पच्चीसवें साल में पेसा : ग्राम सभा को सशक्त करने के लिए आया कानून खुद कितना मजबूत!
-कुंदन पाण्डेय
- पेसा यानी पंचायत (अनुसूचित क्षेत्रों में विस्तार) क़ानून 1996 में आया था। इस कानून को आदिवासी-बहुल क्षेत्र में स्व-शासन (ग्राम सभा) को मजबूती प्रदान करने के उद्देश्य से लाया गया था।
- इस कानून के वर्तमान स्थिति का अनुमान इस एक तथ्य से लगाया जा सकता है कि पच्चीस साल होने को है पर कुल दस में से चार राज्यों ने इसके लिए जरूरी नियम ही नहीं बनाये। एक राज्य ने तो अपने पंचायत कानून को कॉपी-पेस्ट करके काम चला लिया। इससे पेसा के प्रति राज्यों की बेरुखी का पता चलता है।
- राज्य सरकारों और आला-अफसरों के इस बेरुखी के साथ कुछ और भी वजहें हैं जिससे पेसा की प्रासंगिकता कम हुई है। इस कानून के आने के बाद कई और भी कानून बन गए जिसमें पेसा के प्रावधानों को मजबूती से शामिल कर लिया गया।
पेसा यानी पंचायत (अनुसूचित क्षेत्रों में विस्तार) क़ानून को आए पच्चीस साल पूरे होने वाले हैं। आदिवासी बहुल इलाकों में स्थानीय समाज को मजबूती देने के लिए लाया गया यह कानून आज खुद की प्रासंगिकता के सवालों से जूझ रहा है।
जब यह कानून आया था तो इसे देश के तकरीबन नौ प्रतिशत आबादी वाले आदिवासी समाज के पक्ष में लाया गया अब तक का सबसे मजबूत कानून माना गया था। इसको लागू करने की जिम्मेदारी राज्य सरकार और स्थानीय प्रशासन के जिम्मे था। इन्होंने या तो इसमें दिलचस्पी नहीं दिखाई या बेमन से जिम्मेदारियों का निपटारा किया। आलम यह है कि दस में से चार राज्यों ने पच्चीस साल में पेसा कानून को लागू करने के लिए जो जरूरी नियम बनाने थे, नहीं बनाये। इन राज्यों में छत्तीसगढ़, झारखंड, मध्य प्रदेश और ओडिशा शामिल हैं। यह बात सरकारी रिकॉर्ड के आधार पर कही गई है।
इस कानून के महत्व को बताते हुए अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के आयुक्त रहे बीडी शर्मा ने वर्ष 2010 में राष्ट्रपति को एक पत्र लिखा था। आदिवासी समाज पर अपने काम के लिए मशहूर रहे शर्मा ने लिखा, “जब पेसा कानून बना और इसके प्रावधान सामने आए तो ऐसा प्रतीत हुआ कि यह जनजातीय समुदाय के साथ किए गए ऐतिहासिक अन्याय को मिटाने के लिए बनाया गया है। इस कानून के आने से पूरे देश के आदिवासी समाज का उत्साह अभूतपूर्व तरीके से बढ़ा। इन लोगों को लगा कि इस कानून के आने से उनकी गरिमा और स्व-शासन का अधिकार पुनः बहाल होगा। ‘मावा नाटे मावा राज’ की तर्ज पर। इसका तात्पर्य है ‘हमारा गांव हमारा शासन’।
हालांकि उसी पत्र में उन्होंने इस कानून के पंद्रह साल की यात्रा को समझाते हुए बड़े सख्त लहजे में लिखा था कि आदिवासी समाज का यह उत्साह खत्म हो गया है। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि सत्तारूढ़ अभिजात वर्ग पेसा के मूल भावना को मानने को तैयार ही नहीं है।
इस पत्र को लिखे भी दस साल उसे अधिक हो गया। पर ऐसा प्रतीत होता है कि स्थिति जस की तस बनी रही। झारखंड के आदिवासी समाज पर दशकों से काम कर रही दयामनी बारला कहती हैं कि जब यह कानून अस्तित्व में आया था तब पांचवी अनुसूची के क्षेत्र में रहने वाले लोगों में खासा उल्लास था। उन्हें लगा कि इस कानून की बदौलत स्थानीय संसाधनों पर उनका नियंत्रण सुरक्षित रह सकेगा। जमीन हो, खनिज संपदा हो या लघु वनोपज हो। लेकिन पच्चीस साल के बाद भी स्थिति वैसी कि वैसी ही रही। अभी भी इन संसाधनों पर इलाके के अमीर लोगों का ही कब्जा है। आमजन अगर अपने हक की बात करते हैं तो उनपर कार्यवाही की जाती है। सरकारें बिना ग्राम सभा के अनुमति के भूमि-अधिग्रहण किये जा रही हैं, बारला कहती हैं।
झारखंड की कुल आबादी में करीब 26 प्रतिशत आदिवासी हैं फिर भी इस राज्य में पेसा के क्रियान्वयन के लिए जरूरी नियम नहीं बनाये गए। यह तब है जब इस राज्य की स्थापना ही आदिवासी समाज के साथ हुए अन्याय के आधार पर किया गया था।
स्व-शासन को मजबूती देने के लिए लाया गया था यह कानून
अप्रैल 24, 1993 को संविधान (तिहत्तरवां संशोधन) अधिनियम, 1992 से पंचायती राज को संस्थागत रूप दिया गया। इसके लिए संविधान में ‘पंचायत’ नाम से नया भाग-IX जोड़ा गया। पांचवी अनुसूची के क्षेत्र में इस कानून को विस्तार देने के लिए पेसा अस्तित्व में आया। कुछ संशोधन और कुछ नए प्रावधान के साथ। वर्तमान में पांचवी अनुसूची झारखंड, छत्तीसगढ़, ओडिशा, आंध्र प्रदेश, गुजरात, हिमाचल प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान और तेलंगाना में लागू है।
इसके ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को बताते हुए मध्य प्रदेश में कई सालों से इन मुद्दों पर काम कर रहे अधिवक्ता अनिल गर्ग बताते हैं कि उन दिनों केंद्र सरकार स्थानीय स्थानीय शासन को सुदृढ़ करने पर जोर दे रही थी। इसीलिए 73वें संशोधन कानून के साथ पंचायत को कानूनी जामा पहनाया गया। लेकिन अनुसूचित क्षेत्र या कहें आदिवासी बहुल वाले क्षेत्र में यह लागू नहीं हुआ। इन क्षेत्र में स्व-शासन की मांग तो थी ही और ये क्षेत्र काफी पिछड़े भी थे। इसे देखते हुए केंद्र सरकार ने 1994 में एक कमेटी बनायी। मध्य प्रदेश से सांसद दिलीप सिंह भूरिया के अध्यक्षता में इस कमेटी ने अपनी रिपोर्ट 1995 में सौंपी जिसमें आदिवासी समाज के साथ किये गए शोषण की चर्चा की गई थी। इस कमेटी के अनुशंसा के मद्देनजर केंद्र सरकार ने पंचायत (अनुसूचित क्षेत्रों के लिए विस्तार) (पेसा) अधिनियम, 1996 कानून बनाया। इस कानून के साथ से अनुसूची पांच के क्षेत्र में आने वाले ग्राम सभा को काफी सशक्त किया गया।
इसके तहत ग्राम सभा को आदिवासी समाज की परंपराएं और रीति-रिवाज, और उनकी सांस्कृतिक पहचान, समुदाय के संसाधन और विवाद समाधान के लिए परंपरागत तरीकों के इस्तेमाल के लिए सक्षम बनाया गया। ग्राम सभा को भूमि अधिग्रहण, पुनर्वास और विस्थापित व्यक्तियों के पुनर्वास में अनिवार्य परामर्श का अधिकार दिया गया। इन्हें खान और खनिजों के लिए संभावित लाइसेंस/पट्टा, रियायतें देने के लिए अनिवार्य सिफारिशें देने का अधिकार भी दिया गया। और भी कई अधिकार दिए गए।
इसी कानून का हवाला देते हुए वर्ष 2013 में सर्वोच्च न्यायालय ने ओडिशा सरकार को कालाहांडी और रायगढ़ जिले में बॉक्साइट खनन के लिए ग्राम सभा से अनुमति लेने को कहा था। स्थानीय लोगों से पूछा गया कि बॉक्साइट के खनन से क्या उनके सांस्कृतिक और धार्मिक अधिकार को नुकसान होगा! इन लोगों ने नियमगिरि पर्वत पर खनन करने की सहमति नहीं दी और इस तरह ग्राम सभा के इतिहास में यह एक मील का पत्थर बना।
यह पेसा कानून एक बड़ी उपलब्धि रही। पर इसके अतिरिक्त यह कानून जमीनी स्तर पर अपनी छाप छोड़ने में लगभग नाकाम ही रहा है।
पेसा की वर्तमान स्थिति
इस कानून के अब तक की उपलब्धि पर इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ पब्लिक ऐड्मिनिस्ट्रैशन ने एक अध्ययन किया था। वर्ष 2016-17 में। इसमें तीन राज्यों के छः जिलों को शामिल किया गया। तीन राज्य थे- झारखंड, छत्तीसगढ़ और ओडिशा। इस अध्ययन में पता चला कि झारखंड के खूंटी जिले में 65 प्रतिशत लोग जिनकी जमीन का अधिग्रहण किया, उनसे अनुमति नहीं ली गई है। गुमला में ऐसे 26 प्रतिशत लोग थे।
वर्ष 2016-17 में यह अध्ययन किया गया जब झारखंड में राज्य सरकार दो पुराने कानूनों में संशोधन कर जमीन अधिग्रहण को आसान करना चाह रही थी। छोटा नागपूर काश्तकारी अधिनियम, 1908 और संथाल परगना काश्तकारी अधिनियम 1949 में संशोधन के प्रयास किये जा रहे थे। तब लोगों ने पेसा कानून के प्रावधानों का इस्तेमाल करते हुए विरोध दर्ज कराया, दयामनी बारला कहती हैं। इसी खूंटी जिले से पत्थलगढ़ी आंदोलन ने जोर पकड़ा। यह आंदोलन राज्य अन्य जिलों से होते हुए पड़ोसी राज्य ओडिशा और छत्तीसगढ़ में पहुंच गया। इसमें लोग पत्थरों पर ग्राम सभा के अधिकार लिखकर गांव के प्रवेशद्वार पर लगा देते थे।
बारला कहती हैं कि राज्य सरकार ने ग्राम सभा की अहमियत को समझने के बजाय करीब दस हजार लोगों पर केस दर्ज कर दिया।
इस कानून को लेकर सरकारी अधिकारियों के तेवर ने भी बड़ा नुकसान किया, कहते हैं श्रीचरण बेहारा जो कैम्पैन फॉर सर्वाइवल एण्ड डिग्निटी नामक संस्था के ओडिशा चैप्टर से जुड़े हैं। इनके अनुसार अगर ग्राम सभा का आयोजन हो भी रहा है तो भी आखिरी फैसला स्थानीय अधिकारी ही लेते हैं। ओडिशा में कई संस्थाएं मुहिम चलाकर ग्राम सभा चलाने के पारंपरिक तरीके को स्थापित करने की कोशिश कर रही हैं। राजस्थान में भी यही स्थिति है, कहते हैं मान सिंह सिसोदिया जो मजदूर और किसानों के मुद्दे पर कई साल से काम कर रहे हैं।
इनके अनुसार राज्य सरकार ने पेसा कानून को लागू करने के लिए जरूरी नियम तो 2011 में बना लिए। पर जमीनी हकीकत नहीं बदली। राज्य सरकार को इस कानून के बेहतर क्रियान्वयन के लिए कई स्थानीय कानून में संशोधन करना था जो नहीं किया गया। इसका नतीजा यह निकला कि पेसा कानून के क्रियान्वयन अधिकारियों और पंचायत के हाथों में ही रहा। स्थानीय वांगड़ मजदूर किसान संगठन ने इस बाबत 2019 में राज्यपाल को एक पत्र भी लिखा था।
अन्य राज्यों में भी लगभग यही स्थिति है। गुजरात भी एक अलहदा उदाहरण है। इसने जरूरी नियम बनाये लेकिन ये गुजरात पंचायत राज अधिनियम 1993 का कॉपी-पेस्ट है, हाल ही में प्रकाशित एक रिपोर्ट कहती है। इसके तहत स्थानीय पंचायत की भूमिका की बात तो की गई पर छोटे गांव-खेड़ा की भूमिका पर कुछ नहीं कहा गया।
पेसा कानून पर काम कर रहे लोग मानते हैं कि यह कानून तो अच्छा है पर तभी तक, जब इसके क्रियान्वयन से जुड़े लोग इसको गंभीरता से लेते हैं।
पेसा कानून के प्रावधानों का कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है। इसका क्रियान्वयन केंद्र सूची, समवर्ती सूची और राज्य से जुड़े सूची में बनने वाले कानूनों पर निर्भर करता है, संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम का एक पॉलिसी पेपर यह कहता है।
इस पैमाने पर देखा जाए तो सभी राज्यों में बहुत काम किया जाना बाकी है। आंध्र प्रदेश ने छः के छः क्षेत्र में जरूरी बदलाव नहीं किये हैं। इन क्षेत्र के नाम है भूमि अधिग्रहण, आबकारी, वनोपज, खान और खनिज, कृषि हाट और अर्थ। महाराष्ट्र ने छः में से पांच क्षेत्रों में जरूरी बदलाव नहीं किया है। ऐसी ही स्थिति कमोबेश सभी राज्यों की है। यह केंद्र सरकार के आंकड़े हैं।
पेसा कानून के इस परिणति के लिए कई चीजें जिम्मेदार
अनिल गर्ग कहते हैं कि ये कानून लगभग असफल रहा। सरकार ने कानून तो बना दिया पर नियम नहीं बनाये। “ऐसे में अगर ग्राम सभा ने निर्णय ले भी लिया तो कलक्टर इत्यादि ने उसकी बात नहीं मानी। ग्राम सभा ने प्रस्ताव पास किया कि शराब दूकान नहीं खुलेगी पर अधिकारियों ने उस प्रस्ताव को नहीं माना,” गर्ग कहते हैं।
आगे कहते हैं, “सरकार ने पेसा कानून में जो अधिकार ग्राम सभा को दिए उन अधिकारों के क्रियान्वयन की प्रक्रिया निर्धारित नहीं की। जिन राज्यों में पेसा कानून लागू है वहां लघु वनोपज के अधिकार ग्राम सभा को सौंपे नहीं गए। यह एक उदाहरण इस कानून की स्थिति बताने के लिए काफी है।”
इसका एक दूसरा पहलू भी है। पेसा कानून लाने के बाद केंद्र सरकार ने कुछ और कानून बनाये। उन कानूनों में पेसा के प्रावधानों को बड़ी मजबूती से शामिल किया गया। जैसे भूमि अधिग्रहण अधिनियम 2013 बनाकर उन्होंने ने केवल पेसा के क्षेत्र ही नहीं बल्कि गैर-पेसा क्षेत्र के भी ग्राम सभाओं को मजबूती प्रदान की। आदिवासी क्षेत्रों के लिए अलग से प्रावधान किए। ऐसे ही 2006 में वन अधिकार कानून आया। इस कानून में भी जंगल, जमीन, लघु वनोपज से जुड़े अधिकार समाज को दे दिए। फिर यहां भी पेसा कानून अप्रासंगिक हो गया। इन दो दृष्टिकोण से पच्चीस वर्ष के सफर को देखना होगा, गर्ग कहते हैं।
इसी तरह अपने अध्ययन में आईआईपीए की डॉक्टर नूपुर तिवारी ने पेसा से जुड़ी कुछ समस्याओं का जिक्र किया है। जैसे इस कानून में यह स्पष्ट नहीं किया गया है कि इसको लागू करने का नियम बनाने की जिम्मेदारी किसकी है और नियम कब तक बन जाना चाहिए इसको लेकर कोई समय सीमा निर्धारित नहीं की गयी है। इस कानून में कुछ ऐसे शब्दों का प्रयोग किया गया है कि उसकी व्याख्या कानून के मूल विचार के खिलाफ ही कर लिया जाता है।
बैनर तस्वीरः पेसा कानून के तहत ग्राम सभा को भूमि अधिग्रहण, पुनर्वास और विस्थापित व्यक्तियों के पुनर्वास में अनिवार्य परामर्श का अधिकार दिया गया है। यह ग्राम सभा ओडिशा के एक गांव में चल रही है। तस्वीर- श्रीचरण बेहरा
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