इंटेलिजेंस ब्यूरो की रिपोर्ट पर पी.यू.सी.एल का वक्तव्य
पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टी, प्रधानमंत्री को सौंपे गए इंटेलिजेंस ब्यूरो के रिपोर्ट की आलोचना करती है जिसकी आड़ में उन एन.जी.ओ,नागरिक समूहों और व्यक्तियों को धमकाया,आतंकित और बदनाम किया जा रहा है, जो लोगों के उन मुद्दों को उठाते हैं जो भारतीय संविधान द्वारा प्रदत्त मौलिक अधिकारों के उल्लंघन से सम्बंधित हैं तथा उनके जीवन और आजीविका के अधिकार और सम्पूर्ण भारत में अपनाए गए विनाशकारी कार्यक्रमों के प्रभाव से उनके जिन्दगी पर होने वाले खतरों से चिंतित हैं. बड़ी परियोजनाओं द्वारा एक बड़ी आबादी के विस्थापन और पर्यावरण के नुक्सान,तथा परमाणु संयंत्रों और रेडियो एक्टिव अयस्कों जैसे यूरेनियम की खुदाई, ऊर्जा के स्त्रोतों जैसे कोयला और अन्य हाइड्रोकार्बन के अन्धाधुन्ध इस्तेमाल,तथा जी. .एम.ओ (जेनेटिकली मोडीफाईड फसलों और खाद्य पदार्थों) से मानव जीवन पर होने वाले खतरों पर सवाल उठाने वाले व्यक्तियों, नागरिक समूहों,अनुदान प्राप्त एन.जी.ओ तथा गैर अनुदान प्राप्त जन आन्दोलनों को, इस कथित गुप्त रिपोर्ट में “राष्ट्र के आर्थिक सुरक्षा” के लिए ख़तरा बताया गया है
इस आई.बी रिपोर्ट की अन्तर्निहित दुखद विडंबना यह है कि सरकार चाहती है कि इस देश की जनता वर्तमान विकास के तरीके, खासकर कॉर्पोरेट द्वारा औद्योगिक विस्तार,त्वरित शहरीकरण,अनियंत्रित उपभोक्तावाद पर आँख बंद कर के भरोसा करे , बावजूद इसके कि इन्हीं नीतियों के कारण गरीब, बहिष्कृत और हाशिये पर खडा वर्ग पहले से ही बेहद कठनाई, शोषण और खतरे की जिन्दगी का सामना कर रहा है.वास्तविकता यह है कि इस आर्थिक विकास की प्रक्रिया के कारण,उनके जीवन और आजीविका को होने वाले नुकसान, घर और जमीन से विस्थापन, तथा उनके पर्यावरण की बर्बादी ने आम नागरिक की आर्थिक बदहाली और असुरक्षा बढ़ा दी है
आई.बी रिपोर्ट में यह आरोप लगाया गया है कि विकास परियोजनाओं का विरोध करने वाले नागरिक पश्चिमी ताकतों के एजेंट हैं यह क्रूर और विकृत तर्क है.एक सरकार जो स्वयं अमीर पश्चिमी देशों से विदेशी कॉर्पोरेट निवेश को आमंत्रित कर रही है, अपने नागरिको से यह अपेक्षा करती है कि वे इस बात को नजर अंदाज कर दें कि कॉर्पोरेट शक्तियां अपने देश की आर्थिक रुकावट से निकल कर अपने कॉर्पोरेट पूंजी को भारत के लोगों पर होने वाले दुष्प्रभाव के परवाह किये बिना, देश की बड़ी परियोजनाओं में निवेश कर रही हैं. आई.बी और भारत सरकार न सिर्फ देश के संसाधनों के लूट पर सहमत है, बल्कि इसका समर्थन भी कर रही है, लेकिन जब इन विनाशकारी विकास परियोजनाओं का विरोध किया जाता है तब राज्य जनता की आवाज को दबाना और कुचलना चाहता है.
यह एक दुखद विडंबना है कि एक ओर जो भारत के संसाधनों को लुट कर हुए मुनाफे को विदेश भेजते हैं उन्हें देशभक्त कहा जाता है,और दूसरी ओर इन सामूहिक संसाधनों पर भारत और भारतीयता का हक जताने वालों और विनाशकारी विकास का विरोध करने वालों को “राष्ट्रीय आर्थिक हित का विरोधी” करार दिया जाता है.यह किसी को “देशद्रोही” बता कर गिरफ्तार कर देने के बेहद करीब है
पर्यावरण में हो रहा ह्रास एक वास्तविक चिंता है, जिसके दुष्प्रभावों, बढ़ता तापमान,खराब बारिश,सुरछित पेय जल की कमी और प्रदुषण का खामियाजा, इस देश के गरीबों को भुगतना पड़ रहा है,जिसके कारण न केवल जीवित व्यक्तियों में बीमारियाँ पैदा हो रही हैं, बल्कि यह अजन्मों को भी प्रभावित कर रहा है. एन.जी.ओ यही कर रहे हैं कि सरकार को रिओ अधिवेशन, एजेंडा 21 और अन्य यू.एन घोषणाओं के अंतर्गत उसकी प्रतिबद्धताओं की याद दिला रहे हैं.
प्राकृतिक संसाधनों के अन्धाधुन लुट और विनाश का विरोध करने वाले व्यक्ति और संगठन, संविधान के अनुच्छेद 51(अ) के तहत अपने मूल कर्तव्यों का ही निर्वाह कर रहे हैं, जिसमें कहा गया है कि “भारत के प्रत्येक नागरिक का यह कर्तव्य होगा कि वह प्राकृतिक पर्यावरण की, जिसके अंतर्गत वन, झील, नदी और वन्य जीव हैं, रक्षा करे और उसका संवर्धन करे तथा प्राणि मात्र के प्रति दयाभाव रखे”
“विदेशी आर्थिक सहायता” का हौवा इसलिए खड़ा किया जा रहा है ताकि राज्य और कॉर्पोरेट के अनुचित,अन्यायपूर्ण और गैर टिकाऊ परियोजनाओं को चुनौती देने वाले व्यक्तियों और संगठनों को बदनाम किया जा सके. आई.बी और प्रधानमंत्री कार्यालय जानते हैं कि विदेशी आर्थिक मदद लेने वाले सभी एन.जी.ओ विदेशी सहायता (नियंत्रण) अधिनियम,2010 के कड़े प्रावधानों के अंतर्गत आते हैं, जिसके तहत गृह विभाग से अनुमति लेनी पड़ती है और एक समयांतराल पर इन्हें केंद्रीय सरकारी एजेंसियों के सख्त ऑडिट से भी गुजरना पड़ता है
पी.यु.सी.एल या अन्य इस बात की वकालत नहीं कर रहे हैं कि विदेशी आर्थिक मदद प्राप्त करने वाले या फिर जिन्हें घरेलु मदद भी मिल रही हो, वैसे एन.जी.ओ को पारदर्शी या कानून के प्रति जवाबदेह नहीं होना चाहिए. कोई भी संगठन यदि आर्थिक मदद को नियंत्रण करने वाले कानून का उल्लंघन करता है तो उसे कानून के तहत अवश्य ही जिम्मेदार ठहराया जाना चाहिए.पर कानून का उल्लंघन करने वाले संगठनों पर अभियोग लगाने के बजाय, सरकार ने आई.बी रिपोर्ट के माध्यम से दुष्प्रचार का जो तरीका अपनाया है वह और कुछ नहीं बल्कि विकास के प्रमुख संवाद में असहमत विचारों का गला घोटने का प्रयास है. एक बड़ा षड़यंत्र तो लोगों को शब्दों और अहिंसक कार्यवाही के जरिये असहमति व्यक्त करने तथा संगठित और एकजुट होकर अपने मत को आगे बढाने के मौलिक अधिकार से वंचित करना है
एक ओर जहां विदेशी आर्थिक मदद प्राप्त करने वाले एन.जी.ओ को विदेशी एजेंट बताकर धमकाना एक पसंद का हथियार है, वहीँ पी.यु.सी.एल जैसे नागरिक संगठनों, जिन्हें किसी भी तरह की विदेशी या घरेलु संस्थागत आर्थिक सहायता नहीं मिलती है, के खिलाफ इसका इस्तेमाल मुश्किल था. लेकिन पी.यु.सी.एल को भी कथित आई.बी. रिपोर्ट द्वारा निशाना बनाया गया है. यह एक चौंकाने वाली बात है कि गुजरात के कथित विकास मॉडल की आलोचना तथा गरीबों और वंचित तबके पर इसके पड़ने वाले बुरे प्रभाव और इस मुद्दे पर होने वाले सेमीनार में गुजरात पी.यु.सी.एल. तथा कुछ अन्य संगठन जिनमें गांधीवादी और सर्वोदय भी शामिल है, द्वारा हिस्सा लेने को आई.बी. द्वारा राष्ट्र विरोधी करार दिया गया
हम मात्र यहीं उम्मीद करते हैं कि इंटेलिजेंस ब्यूरो की रिपोर्ट, नयी सरकार द्वारा कॉर्पोरेट के आर्थिक एजेंडा को आगे बढाने के उद्देश्य से, असहमत आवाजों और लोगों के अन्य मानवीय तथा लोकतांत्रिक अधिकारों को दबाने के लिए किये जाने वाले किसी दमनात्मक कारवाई का पूर्व सन्देश ना हो
हम नई केंद्र सरकार और सभी राज्यों को यह याद दिलाना चाहेंगे कि उच्चतम न्यायालय ने एस.रंगराजन बनाम पी.जगजीवन राम(१९९४) के मुक़दमे में क्या कहा था “जब व्यक्तियों के विचारों में मतभेद हो ,तब दोनों पक्षों को जनता द्वारा सुने जाने का बराबर हक़ मिलना चाहिए” (बेंजामिन फ्रैंकलिन). अगर किसी को इस बात की अनुमति है कि वो सरकार की नीति को अच्छा कहे ,तो दुसरे को बराबर आज़ादी के साथ यह कहने का हक है कि यह बुरी है. अगर किसी को सरकार की योजनाओं के समर्थन की अनुमति है, तो दुसरा भी यह कह सकता है वह इसका समर्थन नहीं करेगा. समर्थकों तथा विरोधियों को अलग अलग विचारों की अभिव्यक्ति की इजाजत इसलिए नहीं दी जाती की वे सही या वैध्य है, बल्कि इसलिए कि इस देश में किसी भी मुद्दे पर असहमति व्यक्त करने की आजादी है ”
इसलिए हम यह मांग करते हैं कि एन.डी.ए की नेतृत्व वाली नयी सरकार, विचारों के अभिव्यक्ति के अधिकार, जिसमें असहमति व्यक्त करने तथा शांतिपूर्ण और लोकतांत्रिक तरीके से विरोध करने का मौलिक अधिकार भी शामिल है,का आदर करे.
प्रो. प्रभाकर सिन्हा,राष्ट्रीय अध्यक्ष
वी सुरेश, राष्ट्रीय महासचिव
कविता श्रीवास्तव, राष्ट्रीय सचिव