कैसा राज्योत्सव, किसका राज्योत्सव
चलव-चलव गा भाई, जागव लड़ाई मा जाबो
नवा भारत बर नवां छत्तीसगढ़ अब लड़के बनावो
विधानसभा मा देखव लुटैया बैठे हावय
संसद भवन मा देखव लुटैया बैठे हावय
मंत्रालय मा घला उही लुटैया बैठे हावय
इखर मन के लुट खसोट ला कतेक कतेक दीन ले साहत रहिबो
व्यवस्था आज के गा पूंजीपती के हावय
खुन पसीना हमर मजा ओमन उड़ावय
पूंजीपती के कुकुर दुध पीथे गद्दा मा सोथे
कमैया मजदूर किसान भुखे खोर्रा मा सोथे
कतेक दिन ले मीठा जहर इंखर मन के पीयत जाबो
सत्ता वाले ला देखव हमला दबावत हे
अमरीका वाला के ईमन गोड़ दबावत हे
एशियन अऊ विश्व बैंक ले कर्जा ला लावत हावे
इखरे इसारा मा सरकार चलत हावे
मंहगाई और छंटनी के निती अपनावत हे
ठेकेदारी के निती भारी चलावत हे
डाक्टरकर्मी, शिक्षाकर्मी अऊ जादा अब झन सहो
पानी हमर हे माई, जंगल हमर हे भाई
जमीन हमर हे भाई, खनिज हमर हे भाई
तभो ले पसीया खातिर भटकथे बहिनी भाई
बस्तर मा फौज के गा चलत हावे गुंडई
पुलिस मा भर्ती है, बांकी में नई हे भर्ती
जंजीर ला टोरो बेटा, कहीके रोवत हे धरती
सहि-सहि के कमैया मन कतेक दीन ले जान गवाबो
अवैया पीढ़ी के भविष्य अंधियार हावय
न्यायालय के न्याय देवैया पूंजी के यार हावय
महिला बहिनी के इज्जत के नैइये ठिकाना भाई
जघा-जघा मा देखव चलथे खुब लड़ाई
सत्ता वाले ला देखव जालिम हत्यारा हे
हिंदु मुस्लिम मा एमन कर दीन बंटवारा हे
राम रहीम के झगरा हमन कतेक दीन ले मरत जाबो
मागे मा मिलय नहीं, लड़े ला परही भइया
जागव मजदूर जागव, जागव किसान भइया
पढ़हइया लड़का जागव, जागव जवान जागव
लड़ के भइया छत्तीसगढ़ मा मजदूर किसान राज लाबो
जनता ला एमन कहीथे कंकाल कस खड़े राहव
जनता ला एमन कहीथे मुर्दा कस पड़े राहव हाले डोले मा कहीथे जिंदा हे गोली दागव
अइसन लहू पियैया मन के व्यवस्था ला चलो दबावो
बेशक़, सरकार के लिए यह राहत की बात है कि ऐन वक़्त पर नयी राजधानी के 27 गांवों के किसानों ने अपना सम्मेलन 3 नवंबर तक के लिए टाल दिया है। सरकार ने उनसे पुनर्वास पैकेज पर विचार करने के लिए तीन दिन का समय मांगा था। किसानों के बीच फूट डालने की कोशिशें तो पहले से ही जारी थीं और आंदोलन दोफाड़ होने की स्थित में पहुंचने लगा था। एकता बनाये रखने के लिए किसानों के बड़े हिस्से को तीन दिन की मोहलत देने की पेशकश को स्वीकारने के सिवा कोई चारा नहीं बचा। वैसे, तब तक दुनिया भर के निवेशकों का सम्मेलन ख़त्म हो चुका होगा। सरकार की सबसे बड़ी चिंता यह सुनिश्चित करने की थी कि निवेशकों के दो दिन के जमावड़े के दौरान ‘विश्वसनीय छत्तीसगढ़’ के जुमले पर कोई आंच न आये और निवेशक पूरी तरह निश्चिंत होकर निवेश करने का मन बनायें। इस मायने में सरकार जीती और किसान हार गये।
इधर राज्योत्सव का धूमधड़ाका होगा और उधर इस फ़िज़ूलख़र्ची पर बहस गरमायेगी कि सवा तीन सौ करोड़ से अधिक रूपयों की बरबादी क्यों और किसके लिए? हर जिले में शिक्षाकर्मी अपने असंतोष का इज़हार मौन जुलूस निकाल कर और सरकार का पुतला फूंक कर करेंगे। उनके आंदोलन को बस दो दिन पहले एक साल पूरे हो चुके हैं और जो अलग राज्य बनने के बाद छत्तीसगढ़ में सरकारी मुलाज़िमों का अब तक का सबसे लंबा आंदोलन है। इससे पता चलता है कि ग़रीब बच्चों की शिक्षा को लेकर सरकार कितनी उदासीन है और क्यों कुकुरमुत्ते की तरह उग रहीं शिक्षा की दुकानों पर वह इतना मेहरबान रहती है।
छत्तीसगढ़ में बच्चों और महिलाओं की सेहत को लेकर ग़ैर सरकारी पहल पर और सरकार के साथ तालमेल बनाते हुए मितानिन परियोजना के नाम से अनूठा प्रयोग हुआ। इसने बेमिसाल कामयाबी हासिल की। परियोजना ने क्यूबा और वेनेजुएला में हुए प्रयोग की तर्ज़ पर मितानिन के रूप में हर गांव को सामुदायिक स्वास्थ्य कार्यकर्ता देने का अभूतपूर्व काम किया। तो मितानिन भी राज्योत्सव के विरोध के मैदान में होंगी जो आज सूबे के हर गांव की ख़ास पहचान के बतौर जानी-जाती हैं। याद रहे कि इस परियोजना को आकार देनेवालों में डा. बिनायक सेन भी शामिल थे लेकिन जिन्हें बाद में छत्तीसगढ़ की सुरक्षा के लिए ख़तरा बता कर जेल में ठूंस दिया गया था। स्वास्थ्य के क्षेत्र में दी गयी भलमनसाहत भरे उनके योगदान का भी ख़याल नहीं किया गया।
बताते चलें कि शिक्षाकर्मियों और मितानिनों की पहली और सबसे बड़ी मांग है कि उन्हें न्यूनतम मज़दूरी के बराबर मानदेय मिले।
सरकारी डुगडुगी है कि न्यूनतम बेरोजगारी दर के मामले में गुजरात के बाद छत्तीसगढ़ का दूसरा स्थान है हालांकि समझदार जानते हैं कि यह डुगडुगी कितनी झुठ्ठी है। इसलिए कि सूबे में 14 लाख से अधिक की तो केवल पंजीकृत बेरोजगारों का फ़ौज़ है। राष्ट्रीय अपराध अनुसंधान ब्यूरो के मुताबिक़ यहां रोज़ाना दो बेरोजगार भविष्य के अंधेरे से घबरा कर ख़ुद्कुशी की कोशिश करते हैं। पिछले साल यहां सवा छह सौ से अधिक बेरोजगारों ने अपनी ज़िंदगी को मौत के हवाले किया और इस मामले में सूबे को चौथा स्थान दिलाया। हर साल 40 से 50 हज़ार लोग काम की तलाश में उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, पंजाब आदि प्रदेशों का रूख़ करते हैं। लेकिन केंद्रीय श्रम ब्यूरो का सर्वे छत्तीसगढ़ को न्यूनतम बेरोजगारी दर की श्रेणी में जगह दे चुका है। समझदार जानते हैं कि सर्वे इस तरह भी किये जाते रहे हैं या उसमें छेड़छाड़ की जाती रही है कि उसके मन मुताबिक़ तयशुदा नतीज़े ही निकलें।
किसान आत्महत्याओं का सवाल भी इसी तरह भाप की तरह उड़ा दिया गया। कमाल हो गया कि पिछले साल सूबे में किसी किसान ने आत्महत्या नहीं की और इस आधार पर भरोसे से कहा जा सकता है कि इस साल की भी यही ख़ुशख़बरी होगी। लेकिन मूरख भी समझ सकता है कि ज़रूर दाल में कुछ काला है। राष्ट्रीय अपराध अनुसंधान ब्यूरो के आंकड़ों के मुताबिक़ किसान आत्महत्याओं से सर्वाधिक प्रभावित पांच राज्यों में छत्तीसगढ़ भी शामिल रहा है। बाक़ी चार राज्य हैं- महाराष्ट्र, कर्नाटक, आंघ्र प्रदेश और मध्य प्रदेश। तनिक सोचिए ज़रा कि जिस सूबे में 2006 से 2010 तक कुल 7777 (2010 में 1126 की संख्या में) किसानों ने भूख और लाचारी के सामने अपनी ज़िंदगी पर विराम लगाया हो, वहां यह आंकड़ा 2011 में अचानक ‘शून्य’ कैसे हो गया। यह आंकडों के साथ किये गये खेल का नतीज़ा था।
सच यह है कि इन मामलों में हो रही थूथू से बचने के लिए पांचों राज्यों में किसान आत्महत्याओं की संख्या के साथ छेड़छाड़ किये जाने की शुरूआत हुई लेकिन दाद देनी होगी कि रमन सरकार ने इस दौड़ में बाजी मार ली। तय है कि पुलिस को किसान आत्महत्याओं को बीमारी, पारिवारिक कलह आदि के चलते की जानेवाली आत्महत्याओं के ख़ाने में डाले जाने की ताक़ीद कर दी गयी थी। बांस ही नहीं रहेगा तो बांसुरी कैसे बजेगी? ‘शून्य’ आत्महत्याओं का रिकार्ड इसी तिकड़म से बनाया गया। आख़िर राष्ट्रीय अपराध अनुसंधान ब्यूरो तो सूबों से आनेवाले आंकडों पर ही निर्भर होता है और जिसकी विश्वसनीयता को जांचने-परखने का अधिकार उसे हासिल नहीं है।
लेकिन काग़ज़ों पर दर्ज़ भर हो जाने से सच को झुठलाया नहीं जा सकता। सब जानते हैं कि राज्य सरकार किस क़दर कंपनीपरस्त है, और किस तरह आंख मूंद कर उद्योग-धंधों को दावत दे रही है। उसे जनता के भले की परवाह नहीं। उद्योग-धंधे हवा में नहीं, ज़मीन पर लगते हैं। इसलिए रमन सरकार ने अपनी ताक़त का बेजा इस्तेमाल कर आदिवासियों, दलितों और दूसरे ग़रीब किसानों से ज़मीन हथिया कर कंपनियों को सौंपने का भी रिकार्ड बनाया है। माओवाद नाम का हव्वा इसीलिए है कि जो हमसे टकरायेगा, बच के कहां जा पायेगा, चूर-चूर हो जायेगा।
सूबे की बड़ी आबादी खेती पर निर्भर है और खेतिहर ज़मीनों पर ही गिद्ध निगाहें हैं। ज़ाहिर है कि खेती पर निर्भरता घटती है तो इसका असर खेती से जुड़े पूरक कामों में लगे लोगों पर भी पड़ता है। आजीविका का साधन छिनता है। बची-खुची कसर बीज और खाद कंपनियां पूरा कर देती हैं। मिसाल के तौर पर अभी तीन दिन पहले कवर्धा में प्रामाणिक बीजों के अप्रामाणिक हो जाने की ख़बर उजागर हुई। धान में बालियां ही नहीं निकलीं और अगर निकलीं भी तो रोगग्रस्त हो गयीं। इन बीजों की ‘ख़ासियत’ है कि रोग से घिरीं तो उनका इलाज नहीं किया जा सकता। ख़बर यह भी है कि जिले में नौ हज़ार कुंतल धान के बीज बांटे गये थे। कल्पना की जा सकती है कि यह मंज़र देख कर किसानों पर क्या गुज़र रही होगी। सच यह भी है कि ज़्यादतर किसान क़र्ज़ के बोझ से दबे हुए हैं और राहत की किसी किरन का कोई अता-पता नहीं।
ऐसे में जबकि सूबे में खेती की ज़मीन लगातार घट रही है, यह चौंकानेवाली बात है कि छत्तीसगढ़ की सरकार ने धान के उत्पादन के लक्ष्य में लगातार बढ़त की है। यहां तक कि पिछले साल धान के रिकार्ड उत्पादन (60 लाख टन) के लिए केंद्र सरकार से पुरस्कार भी झटक चुकी है गोया धान का कटोरा धान से लबालब भरा हुआ हो। इस साल का लक्ष्य बढ़ा कर 68.55 लाख टन कर दिया गया है। कहां से आयेगा यह धान? पिछली बार आरोप लगा था कि बिचौलियों के ज़रिये दूसरे सूबों से धान ख़रीद कर लक्ष्य पूरा किया गया। तो इस बार भी यह तरीक़ा आज़मा कर वाहवाही लूटी जायेगी। वैसे, धान की ख़रीद में बिचौलियों की सक्रियता को ख़ुद मुख्यमंत्री भी क़बूल कर चुके हैं। जो बात जग जाहिर हो जाये और सबकी ज़ुबान पर चढ़ जाये उसे हल्का किया जा सकता है, ख़ारिज नहीं किया जा सकता।
लेकिन तसवीर का दूसरा पहलू यह है कि राज्य में कुपोषण का ग्राफ़ लगातार ऊंचा हुआ है हालांकि सरकार इसमें गिरावट का दावा पेश करती रही है और उस पर यक़ीन न करनेवालों की तादात भी कोई कम नहीं है। अनुमान है कि बस्तर में कुपोषण की दर कोई 65 प्रतिशत है और जहां सरकार की सरपरस्ती में मुनाफ़े के लुटेरे जल-जंगल-ज़मीन पर अपना क़ब्ज़ा जमाने की फ़िराक़ में हैं। इसी साल अंबिकापुर जिले में अब तक 158 बच्चे कुपोषण की भेंट चढ़ चुके हैं। बाल विकास योजनाओं के घिसट-घिसट कर चलने और आंगनवाड़ी केंद्रों में पोषक आहार न पहुंचने की शिकायत आम हैं। आम लोगों को पता ही नहीं कि राज्य सरकार ने कुपोषण से जूझने के लिए ‘नवा जतन’ नाम की कोई योजना भी शुरू की है।
इसी कड़ी में गुज़री 7 अक्टूबर के वाक़ये का ज़िक्र मुनासिब होगा। उस दिन डा. रमन सिंह रायपुर स्थित इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय में लगे राष्टीय कृषि मेले में पहुंचे थे। वे खेती के मामले में राज्य सरकार की ताली बटोरू मंशा का बखान कर रहे थे कि अनवर हुसैन नाम के नौजवान ने उन्हें टोकते हुए सरकारी दावे को कटघरे में खड़ा कर दिया। उसका कहना था कि 2010 के मुक़ाबले 2011 में धान के उत्पादन में अविश्वसनीय उछाल कैसे आ गया। उसका सीधा सा सवाल था कि एक साल में इतनी बढ़त कैसे मुमकिन हो सकती है।
यह सवाल मुख्यमंत्री जी को नागवार गुज़रा। जवाब देने के बजाय उन्होंने झल्ला कर कहा कि यह पी कर आया है, इसे बाहर करो। हुक़्म की तामील हुई। उसे घसीट कर कार्यक्रम स्थल से बाहर लाया गया और उस पर लात-घूंसे-झापड़ की बरसात की गयी। यह सवाल पूछने की सज़ा थी। अगर सूबे का मुखिया किसी जायज़ सवाल पर इतना उखड़ सकता है तो अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि दूरदराज़ के इलाक़ों में सूचना के अधिकार का क्या आलम होगा।
बहरहाल, छत्तीसगढ़ के जन कलाकार कलादास डेहरिया की इन पंक्तियों से इस रिपोर्ट का समापन करना सही होगा कि-
गोरा अंग्रेज़ भागीन है तब
करिया अंग्रेज़ आगे
छत्तीसगढ़ भुइयां धान कटोरा
लूट-लूट के खागे