सम्पादकीय, जुलाई 2011
हम खुश किस्मत हैं कि हमारे माननीय सर्वोच्च न्यायालय को समय-समय पर याद आ जाता है कि असंवैधानिक क्या है? आजादी के इतने सालों बाद याद आया कि खाप पंचायतों के फतवे नाजायज हैं, छत्तीसगढ़ में एस.पी.ओ. की भरती गैरकानूनी है, देशद्रोह क्या नहीं है, सार्वजनिक हित के लिए अधिग्रहीत की गयी भूमि किसी अन्य लाभार्थी को नहीं दी जा सकती तथा सामूहिक संपदा का रूपांतरण गैरकानूनी है। हम आशा कर सकते हैं कि वन क्षेत्र की निर्धारित न्यूनतम सीमा की ही तरह कृषि भूमि क्षेत्र की भी न्यूनतम सीमा निर्धारित करने की तरफ भी माननीय न्यायालय का ध्यान जाये और प्राकृतिक धरोहरों की खरीद-फरोख्त-नीलामी तथा मुनाफे के लिए इसके इस्तेमाल तथा शिवनाथ जैसी नदियों की बिक्री जैसे गंभीर मसले भी उनके ‘स्वयं के संज्ञान’ में आयें।
‘गैरकानूनी’ और ‘भ्रष्टाचार’ को समानार्थक मान बैठने की समझ का यह प्रतिफलन है कि कानून के दायरे में रहकर काम करने वाले प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह को ईमानदार कहा जा रहा है तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए। भूमि-अधिग्रहण, हिंसा पर उतारू भीड़ पर गोली चालन, सांसदों-विधायकों द्वारा स्वयं अपना मानदेय एक दर्जन से भी ज्यादा बार बढ़ा लेना, मजदूर एवं सी.ई.ओ. के वेतन में 4444 गुना का फर्क, दुनिया के सबसे लोकतंत्र के महामहिम राष्ट्रपति का कई सौ कमरों वाले महल में निवास आदि भारतीय विधि-विधानों के मुताबिक विधिसम्मत हैं और विधि सम्मत क्रियाकलाप भ्रष्टाचार की परिधि से परे हैं? ज्यादा से ज्यादा मुनाफा कमाना और अपने मुनाफे को कहीं भी ले जाना यदि विधिसम्मत है तो स्विस बैंक जैसे बैंकों में काले धन रखने को कौन रोक सकता है? यदि ठेकेदारी, कमीशन एजेंसी, लायजनिंग खर्चे विधिसम्मत हैं तो कमीशनबाजी-घूसखोरी कौन रोक सकता है?
आज बड़े जोर-शोर से नये-नये कानूनों की बातें की जा रही हैं। इनका प्रस्तुतीकरण इस तरह किया जा रहा है कि इन कानूनों का मौजूदा व्यवस्था और इसके मूल्यों-ढांचों से कोई सरोकार नहीं है। कानून बनवाने का माहौल बनवाना, कानून बनाने वाली समितियों में शामिल होना, वैकल्पिक ड्राफ्ट तैयार करना, सरकारी कानून का इंतजार करना और कानून आ जाने पर उसकी आलोचना करते हुए जो मिला है उसी को लागू कराने में लग जाना अन्यथा कानून को ऐतिहासिक बताते हुए उसके प्रबंधन-क्रियान्वयन में जुट जाना। कुछ इसी तरह के क्रिया-कलाप भूमि-अधिग्रहण के प्रस्तावित संशोधन के संदर्भ में भी किये जा रहे हैं। कृषि नीति, शहरीकरण, सीलिंग कानून, जमींदारी विनाश कानून तथा पूँूजीवादी व्यवस्था और इसके संवाहक अन्तर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थान- विश्व बैंक, ए.डी.बी., डी.एफ.आई.डी. बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की बैठायी जा रही जुगतों से आँख मूंदना भूमि-अधिग्रहण की समस्या को और विकराल बनायेगा।
कंाग्रेस द्वारा बहुप्रचारित हरियाणा की भूमि-अधिग्रहण नीति के तर्ज पर उत्तर प्रदेश सरकार ने भी हाल में अपने भूमि-अधिग्रहण प्रावधानों की घोषणा की। दोनों राज्यों में इन प्रावधानों का जोर केवल एक बात पर है कि किसी भी प्रकार से कुछ ज्यादा मुआवजा देकर, लालच देकर, कृषि एवं ग्रामीण जीवन को अनाकर्षक बनाकर ज्यादा से ज्यादा भूमि हथियायी जाय। भूमि-अधिग्रहण या खरीद-फरोख्त के मामले में सरकार पीछे हटते हुए कम्पनियों, कारपोरेट, भू-माफियाओं के रहमोकरम पर किसानों को छोड़ देने को आतुर है। मजाक तो यह है कि खाद्य सुरक्षा बिल और कृषि भूमि का गैरकृषि प्रयोजन हेतु बेतहाशा उपयोग एक साथ चलाने का सब्जबाग। अभी विश्व बैंक की मदद से ग्रामीण आजीविका कार्यक्रम की घोषणा, गेहूं के निर्यात की मात्रा बढ़ाने की घोषणा किस प्रकार की खाद्य सुरक्षा उपलब्ध करायेगा सहजता से समझा जा सकता है। यह उसी प्रकार से है जैसा कि सत्ता के चाटुकारों के एक तबके द्वारा यह प्रचारित किया जाता रहा है कि छत्तीसगढ़ की सार्वजनिक वितरण प्रणाली सर्वश्रेष्ठ है जबकि आरोप यह हैं कि इस राज्य में सार्वजनिक वितरण के लिए जाने वाले अनाज को सशस्त्र बल अपने कैम्प में उतरवा लेते हैं। यह वही तबका है जो आजादी के 6 दशाब्दी बाद भी बी.पी.एल. एवं अन्त्योदय कार्ड को बनवाना अपनी कामयाबियों की फेहरिश्त में रखता है। इस कटोरा संस्कृति को समाप्त करने की जरूरत है जो काम के अधिकार से ही संभव है और सबसे ज्यादा काम आज भी कृषि क्षेत्र ही दे सकता है, जल-जंगल- जमीन ही आजीविका का मूल आधार है। अतएव जल-जंगल- जमीन, कृषि तथा स्थानीय लोक-अर्थव्यवस्था की रक्षा हमारी सर्वोच्च जिम्मेदारी है और इस जिम्मेदारी का निर्वाह साझी पहल से ही संभव है।