लूट के महायज्ञ में प्राकृतिक संसाधनों और आदिवासियों की बलि
इलाहाबाद की ग़रीब बस्तियों के वाशिंदों के बीच अंशु मालवीय उनके संघर्षों के जुझारू साथी के तौर पर जाने जाते हैं लेकिन हिंदीभाषी इलाक़ों में उनकी पहचान जन पक्षधर युवा कवि की है। वे अपनी रचनाओं में वंचित और उत्पीड़ित जनता की आहों और उसकी मुक्ति की चाहतों की धड़कती तसवीर खींचते हैं। गुजरात में मुसलमानों पर हुई राज्य प्रायोजित बर्बर हिंसा के एक प्रसंग पर लिखी गयी ‘कौसर बानो की अजन्मी बिटिया की ओर से’ नामक उनकी मार्मिक कविता पत्थर दिल को भी रूला देने की ताक़त रखती है। पेश है बस्तर में जारी सरकारी दमन चक्र की रोशनी में लिखी गयी उनकी यह ताज़ा कविता;
अब चल पड़ी है बस्तर में कहावत एक
कि जैसे –
पावर प्लांट वालों के घर बच्चे पैदा होते हैं
पावर के साथ,
स्टील प्लांट वालों के घर बच्चे पैदा होते हैं
लोहे के दांतों के साथ,
मुरिया गोंड के घर बच्चे पैदा होते हैं
अपनी धरती अपने साथ लेकर !
नाभि-नाल से जुड़ी, एक अदद अपनी
गर्भ-द्रव में सनी लथपथ हरियाली धरती…..
जनम के समय, पुरखों की छाती का नगाड़ा
पैरों से बजाता-नाचता है गाँव-आसमान से चूती है
चाँदनी महुए सी
नन्हें बच्चों की लार में बहती है नमी वीरान जंगलों की
दंडकारण्य के सन्नाटे में शोर मचाता चित्रकूट का झरना फूटता है
उनकी किलकारियों में…
पुराने साल के वृक्ष उनके पैरों की नसों में उतरते
धंसते चले जाते हैं, पानी की तलाश में चट्टानों को तोड़ते
जड़ें फैलती जाती हैं…
पुकारती मिट्टी के भीतर…. ‘इन्द्रावती-इन्द्रावती’…
इन्द्रावती की लहरों के पालने में झूलते हैं दिग-दिगंत
नीले वितान तले हरे…बहुत हरे… गाढे काही स्वप्न!
फैलती हैं साल की जड़ें – बॉक्साइट को सहलाती
कोयले से लिपटती, लोहे को पुचकारती
फैलती जाती हैं जड़ें नियामगिरी से बैलाडीला तक
पारादीप से झरिया तक धरती में रक्त का प्रवाह लेकर
भागती, अति नवीन पुरातन जड़ें
धरती की निद्रा में स्वप्न रेशों सी फैलती जड़ें
दामोदर के पेट की आग लेकर कोयलकारों में बुझाती
इन्द्रावती में तैरती काईयों के शव
सुवर्णरेखा के ज़हरीले पानी में बहाती
फैलती जाती हैं जड़ें निर्भीक, उदास और उजड्ड जड़ें |
मादल की थाप पर उड़ती है चील एक विकल बदहवास
आसमान के गुम्बद में लेकर उड़ती है कोयले का चाँद और मारती हैं टिहकारी
…. टिहकारी से गिरती है बिजली
जन्मजात विकृत बच्चों की एक पाठशाला पर
पाठशाला पर लिखा है…. रेडियोएक्टिव शिक्षा के केंद्र
जा….दू….गो….ड़ा…. में आपका स्वागत है |
वहाँ से दूर संथाल परगना के किसी जंगल में
अपने टूटे हुए धनुष से पथरीली ज़मीन को कुरेदते
तिल्का माँझी की आँख से रक्त के सोते फूटते हैं…
बुदबुदाता है अकेला बैठा….सुनो…सुनो
शोर है बहुत, कैटरपिलर का शोर ऊँचे से ऊँचा होता जा रहा है..
सुनो शोर है बहुत…. बारूद का, ट्रकों का, सरकारी गाड़ियों का
कोयले की गर्द आसमान की आँखों में पैठती जाती है
तिल्का माँझी बुदबुदाता है…
क्या बोलता है अपने टूटे हुए धनुष से कुरेदते हुए पथरीली ज़मीन
बुदबुदाता है – धरती….धरती…धरती
धरती….धरती….धरती !
‘ धरती के हम मालिक नहीं…हम रखवाले हैं
सौंपनी है धरती हमे आने वाली पीढ़ी को…. कैसी धरती?’
अपने घावों का मुंह बंद करती काली-लाल मिट्टी से
हवा भागती है –
जंगल दर जंगल , पहाड़ दर पहाड़
गाँव से शहर – शहर से झोपड़पट्टियों तक
अल्मुनियम का कटोरा थामे… उसी अल्मुनियम का
जिसके लिए बॉक्साइट की खदानों को अपना यौवन दिया था उसने
उत्पादक – मजदूर – भिखारन हवा
उसी लोहे की बेड़ियाँ पहने, जिसकी खानों में उड़ती गर्द ने
उसके फेफड़ों में घोसला बनाया….है , खाँसती, खामोश हवा |
कहानी सुनाती है हवा, जले हुए वृक्षों के आधे धड़ों को –
‘बहुत-बहुत समय पहले की बात है ; इस जंगल में
एक राष्ट्र, राज करता था – उसने नदियों को बोतलों में बंद किया
– उसने वृक्षों को गमलों में क़ैद किया
– उसने ज़मीन का लोहा खींचा
और उससे पलंग बना कर सो गया
ये खदानों के विस्फोट नहीं राष्ट्र के खर्राटे हैं
ये बाँधों में लहरों के थपेड़े नहीं राष्ट्र की करवटें हैं
जिसके नीचे कुचल जाती है सभ्यताएं
भाषाएँ
ज्ञान
और संस्कृतियाँ….|
उसके राज में रोटियाँ, चिमटों की गुलाम थीं
साहित्य चुगली के काम आता था
इतिहास बलि माँगता था
और विज्ञान – सामूहिक नरसंहारों की मनोरंजक फिल्में बनाता था |
…. कहानी की लय टूटती है….
भौंकते आते हैं ‘ ग्रे हाउण्ड ‘ मिथ्या शहादत की राष्ट्रीय दुम हिलाते
उनके बूटों से चरमराते हैं पत्ते, बच्चों की पसलियों जैसे
उनके पीछे आते हैं अर्थशास्त्री ग्रोथ रेट का नगाड़ा पीटते
उनके पीछे आते हैं उद्योगपति-ठेकेदार-माफिया विकास का गँडासा लिए
उनके पीछे आते हैं मंतरी-संतरी, दलाल – अफसर
संगीनों पर लटके सहमति पत्र लिए
फिर आता है कैमरे, कपड़े और आंकड़े चमकाता मीडिया
अंत में आती है हरियाली… हमेशा की तरह विनम्र और महान
गरदन उतारे जाने के ठीक पहले
अपनी गरिमामय मृत्यु को निहारती है स्नेह से
और नज़र डालती है पूरे अमले पर
बोलती है –
ठीक वैसी ही आवाज़ में जैसे सावन-भादों की स्याह रातों को
उमड़ते हुए बादल बोलते हैं –
‘ बड़े-बड़े प्रतापी राजा चले गये
धर्मराज युधिष्ठिर भी गये खाली हाथ
ये धरती किसी के साथ नहीं गयी
हे राजन !
ये तुम्हारे साथ भी नहीं जाएगी ‘
छत्तीसगढ़ राज्य को उसके जन्म से पहले कोख में ही ग्रहण लग चुका था। इस नवजात राज्य में उसकी मातृ राज्य से नाल कटते ही विकास की बहुरंगी नदियां बहने लगी थीं जो चंद महीनों में ही बाढ़ का रूप लेकर कहर बरपाने लगी थीं। इस प्रलयंकारी विकास ने यहां के जल-जंगल-जमीन पर धावा बोला, किसानों और आदिवासियों को विस्थापित करते हुए उन्हें कहीं का न छोड़ा। यह सिलसिला थमने का नाम ही नहीं ले रहा।
इस विनाशकारी तांडव के बदले देशी-विदेशी उद्योगपतियों से प्राप्त ‘विश्वसनीयता’ की स्वर्णजड़ित झांकियों की नुमाइश के लिए राज्योत्सव है और जिस पर कोई चार सौ करोड रूपये न्यौछावर होगा। यह भीमकाय खर्च गरीबी रेखा के नीचे जीवन बसर करनेवाली राज्य की पौने दो करोड़ जनता की पसीने की कमाई का है। गरीबों की इस संख्या में केवल 34 लाख बीपीएल कार्डधारी हैं यानी कुल गरीबों के पांचवें हिस्से से भी कम हैं। गरीब आबादी का बड़ा हिस्सा पीडीएस की सुविधाओं से बाहर है लेकिन खुशहाल छत्तीसगढ़ का सरकारी नारा उछलकूद करने में व्यस्त है। इसे तथाकथित विकास की विडंबना कहना होगा।
इस संदर्भ में यह सवाल कि छत्तीसगढ़ ने पिछले 12 सालों में क्या खोया और क्या पाया की जगह पर यह सवाल ज्यादा सटीक, प्रासंगिक और महत्वपूर्ण है कि छत्तीसगढ़ की जनता ने क्या खोया और क्या पाया। यह सवाल महज एक राज्य के परिप्रेक्ष में नहीं देखा जा सकता है क्योंकि इस राज्य का जन्म ही हमारे देश के नीति निर्माता एवं राजनीतिज्ञों द्वारा वैश्वीकरण की सुगमता के लिए हुआ था जिन्होंने छत्तीसगढ़ को नवउदारवादी नीतियों के क्रियान्वयन का सबसे बड़ा अखाड़ा बनाया।
आजादी मिलने के साथ ही हमारा देश एक-दूसरे की धुर विरोधी साम्यवादी व साम्राज्यवादी महाशक्तियों की प्रयोगशाला बनने लगा था। समय का पहिया कुछ ऐसे घूमा कि साम्यवादी पिछड़ गये और साम्राज्यवादी बहुत आगे निकल गये। आज स्थिति यह है कि देश की अस्मिता और गरिमा को ताक पर रख कर संसदीय राजनीति के हिस्सेदार सभी दल अपने देशी-विदेशी आकाओं को खुश करने में जुटे हुए हैं। एक समय कहा जाता था कि जब मास्को में बारिश होती है तो भारत में साम्यवादी लोग छाता तान लेते हैं। अब हालात इस कदर बदल गये हैं कि अमरीका के राष्ट्रपति को छींक आती है तो हमारे प्रधानमंत्री कंबल लेकर वाशिंगटन पहुंच जाते हैं।
सोवियत संघ के पतन को पूंजीवाद की कामयाबी मानना नादानी होगा बल्कि इसे पूंजीपतियों की कामयाबी जरूर माना जा सकता है। अमरीका व यूरोपीय पूंजीवादी देशों की बदहाली इसका प्रमाण है जहां पूंजीवाद से अब सड़ांध आने लगी है। ये महाबली देश नासूर हो चुके अपने घावों को भरने के लिए भारत जैसे देशों को दोहन का शिकार बना रहे हैं। आश्चर्य की बात यह है कि जो देश पूंजीवाद के जिस घृणित रास्तों से गुजर कर बर्बादी की गहरी खाई तक पहुंचे हैं, चंद इज़ारेदारों के इशारे पर उसी बर्बादी के रास्ते से गुजर कर विकास की मरीचिका की तलाश करने के लिए हमें मज़बूर किया जा रहा है। छत्तीसगढ़ इतिहास की इस पुनरावृत्ति का एक कार्य क्षेत्र मात्र है।
जब अलग छत्तीसगढ़ राज्य का गठन हुआ और अजीत जोगी उसके पहले मुख्यमंत्री बने तो लोगों में जरूर उम्मीदें जागी थीं कि अब तरह-तरह की बदहालियों से मुक्ति की शुरूआत होगी। उन्होंने खास कर स्वास्थ्य और शिक्षा के क्षेत्र में सराहनीय कदम भी उठाये। बाल्को के निजीकरण के खिलाफ भी आवाज उठायी। लेकिन उनकी अलोकतांत्रिक कार्यशैली और अहम भाव ही उनका और उनके संगठन का दुश्मन बन गया। इस कारण राज्य विधानसभा के दूसरे चुनाव में कांग्रेस का किला ढह गया और भाजपा की सरकार ने राज्य की कमान संभाली।
तब इस सरकार पलट पर तमाम समझदारों का कहना था कि नयी सरकार जल्द ही अपनी अक्षमता और अनुभवहीनता का परिचय देगी। लेकिन यह कहते हुए लोग यह सच भूल गये थे कि इस सरकार की बागडोर गुजरात की पाठशाला में कामयाबी हासिल करने की तिकड़मों का पाठ पढ़ चुके आरएसएसएस के हाथों में है।
वर्तमान स्थिति से ऐसा आभास होता है कि छत्तीसगढ़ के संसाधनों की लूट में केंद्र की कांग्रेसी सरकार को छत्तीसगढ़ की कांग्रेस से ज्यादा राज्य सरकार पर भरोसा है। इसके ढेरों उदाहरण हैं कि जब केंद्र सरकार ने राज्य की कांग्रेस की सलाह को नजरअंदाज कर राज्य सरकार का साथ दिया। दूर-दूर तक कुख्यात हुए सलवा जुडुम का उदय और उसकी बाधारहित सक्रियता इसका बड़ा उदाहरण है। इसका गठन और संचालन तब के कांग्रेसी विधायक महेंद्र कर्मा ने भाजपाई राज्य सरकार से तालमेल बना कर किया था। सलवा जुडुम की परिघटना ने तो राज्य में विपक्ष की उपस्थिति पर ही प्रश्नचिन्ह लगा दिया। यदि सलवा जुडुम और ग्रीनहंट पर आये चिदंबरम के बयानों पर गौर करें तो उपरोक्त बात और भी ज्यादा प्रमाणित होती नजर आती है।
सत्ता, शक्ति और संपत्ति के इस खेल में आम आदमी विलुप्त है। छत्तीसगढ़ की अमीर धरती पर रहनेवाली गरीब जनता के लिए यह धरती ही अभिशप्त साबित हो रही है। इस घरती के गर्भ में अकूत खनिज संपदा है और सदियों से यहां की मेहनतकश जनता का जीवनयापन इसी धरती के सहारे होता रहा है। इसे संयोग कहिये या आदिवासियों का दुर्भाग्य कि जहां प्राकृतिक संसाधनों की भरमार है, वे मुख्यत: आदिवासी क्षेत्र हैं।
प्राकृतिक संसाधनों को लूटना है तो सबसे पहले आदिवासियों को वहां से खदेड़ना जरूरी है। स्वाभाविक है कि लोग अपना घर, खेत, जंगल, पहाड़ आसानी से हवाले करनेवाले नहीं। इसीलिए सरकार की नजर में आदिवासी जनता इस तथाकथित विकास की राह का सबसे बड़ा रोड़ा बन गया है, विकास का दुश्मन और देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए खतरा बन गया है। माओवाद-माओवाद का जाप इसीलिए है ताकि निर्दोष आदिवासियों को अपमानित, आतंकित और उत्पीड़ित किया जा सके और उसे माओवाद विरोधी सरकारी कार्रवाई का नाम दिया जा सके।
यह कंपनियों के लिए लूट का रास्ता साफ करने का सुविधाजनक तरीका है। राज्य सरकार और केंद्र सरकार का भी सबसे बड़ा यही एजेंडा है। खुद देश के प्रधानमंत्री कोई दो दर्जन अवसरों पर माओवाद का दुखड़ा रोकर इसे देश की सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा बता चुके हैं। तो इसमें चौंकने की क्या बात कि इस समस्या की हल भी अमरीकी-इजरायली तरीके से ही किया जा रहा है।
विकास अवश्यसंभावी है। किंतु सवाल है कि विकास किसका और किस कीमत पर? छत्तीसगढ़ के लौह अयस्क को जापान ले जाकर वे भविष्य के लिए सागर में जमा करते जा रहे हैं और हमारी सरकार देश के तमाम खनिज पदार्थों को जल्द से जल्द खोद कर चंद सरमायेदारों को लाभ पहुंचाना चाहती है। छत्तीसगढ़ को कुल दो हजार मेगावाट बिजली की जरूरत है लेकिन राज्य सरकार ने उससे 30 गुना 60 हजार मेगावाट बिजली पैदा करने का लक्ष्य रखा है। इस लक्ष्य की पूर्ति के लिए छत्तीसगढ़ की एक चौथाई से भी ज्यादा उपजाऊ जमीन और जंगल को 50-60 उद्योगपतियों के हवाले कर उसे खदानों व कारखानों में बदला जा रहा है।
लगातार सूखे की मार झेलता छत्तीसगढ़ का किसान खेतों में पानी के लिए आंदोलन करता रहा है। उसकी सुध सरकार को कभी नहीं आयी बल्कि उनकी आवाज को दबाने का हर संभव जतन हुआ। इसके विपरीत यहां के तमाम नदी, नाले, तालाब और बांध के पानी को उद्योगों के हवाले कर दिया गया। लेकिन उद्योगों के लिए यह पानी भी अपर्याप्त है। पानी की उनकी प्यास बहुत गहरी है और उसे बुझाने के लिए सरकारी खजाने से एक के बाद एक बांध बनाये जा रहे हैं।
भूमिहीन जनता को देने के लिए सरकार के पास ज़मीन नहीं है। कोई भूमिहीन गरीब यदि सर छुपाने के लिए जमीन के छोटे से टुकड़े पर अपनी झोपड़ी बनाये या अपने परिवार का पेट भरने के लिए बंजर पड़ी किसी जमीन पर खेती कर ले तो यह गैर कानूनी काम हो जाता है। निर्दयता से उसे वहां से खदेड़ा दिया जाता है। दूसरी तरफ हजारों हेक्टेयर सरकारी जमीन कंपनियों को कौड़ी के दाम पर बांटी जा रही है। हद तो यह है कि इसके लिए सरकारी कागजों में रातों-रात धान के खेत बंजर में बदल जाते हैं, घने जंगल झाड़ियों में बदल जाते हैं, अभ्यारणों से जानवर गायब हो जाते हैं, यहां तक कि आदिवासी अचानक गैर आदिवासी बन जाते हैं और आरक्षित क्षेत्र सामान्य श्रेणी में आ जाते हैं। विकास की इस प्रक्रिया में प्रकृति और पर्यावरण कहां है? उस में रह रहा जीव-जन्तु कहां है? जनता कहां है?
छत्तीसगढ़ की समस्या यहां के लोग, जल, जंगल, जमीन नहीं है बल्कि असली समस्या वे लोग हैं जो प्राकृतिक संसाधनों को जल्द से जल्द नगदी में बदल देना चाहते हैं। उन्हें भला यह चिंता क्यों होगी कि उनकी इस हवस से प्राकृतिक संसाधनों का सत्यानाश होगा और यहां के लोग भुखमरी और कंगाली के दलदल में धंस जायेंगे या विरोध करने के जुर्म में अपने जीवन से हाथ धो बैठेंगे या कि जेलों में सड़ जायेंगे।
(लेखक जन सरोकारों और संवेदनाओं से जुड़े छत्तीसगढ़ के चर्चित युवा फ़िल्मकार हैं। उनकी फ़िल्में सच और न्याय की ज़ुबान बोलती हैं। मई 2008 में उन्हें इसका सबसे बड़ा इनाम मिला। राज्य सरकार ने उन्हें छत्तीसगढ़ की सामाजिक सुरक्षा के लिए खतरनाक और राज्य के खिलाफ युद्ध छेड़ने का दोषी माना। उन पर देशद्रोह का आरोप मढ़ा और जेल में ठूंस दिया। उनके कम्प्यूटर में मिलीं आदिवासियों की चंद तसवीरें इसका बड़ा सबूत बन गयीं। लेकिन खैर, जेल में तीन माह गुजारने के बाद बिलासपुर उच्च न्यायालय से जमानत पर उनकी रिहाई हो गयी। फ़िलहाल, अभी तक पुलिस उनके ख़िलाफ़ चार्जशीट नहीं पेश कर सकी है। इसलिए कि हवाई सबूत तो उनकी रिहाई के साथ ही हवा हो चुके हैं)