संघर्ष संवाद
Sangharsh Samvad

12 साल के सफर में टूटे सपने

सपनों की भूलभुलइया से निकल कर वास्तविकता के कड़वे धरातल पर उतर कर झारखण्ड राज्य अपनी उम्र के 13वें साल में पहुंच गया है। कुछ के चेहरे पर विकास की मुस्कान है तो अधिकतर के चेहरे पर विनाश और अत्याचार की उदासी है? यह बड़ा सवाल है कि पिछले 12 सालों में झारखण्ड ने क्या खोया और क्या पाया? खास कर महिलाओं को क्या मिला? इसका अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि अलग राज्य बनने के बाद महिलाओं का पलायन कम नहीं हुआ बल्कि और ज्यादा बढ़ गया। हैरानी की बात है कि जितना बाहर से लोग यहां आकर बसे, उससे दो गुणा लोगों का पलायन हो गया। रोजी-रोजगार की तलाश में यहां से प्रतिवर्ष कोई सवा लाख लोग पलायन करते हैं। इसमें लगभग 33 हजार लड़कियां शामिल है। पलायन करनेवालों में आदिवासियों की संख्या सबसे अधिक 76 प्रतिशत है।

गैर-सरकारी आंकड़ों की मानें तो पिछले 11 सालों में झारखण्ड से लगभग 30 लाख लोगों को पलायन करना पड़ा। इनमें लगभग पांच लाख लड़कियां और महिलाएं हैं। इनमें से अधिकतर महानगरों में घरेलू कामगार के रूप में कार्यरत हैं। कुछ मानव तस्करी की शिकार हुईं तो कई वेश्यावृति की ओर ढकेल दी गयीं। नई दिल्ली स्थित इंडियन सोशल इंस्ट्टीयूट के अनुसार दिल्ली में झारखण्ड से आयीं 54.78 प्रतिशत लड़कियां और महिलाएं घरेलू कामगार के रूप में कार्यरत हैं। इनका जिलेवार प्रतिशत देखें तो वे सिमडेगा से 39.88, गुमला से 28.35, रांची से 2.98, लातेहार से 2.18, लोहरदगा से 0.31, पलामू से 3.74 और सिंहभूम से 0.31 प्रतिशत हैं। इनमें 70 प्रतिशत 18 साल से कम उम्र में यहां पहुंचीं और उनमें 72.1 प्रतिशत अविवाहित ही रह गयीं। यह चौंकानेवाला तथ्य बहुत चिंताजनक है।


दूसरी तरफ शिक्षा का हाल अपंग की तरह है, बैसाखी के भरोसे है। शिक्षा विकास की सीढ़ी है, किसी भी समाज की उन्नति व अवनति इस बात पर सबसे ज्यादा निर्भर करती है कि उस समाज में शिक्षतों की संख्या कितनी है। यह सुन्दर कथन झारखण्ड सरकार के मानव संसाधन विकास मंत्रालय की वेबसाइट की शोभा बढ़ा रहा है। देश के 28वें राज्य के रूप में झारखण्ड राजनीति के नक्शे पर आदिवासी बहुल राज्य है लेकिन शैक्षिक तथा आर्थिक दृष्टि से यहां की स्थिति बहुत दयनीय है।

महिला विकास को देश तथा समाज के विकास की कुंजी माना जाता है। विकास के क्रम में सबसे पहला काम महिलाओं को शिक्षित करना होना चाहिए था जबकि झारखण्ड शिक्षा परियोजना परिषद द्वारा 2010-11 में जारी आंकड़ों के अनुसार अभी भी 1,27,130 बच्चे विद्यालय से बाहर हैं जिसमें 60,911 लड़कियां हैं। जनगणना 2011 के अनुसार झारखण्ड की कुल अबादी 3,29,66,238 है जिसमें 1,60,34,550 महिलाएं शामिल हैं। इनकी साक्षरता दर 56.21 प्रतिशत है। वर्ष 2001 में महिला सारक्षरता दर 39.38 प्रतिशत थी और वर्तमान में 56.21 प्रतिशत है। सरकारी स्कूलों में पढ़ाई कम, खानापूर्ति ज्यादा हो रही है। 50 से 100 बच्चे एक ही शिक्षक के भरोसे रहते हैं। बड़ी संख्या में शिक्षक अनुबंध पर हैं और जो अपनी जायज मांगों को लेकर आये दिन हड़ताल पर रहते हैं। नियमित सरकारी शिक्षकों का घोर अभाव है। यह सरकारी शिक्षा व्यवस्था का दम निकाल रहा है।

स्वास्थ्य लोगों के जीवन की गुणवक्ता का महत्वपूर्ण सूचक है और बुनियादी अधिकारों में शामिल है। भारत के संविधान का अनुच्छेद 21 और राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांत का अनुच्छेद 47 और 39ई देश के प्रत्येक नागरिक को स्वास्थ्य का अधिकार प्रदान करता है। मानवाधिकार की सार्वभौमिक घोषणा 1982 के अनुच्छेद 25 के अनुसार अपने तथा अपने परिवार की तंदरूस्ती तथा स्वास्थ्य के लिए पर्याप्त जीवन स्तर का अधिकार सबको है। इसमें भोजन, कपड़ा, आवास तथा चिकित्सा सुविधा, बीमार और अस्वस्थ होने पर सुरक्षा का अधिकार भी शामिल है। स्वास्थ्य का अधिकार हर व्यक्ति का अधिकार है और उसकी व्यवस्था करना सरकार की जिम्मेदारी होती है। राज्य में बुनियादी सुविधाओं को सुनिश्चित करने हेतु जिला, सब डिवीजन और प्रखंड स्तर पर विशेष चिकित्सकों सहित अच्छे अस्पतालों का होना आवश्यक है। किन्तु दुर्भाग्य से झारखण्ड में स्वास्थ्य सेवाएं बहुत लचर हैं। इसका मुख्य कारण सरकारी संस्थानों और स्टाफ की कमी है। 12 वर्ष होने के बावजूद राज्य की हालत यह है कि यहां कुल मेडिकल कालेजः 3, जिला अस्पातालः 24, आयुर्वेदिक अस्पतालः 1, आयुर्वेदिक दवाखानाः 122, यूनानी दवाखाना: 30, होमियोपैथी अस्पताल: 2 तथा होम्योपैथी दवाखाना: 54 हैं। राज्य में 7088 स्वास्थ्य उप केन्द्र की आवश्यकता है पर 722 उपलब्ध हैं, 1126 प्राथमिक स्वास्थ्य केंन्द्र की आवश्यकता है पर 330 उपलब्ध हैं, 240 सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र की आवश्यकता है पर 168 ही मौजूद हैं।

हेल्थ वर्कर की भी भारी कमी है। 3958 हेल्थ वर्कर की आवश्यकता है जो सिर्फ 1922 हैं, 4707 नर्स की आवश्यकता है जो 429 ही हैं, 194 प्रसूति रोग विशेषज्ञ की आवश्यकता है जो सिर्फ और सिर्फ 30 हैं। वहीं फर्मासिस्ट 524 चाहिए पर मात्र 348 ही उपलब्ध हैं और इसी तरह 524 लेबोरेट्री टेक्नीशियन चाहिए पर सिर्फ 381 ही उपलब्ध हैं। राज्य में संस्थागत प्रसव 40.1 प्रतिशत, नवजात मृत्युदर 46, बाल मृत्युदर 26.1 (प्रति हजार) एवं मातृ मृत्युदर 312 (प्रति लाख) है।

लेकिन हां, सरकार ने कुछ सराहनीय काम भी किये जो बस उंगलियों पर गिनाये जा सकते है। जैसे पंचायत चुनाव- भले ही पंचायती व्यवस्था डांवाडोल हो और उसमें महिलाओं की भागीदारी अधिकतर कागजी हो। दूसरा सराहनीय काम मेयर की सीट को आदिवासी महिला के लिए आरक्षित करना। लेकिन इतने भर से क्या होता है?

यह सरकार को देखना चाहिए कि हम अन्य राज्यों से कितने पिछड़े या विकसित हैं और इसे तय करने का सही पैमाना क्या होना चाहिए? विविधता में एकता की अन्नय भूमि कहे जानेवाले झारखण्ड को किसका ग्रहण लग गया? पिछले 12 सालों में झारखण्ड के लोगों को क्या और कितना मिला? सच सामने है कि खनिज संपदा से परिपूर्ण इस राज्य का जिस गति से विकास होना चाहिए था, वह नहीं हो पाया। झारखण्ड के लोगों के भले के रास्ते पर बस कुछ ही दूरी तय हो सकी है जो एकदम नाकाफी और कहने भर को है। झारखण्ड बनने के बाद कितने सपने, कितने अरमान थे पर इन 12 सालों के अपाहिज सफर ने उसे चूर कर दिया। आज हम वास्तविकता के कड़वे धरातल पर हैं। पर हम नाउम्मीद भी नहीं। इंतजार है कि सचमुच के विकास की- झारखण्ड के आम लोगों, और खास कर महिलाओं और बच्चों के चेहरे पर मुस्कान की दस्तक कब होगी? आज नहीं तो कल, होगी तो जरूर। इतना तय है।
-बरखा लकड़ा

 

इसको भी देख सकते है