किसान संकट : आसमानी विपदा और सरकारी बेरुखी
भारतीय किसान आसमानी विपदा और सरकारी बेरुखी का एक साथ शिकार बन गया है। मध्यभारत में लगातार तीसरा कृषि मौसम किसानों के लिए कहर बनकर बरपा है। वहीं दूसरी ओर केंद्र सरकार भूमि अधिकार कानून (संशोधन) विधेयक को पारित कराने और म.प्र. की सरकार कृषि साीलिंग कानून को छिन्न भिन्न करने में जुट गई है। चक्की के पाट में पिस रहे किसान को अब फाँसी का फंदा शायद अधिक आकर्षित कर रहा है। पेश है राजकुमार कुम्भज का सप्रेस से साभार यह आलेख;
मार्च में बेमौसम बारिश और ओलावृष्टि के कारण देश के उत्तर पश्चिम और मध्यभारत में मौसम के मिजाज में आए भारी बदलाव से एक बड़े इलाके में रबी की फसल को जबरदस्त नुकसान पहुँचा है। तैयार होती फसलों की बर्बादी देखकर भारत का किसान संकट में है एवं कुछ किसानों ने इस वजह से पैदा हुए अवसाद के कारण आत्महत्या भी की है। अनुमानतः कुल एक लाख छः हजार हेक्टयर भू-क्षेत्र में नुकसान हुआ है।
एक अनुमान के मुताबिक पूरे देश में बाइस हजार करोड़ रुपये की क्षति हुई है। संपूर्ण क्षति के बारे में पीड़ित राज्यों से अभी कंेद्र को समुचित आकलन नहीं मिला है। केंद्र के तीनों कृषि मंत्री प्रभावित राज्यों का दौरा कर रहे हैं। पूर्ववर्ती यू. पी.ए. शासनकाल मेें कृषि क्षति के आकलन और तुरंत राहत की घोषणा के लिए मंत्रियों का एक समूह हुआ करता था। नरेंद्र मोदी की सरकार ने ऐसे सभी समूहों को भंग कर दिया है। परंतु अब इस अप्रत्याशित नुकसान का आकलन करने के लिए वित्तमंत्री की अध्यक्षता में तुरंत ही मंत्रियों का एक समूह बनाया जाना चाहिए। वैसे भी पिछले कई सालों में ऐसा कृषि संकट नहीं देखा गया। समस्या गंभीर है अतएव समाधान भी गंभीर ही होना चाहिए। इस हेतु किसानों ऋण वसूली टाली जा सकती है, ऋण ब्याज माफ किया जा सकता है तथा कृषि बीमा का भुगतान शीघ्रता से कराने की कोशिश की जा सकती है। इससे किसान का अवसाद दूर करने में काफी सहायता मिल सकती है। दिक्कत ये है कि सरकार ओलावृष्टि को तो प्राकृतिक आपदा मानती है मगर इस तरह की असमय बारिश को इस श्रेणी में नहीं रखती। ऐसे में किसानों की यह मांग उचित ही है कि ओलावृष्टि के साथ ही बेमौसम बारिश को भी प्राकृतिक आपदा माना जाए और सरकार द्वारा इस संबंध में तुरंत संशोधन किया जाना चाहिए जिससे किसानों को सुरक्षित किया जा सके।
जब भी किसानों को मुआवजा देने का सवाल आता है तो राज्य सरकारें केंद्र सरकार से विŸाीय सहायता की मांग करने लगती हैैं। कई मर्तबा राज्यों की अपेक्षित मांग किसी हद तक पूरी भी हो ही जाता है। किंतु बेमौसम बारिश को भी प्राकृतिक आपदा की श्रेणी में रख लिए जाने की प्राथमिकता प्रायः भुला दी जाती है। क्या सरकारें राहत कार्यों का दबाव बढ़ जाने से घबड़ा रही हैं? क्या इस व्यवहार को किसानों के प्रति सरकार की असंवेदनशीलता नहीं कहा जाना चाहिए? किसान अन्नदाता है तो क्या सरकार राहतदाता नहीं हो सकती? फसल बर्बादी का सकल आकलन अभी उपलब्ध नहीं हुआ है तो ऐसे में क्या किसानों को कोई आर्थिक राहत नहीं दी जा सकती या मौसम आधारित फसल बीमा योजना क्यों नही प्रारंभ की जा सकती ? इस देश में आज स्थिति ये है कि किसान ही सबसे अधिक असुरक्षित है।
गौरतलब है कि सन्1979 में पहली बार फसल बीमा योजना की शुरुआत प्रायोगिक तौर हुई थी। यह योजना पांच बरस तक चलाई गई फिर सन्1985 में व्यापक फसल बीमा योजना अवतरित हुई जिससे किसानों के जीवन में कोई खास परिवर्तन नहीं हुआ। कुल मिलाकर यह योजना अव्यावहारिक है एवं क्षतिपूर्ति के दावों की स्वीकृति के लिए इसमें ऐसी-ऐसी शर्तें थोपी जाती हैं कि बीमाधारक किसान बेकार के चक्कर काट-काट कर थक व हार जाता है। अतः यह योजना असफल हो गई। एक अन्य कारण ये भी हो सकता है कि एक अरसे से खेती घाटे का व्यवसाय होता जा रहा है और साधारण किसान के लिए प्रीमियम चुका पाना तक संभव नहीं हो पाता है।
अमेरिका में फसल बीमा किश्त का दो तिहाई सरकार चुकाती है। भारत में सरकारें चाहें तो फसल बीमा किश्त का अधिक हिस्सा अदाकंर किसानों को मजबूत सुरक्षा प्रदान कर सकती हैं। यह सब सरकारों की इच्छाशक्ति और संकल्प शक्ति पर निर्भर करता है। उम्मीद है कि हमारी सरकार किसानों की सुरक्षा के लिए कुछ ठोस कदम उठाएगी एवं उसे मौसम की प्रतिकूलताओं से पार पाने के लिए ठोस प्रबंध करना होगा।
कृषि-विकास और आपदा प्रबंधन का बजट भी बढ़ाना जरूरी है। फसल बीमा योजनाओं के बारे में चर्चाएं तो अकसर होती रही हैं किंतु इन योजनाओं का सार्थक विस्तार और किसानों को मिलने वाली राहत का विस्तार तभी संभव हो सकता है जबकि इस सबके लिए पर्याप्त आर्थिक संसाधन की उपलब्धता हो नई। साथ ही साथ अप्रत्याशित आपदाओं को समझने के लिए व्यापक व विस्तृत अनुसंधान की भी आवश्यकता है। जैवविविधता और बीज विविधता के संदर्भ में हमारे परंपरागत ज्ञान से ऐसी कई फसलों की और उसकी किस्मों की जानकारी उपलब्ध हो सकती है जो किसी भी मौसम की प्रतिकूलताओं को सहने में अधिक सक्षम होती हों।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी किसानों के जख्मों पर मरहम लगाने वाले बयान तो निरंतर दे रहे हैं, लेकिन क्या अवसादग्रस्त किसानों के लिए सिर्फ जुबानी मरहम पर्याप्त हो सकता है? आज आवश्यकता ठोस पहल की है।
देश की कृषि पर इतनी बड़ी आबादी निर्भर करती है कि किसी भी अनहोनी के वक्त पर्याप्त राहत दे पाना सिर्फ सरकारों के बूते की बात नहीं है। अब जबकि बीमा क्षेत्र में विदेशी निवेश का वायदा निभाया जा चुका है तो ऐसे में सरकारें बीमा कंपनियों पर किसानों के हितार्थ दबाव बना सकती हैं। बेमौसम बारिश और ओलावृष्टि से सिर्फ किसान ही परेशान नहीं होता है इस सबका दुष्प्रभाव उपभोक्ताओं पर भी आता ही है। बाजार में सीधे-सीधे महंगाई बढ़ेगी वैसे भी बेकाबू महंगाई से जनता परेशान है। महंगाई का विस्तार होने पर भविष्य की आर्थिक योजनाओं पर भी बुरा असर पडे़गा। अच्छे दिन आने से पहले ही हवा-हवाई हो सकते हैं। उद्योगों और आधारभूत ढांचे के विस्तार को ही फिलहाल विकास का पर्याय मान लिया गया है। किंतु विकास का यह एक एकाकी पक्ष है। विकास का विस्तृत अर्थ बेहतर कृषि और बेहतर खाद्यसुरक्षा भी होता है। मौसम की प्रतिकूलता के कारण जब पैदावार चौपट हो जाती है तब तो किसान मुसीबत झेलता ही है किंतु अच्छी पैदावार होने पर वाजिब दाम नहीं मिलने पर भी हमारा किसान ठगा सा रह जाता है।
जलवायु परिवर्तन के इस दौर में मौसम का असामान्य हो जाना एक सामान्य समस्या बनती जा रही है। ऐसे में यह कैसे संभव हो सकता है कि देश के कृषि क्षेत्र को ऊपर वाले के भरोसे छोड़ दिया जाए? आपदाओं से घिरे कृषि क्षेत्र में आमूलचूल परिवर्तन किया जाना जरुरी है।