कोई और पक्ष शायद जानने को अब नहीं बचा है, सो चलकर तेल के कुएं ही देख लिए जाएं। 

केयर्न कंपनी के तेल के कुएं यहां से 30 किलोमीटर दूर हैं। प्रस्तावित रिफाइनरी को यहीं से तेल मिलना है। हम उधर की ही ओर निकल पड़े। लीलाणा से केयर्न के मंगला औद्योगिक परिसर तक रास्ते में केयर्न के सीएसआर (कॉरपोरेट सोशल रिस्पॉन्सिबिलिटी) के कई बोर्ड दिखाई दिए। अधिकतर स्वास्थ्य केंद्र थे जो सुदूर गांवों में केयर्न ने खोले हुए थे। मुख्य औद्योगिक परिसर मंगला, जोधपुर-बाड़मेर राजमार्ग से दस किलोमीटर भीतर है। हाइवे के पास जहां मुख्य द्वार है, उसे जीरो प्वाइंट कहते हैं। यहां से दस किलोमीटर तक वीराने में चमचमाती पक्की सड़क हमें ऐसे शहर तक ले जाती है जिसके भीतर देश भर से रोजी-रोटी कमाने आई हजारों कामगारों की आबादी बिना बिजली-पानी के खटने को मजबूर है। तेल के कुओं से खनिज तेल निकल कर यहीं आता है। सिर्फ केयर्न के अपने मुट्ठी भर अभिजात्य कर्मचारियों के लिए उसकी निजी बिजली है, बाकी ठेके पर जितनी कंपनियां/एजेंसियां या लोग काम कर रहे हैं उन्हें बिजली मुहैया नहीं है। दिन के तीन बजे का वक्त है और करीब 500 के आसपास कर्मचारी बाहर खुले दो ढाबों में खा रहे हैं, टहल रहे हैं, चाय पी रहे हैं और धूप सेंक रहे हैं। उनके लिए भीतर कोई कैंटीन नहीं है। बाहर कम से कम सौ एक गाड़ियां खड़ी हैं। करीब दो दर्जन बसें होंगी और बाकी जीप-कैंटर और मिनिबस आदि। 
केयर्न के उच्च वेतन वाले अधिकारियों को छोड़ दें तो करीब 90 फीसदी कामगार आबादी यहां बाड़मेर शहर से काम करने रोज़ आती है। बाड़मेर यहां से कोई 40 किलोमीटर दूर पड़ता है। मेरी मुलाकात उत्तर प्रदेश के प्रतापगढ़ से यहां काम करने आए रविंदर यादव से अचानक होती है। उनके अवधी लहजे से एक परिचयात्मक रिश्ता बनता है और फिर नाम-गांव आदि का आदान-प्रदान होता है। वे केयर्न के स्टाफ नहीं हैं, हालांकि उसी परिसर में किसी दूसरी कंपनी के लिए ठेके पर काम कर रहे हैं। रोज़ बाड़मेर से आते हैं। सवेरे टिफिन बनाकर लाते हैं। एक कमरे में किराये पर तीन लोग रहते हैं। परिवार गांव पर ही है। छह महीने का अनुबंध है, जो आगे भी बढ़ सकता है। रोज़ खुद डीजल लेकर आते हैं ताकि जेनरेटर में डालकर काम कर सकें। कंपनी डीजल का पैसा नहीं देती है। ऐसे कर्मचारियों की तादाद यहां सबसे ज्यादा है। यादव बताते हैं, ‘‘केयर्न वाले तो कैंपस से बाहर भी नहीं आते। अपनी बड़ी-बड़ी कारों से आते हैं, दिन भर भीतर ही रहते हैं एसी में, शाम को निकल लेते हैं। सबको लाखों रुपया वेतन मिलता है। उन लोगों को क्या दिक्कत?’’ रविंदर को यहां आए हुए कुछ हफ्ते हो चुके हैं लेकिन अभी तक उनका गेट पास नहीं बना है। यहां उजाड़ रेगिस्तान में रहने-खाने की कोई गुंजाइश नहीं है, इसलिए बाड़मेर से आना मजबूरी है। वे बताते हैं कि इन तेल के कुओं से फिलहाल सारा तेल जामनगर में रिलायंस की रिफाइनरी को जा रहा है, जब तक यहां एचपीसीएल वाली रिफाइनरी नहीं बन जाती। हमने उन्हें बताया कि रिफाइनरी तो अब पचपदरा में लग रही है, यहां का तो मामला खत्म हो गया। वे मुस्कराते हुए कहते हैं, ‘‘लगे तब तो! यहां तो लोग कह रहे हैं कि रिफाइनरी लगेगी ही नहीं।’’ ‘‘ऐसा क्यों?’’ वे बोले, ‘‘देखिए, सबसे तेज एस्सार और रिलायंस की रिफाइनरी बनी, लेकिन उसे भी सात साल लग गया चालू होने में। मान लीजिए कि यहां भी इतना ही या उससे कम समय लगेगा बनने में, लेकिन उससे क्या फायदा होगा। कुएं में तेल तो छह साल का ही है।’’ 
भंवरलाल चौधरी केयर्न कंपनी के लोगों के साथ अपनी बातचीत का हवाला देते हुए रविंदर यादव की बात की पुष्टि करते हैं। उनके मुताबिक केयर्न के तेल के कुओं की क्षमता वास्तव में छह साल की ही है और सरकार का लक्ष्य 2018 तक बाड़मेर में रिफाइनरी को शुरू कर देना है। आज से पांच साल बाद अगर रिफाइनरी शुरू होगी भी तो उसे तेल का टोटा पड़ जाएगा और यहां कुओं के सूख जाने के बाद तेल कहां से आएगा, इस बारे में फिलहाल कोई योजना नहीं है। यह तो हुई तकनीकी बात। मान लिया कि शिलान्यास जब हो ही चुका है तो रिफाइनरी भी देर-सबेर लग ही जाएगी, लेकिन रिफाइनरी के पचपदरा में लगाए जाने पर भी कुछ गंभीर आपत्तियां हैं जिसे चौधरी गिनवाते हैं। मसलन, पचपदरा में जहां रिफाइनरी का शिलान्यास हुआ है वह इलाका पर्यावरणीय दृष्टि से अत्यंत संवेदनशील है। वहां नमक की झीलों पर साइबेरियाई सारस और अन्य प्रवासी पक्षी हर साल आते हैं। पूरा विशाल मैदान आसपास के गांवों की गायों के लिए गौचर का काम करता है। सबसे बड़ी आपत्ति यह है कि वहां विशाल नमक उद्योग अंगरेजों के जमाने से काम कर रहा है। यहां नमक की सरकारी खदानें हैं जो निजी कंपनियों को पट्टे पर दी हुई हैं। एक ज़माने में यहां से नमक बनकर विदेश जाता था, लेकिन अब यहां का उद्योग वैसे भी कमजोर पड़ चुका है। रिफाइनरी लगने से यह उद्योग पूरी तरह खत्म हो जाएगा। एक और अहम बात यह है कि पचपदरा का यह क्षेत्र लूणी नदी का बहाव क्षेत्र है। लूणी नदी आठ-दस साल में एक बार आती है और काफी तबाही मचाती है। इस डूब क्षेत्र में यदि रिफाइनरी खड़ी कर भी दी गई, तो उसके आसपास जो बसावट होगी वह बाढ़ का खतरा झेलने के लिए अभिशप्त होगी। भंवरलाल चौधरी कहते हैं, ‘‘बाढ़ आएगी तो वही बचेगा जिसके पास पैसा है। अभी तो वहां कोई रहता नहीं। बाढ़ आने पर सिर्फ रिफाइनरी दिखेगी, उसके आसपास पनपा जीवन खत्म हो जाएगा।’’
ये आपत्तियां कितनी वास्तविक हैं, यह हमें अगले दिन पचपदरा पहुंचकर ही समझ में आता है। बायतू से जोधपुर की ओर करीब 50 किलोमीटर आगे बालोतरा ब्लॉक शुरू होता है। रेत के अलावा इस इलाके की पहचान नमक वाली सफेद और सख्त ज़मीन है। बाड़मेर-जोधपुर हाइवे पर चलते हुए बाईं ओर रेत के खूबसूरत टीले पड़ते हैं और दाईं ओर लूणी नदी का बहाव क्षेत्र है जिस पर सफेद नमक जमी होती है। बारिश के मौसम को छोड़ दें तो नदी आम तौर से गायब ही रहती है। हाइवे लूणी नदी के ऊपर से होकर गुजरता है। दोनों तरफ विशाल धरती पर जमे नमक को देखकर समझ में आता है कि यहां नदी का पाट काफी चौड़ा है और जब कभी यह उफनाती होगी, काफी बड़ा इलाका इसकी डूब में आ जाता होगा। 

राजस्थानः चुनावी साजिशों की ‘रिफाइनरी’
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