संघर्ष संवाद
Sangharsh Samvad

प्राकृतिक संपदा पर परंपरागत रूप में आश्रित समुदायों के अधिकारों की रक्षा के लिए ‘‘साझे हमलों के खिलाफ साझी पहल’’ का निर्णय

16 दिसंबर 2011 को मावलंकर हाल नयी दिल्ली में ‘प्राकृतिक संपदा पर अपनी आजीविका के लिए आश्रित परंपरागत समुदायों के संघर्षों के प्रतिनिधियों का एक राष्ट्रीय सम्मेलन आयोजित करके राष्ट्रीय स्तर पर संघर्ष के एक ‘साझे मंच’ के निर्माण का निर्णय करते हुए इसका गठन किया गया।
 
वास्तव में इस तरह के मंच के निर्माण की जरूरत काफी पहले से महसूस की जा रही थी। राज्य,  कारपोरेट तथा माफिया के साझे हमलों का सामना करने और प्राकृतिक संपदा और इस पर आश्रित समुदायों के अधिकारों के लिए चल रहे संघर्षों को एक मंच पर लाकर ‘साझे हमलों के खिलाफ साझी’ पहल पर लगातार विचार-विमर्श चल रहा था। इस संदर्भ में जून 2011 में हिमाचल प्रदेश के बंजार में इस तरह के संघर्षों के प्रतिनिधियों की एक साझी बैठक करके 15 दिसंबर 2011 को संसद के समक्ष प्रदर्शन करने एवं उसके अगले दिन राष्ट्रीय स्तर का सम्मेलन करके एक साझा मंच बनाने का निर्णय लिया गया था। इसी समय की बहस में यह सहमति बनी थी कि वन अधिकार कानून का क्रियान्वयन बुनियादी तौर पर मौजूद आर्थिक-राजनैतिक-सामाजिक व्यवस्था के बदलने के व्यापक आंदोलन का हिस्सा है, अर्थात् वनाधिकार कानून के क्रियान्वयन का आंदोलन वन पर आजीविका हेतु प्रत्यक्ष रूप से निर्भर लोगों के लिए ही नहीं, बल्कि अन्य लोगों के लिए भी महत्वपूर्ण हैं- जो कि अपरेाक्ष रूप से वनों से जुड़े हैं।
इसी बुनियादी समझ पर सम्मेलन में एक सहमति बनी और वकतओं ने इस सम्मेलन में इसी आशय के मंतव्य व्यक्त किये- टी. पीटर (नेशनल सेक्रेटरी, नेशनल फिश वर्कर्स फोरम) ने स्पष्ट राय रखी कि ‘समुद्र में मछलियां नहीं रह जायेंगीं यदि बरसात न हो और नदियां इसमें पानी न पहुंचायें और इसका अस्तित्व पहाड़ों और वनों पर आश्रित  है। इसीलिए मछुआरे अपने अस्तित्व की रक्षा तब तक नहीं कर सकते जब तक कि वे वन वासियों, बुनकरों, महिला वेंडर्स तथा बाँस श्रमिकों के साथ संघर्ष करने के लिए साथ-साथ आगे नहीं आते’। वरिष्ठ आंदोलनकारी अशोक चौधरी ने कहा कि समुद्र, वन एवं पहाड़ों के इर्द-गिर्द रहने वाले लोगों का साथ आना केवल इसलिए नहीं हो रहा है कि उन्हें कुछ हक मात्र मिल जाय, वास्तव में यह पहल ‘एक नयी’ दुनिया बनाने की छटपटाहट से उपजी जरूरत है।
इस सम्मेलन में 18 राज्यों से आदिवासी, दलित एवं परंपरागत श्रमिकों ने बढ़-चढ़ कर हिस्सेदारी की। सम्मेलन में जिन लोगों ने अपने विचार व्यक्त किये उनमें प्रमुख रूप से टी. पीटर, अशोक चौधरी, जाजरम एटे (वीमेन्स कमीशन-अरूणांचल), सुभाष गायली (झारखंड माइंस एरिया कमेटी), गुमान सिंह (हिम नीति अभियान- हिमाचल प्रदेश), गौतम बन्दोपाध्याय (नदी घाटी मोर्चा, छत्तीसगढ़), असीम रॉय (एन.टी.यू.आई.), अनुराधा तलवार (पश्चिम बंग खेत मजदूर समिति), वसंत (एन.ए.ए.), मुन्नीलाल (नेशनल फोरम आफ फोरेस्ट पीपुल एण्ड फारेस्ट वर्कर्स), शांता भट्टाचार्यजी (वन श्रमजीवी मंच, उ. प्र.) शामिल थे।
इस राष्ट्रीय सम्मेलन को ऐतिहासिक बताते हुए रोमा एंव विजयन ने कहा कि इस सम्मेलन में विभिन्न क्षेत्रों, संघर्षों की साझी उपस्थिति एक महत्वपूर्ण उपलब्धि है। वन अधिकार संघर्षों, फिश वर्कर्स के फोरम, झारखण्ड के खनन विरोधी संघर्ष, केरल-उ.प्र. एवं आंध्र प्रदेश के भूमि संघर्षों, दक्षिण एवं उत्तर भारत के दलित आंदोलनों की भागीदारी निश्चित तौर पर साझी पहल के लिए एक मजबूत आधार उपलब्ध करायेगी। यह विकसित किया गया साझा मंच अनुभवों के आपसी आदान-प्रदान, राजनीति-संघर्षों-रणनीतियों को समझने और गठबंधनों को और सशक्त करने में अपनी भूमिका अदा करेगा।
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