लूट-शोषण के खिलाफ बोलोगे तो मारे जाओगे !
आपके घर में ‘लूटेरे’ आते हैं; आप विरोध करते हैं तो आपको बांध कर मारा-पीटा जाता है; अगर इसका जवाब देने की कोशिश करते हैं तो गोली भी मार दी जाती है लूटेरों का मकसद होता है किसी तरह भी आपको डराकर-धमकाकर, मार-पीट कर आप के घर को लूटना। लेकिन उनके साथ भारत की राजसत्ता नहीं होती क्योंकि ये ‘लूटेरे उनको कोई हिस्सा नहीं दे सकते।
जब बड़े लूटेरे देश लूटने के लिए आते हैं तो उनकी रक्षा में भारत का शासक वर्ग सदैव तत्पर रहता है। इस ताकत की नुमाईश वह हर वर्ष 26 जनवरी को करता है। शासक वर्ग इस ताकत की नुमाईश करके देशी-विदेशी लूटेरों (कारपोरेट घरानों) को दिखना चाहता है कि तुम भारत में महफूज़ हो। इस तरह की घोषणा समय-समय पर मंत्री-प्रधानमंत्री करते रहते हैं। इस ताकत के बल पर ये लूटेरे आपके देश को लूटने के लिए आते हैं। यह आपके देश को ही नहीं आपके जीविका के साधन जल-जंगल-जमीन को लूटते हैं, धरती के गर्भ को लूटते हैं, आपके श्रम को लूटते हैं, आपकी खुशियों को लूटते हैं यहां तक कि आपकी इज्जत को लूटते हैैंं। ये आप को लूटते हैं कि ये लूटेरे हैं ये आप की लूट पर ही जिन्दा रहते हैं और इनकी व्यवस्था लूटेरी है। जिस दिन इनकी लूट खत्म हो जायेगी ये लूटेरे मर जायेंगे और हम-आप सभी सुरक्षित हो जायेंगे।
‘आजाद भारत’ में जुलाई 2012 तक दो बड़ी घटनांयें होती हैं। पहली घटना 28 जून, 2012 को बीजापुर जिले के सारकेगुडा, राजपेटा और कोट्टागुड के 17 आदिवासियों का रात के 10 बजे जनसंहार कर दिया जाता है। इस जनसंहार में छह नाबालिग भी थे। भारत का शासक वर्ग इसको बड़ी सफलता मानते हुए फुले नहीं समा रहा है। रायपुर से दिल्ली तक प्रेस कांफ्रेंस कर इसे एक बड़ी उपलब्धी बता दिया जाता है। लेकिन 24 घंटे बीतते-बीतते यह साफ हो जाता है कि बीजापुर में 17 निर्दोष आदिवासियों का जनसंहार किया गया है। इन आदिवासियों का कुसुर इतना है कि वे अपने तरीके से जिन्दा रहना चाहते हैं वे अपनी संस्कृति, अपने नियम-कायदे-कानून में जिन्दा रहना चाहते हैं। आदिवासियों की अपनी जिन्दगी है वे किसी कैम्प में नहीं रह सकते और यदि वे अपना जल-जंगल-जमीन छोड़कर कैम्प में नहीं रहते हैं तो वे माओवादी हैं। आदिवासी अपनी खेती-किसानी के बारे में बातचीत करने के लिए इकट्ठे हुए थे कि वे खेती कब से शुरू करेंगे। इसके बाद वे सांस्कृतिक कार्यक्रम करने की तैयारी कर रहे थे तभी भारत के ‘बहादुर जवानों’ ने अपने आकाओं के आदेश पर जाकर बड़ा जनसंहार कर दिया। जो कि इनके आकाओं की एक सोची समझी साजिश थी, आदिवासियों को जंगल से भगाने की। लेकिन इन ‘बहादुर जवानों’ को अपने अकाओं के मंसुबों का ही पता नहीं है। यह छत्तीसगढ़ की कोई अकेली घटना नहीं है। इसके पहले भी कई बार आदिवासियों का छोटे स्तर पर जनसंहार होता रहा है। 2005 से सलवा जुडूम चलाकर लगभग 650 गांवों को जला दिया गया। सुप्रीम कोर्ट के फैसले को भी ताक पर रख दिया जाता है जिसमें उसने सलवा जुडूम को बंद करने की बात कही थी उसके स्थान पर कोया कमांडो बना दिया जाता है। यह कोया कमांडों न उन आदिवासियों पर हमले करते हैं बल्कि भारत के एक सशक्त प्रणाली सीबीआई को भी निशाना बनाते हैं। सीबीआई को अपने बचाव में सुप्रीम कोर्ट में गुहार लगानी पड़ती है कि छत्तीसगढ़ सीबीआई टीम जाये तो उनको पूरी तरह से सुरक्षा प्रदान किया जाये। इसके पहले ताड़मेटला की घटना में वहां के कलेक्टर और पत्रकारों पर भी हमले हो चुके हैं।
इसी तरह दूसरी घटना 18 जुलाई, 2012 को घटित हुई। विकास का मॉडल माने जाने वाला हरियाणा के मानेसर में मारूति सुजुकी के मजदूर अपने एक साथियों को काम से निकाले जाने पर मारूति सुजुकी प्रबंधन से बात कर रहे थे। प्रबंधन ने उनकी मांग को नकारते हुए डराने-धमकाने के लिए बॉउन्सरों (गुण्डों) को बुला लिया जब मारूति सुजुकी के मजदूरों ने इसका विरोध किया तो वहां मारूति सुजुकी के प्रबंधन और उनके गुण्डे बॉउन्सरों से मजदूरों की झड़प हुई जिसमें एक एचआर मैनेजर की मृत्यु हो गई। इस मैनेजर की मृत्यु का दोषी होने के लिए मारूति सुजुकी का मजदूर ही होना काफी है, यानी लगभग तीन हजार मजदूरों को कातिल बना दिया गया है। इन मजदूरों को पकड़ने के लिए एक तरह से अघोषित ऑपरेशन चलाये जा रहे हैं। गिरफ्तार मजदूरों को पकड़ने के बाद पुलिस रिमांड पर लिया जा रहा है। यहां तक कि एक मजदूर को रिमांड के बाद स्ट्रेचर पर लादकर अदालत में लाया गया और माननीय जज महोदय को बताया गया कि यह मजदूर उस 18 जुलाई की घटना के दिन चाहरदीवारी फांदने से पैर में फ्रैक्चर हो गया है। जब कि हकीकत यह है कि इस घटना का जिम्मेदार प्रबंधन व सरकारी तंत्र है जो कि मजदूरों के, जो इन्हीं शासक वर्ग के बनाये हुए नियम के अनुसार अधिकार है, उसको भी देना नहीं चाहता है। जब मजदूर इन्हीं शासक वर्ग के नियमों को लागू करने की बात व अपने श्रम के लूट के खिलाफ अपनी मांग रखते हैं तो उनको कातिल बनाया जा रहा है।
यह केवल मारूति की ही घटना नहीं है कि मजदूरों को कातिल बनाया गया है। इसके पहले भी ग्रेजियानों तथा निप्पॉन के मजदूरों के साथ ऐसा हो चुका है। जब भी कोई व्यक्ति अपनी लूट के खिलाफ बोलता है तो लूटेरे उनको देश द्रोह तथा कातिल बनाने से नहीं चुकते।
मारूति सुजुकी के मजदूरों को कातिल बनाये जाने के विरोध में और मजदूरों के श्रम के लूट के खिलाफ जब दिल्ली के 21 मजदूर संगठन, मानवाधिकार संगठन व जनपक्षीय लोगों ने श्रमशक्ति भवन पर प्रदर्शन कर श्रम मंत्री को अपना ज्ञापन देना चाहा तो अपने ही संविधान का उल्लंघन करते हुए अपने को आम जनता के साथ कहने वाली दिल्ली पुलिस जिसकी गाड़ियों पर लिखा रहता है ‘दिल्ली पुलिस सदैव आपके साथ’ तुरंत ही इन लूटेरों के साथ खड़ी हो गई और संसद मार्ग के एसएचओ अनिल कुमार के नेतृत्व में प्रदर्शनकारियों को गाली-गलौच देते हुए (यहां तक कि महिलाओं को भी) घसीट कर बसों में चढ़ाया और संसद मार्ग थाने ले गई। एसएचओ अनिल कुमार जिस तरह से प्रदर्शनकारियों से बदसुलुकी से पेश आ रहे थे वैसे जब उन्हीं के एक मातहत पुलिस वाले ने इस तरह की बदसुलुकी नहीं दिखाई तो एसएचओ साहब ने अपने से उम्र दराज पुलिस वाले को भी दोषी मानते हुए थप्पड़ मार दिया। जब मौके पर मौजूद मीडियाकर्मियों ने एसएचओ अनिल कुमार को इस बदसुलुकी को रोकना चाहा तो मीडियाकर्मी भी अनिल कुमार के नजर में दोषी हो गये और उनको भी धमकाना शुरू कर दिया (राष्ट्रीय सहारा 10 अगस्त, 2012 पेज नं. 4, फोटो के साथ समाचार देख सकते हैं)। ये सारी घटना श्रमशक्ति भवन पर हो रही थी जहां से लोकतंत्र का मंदिर कहा जाने वाला संसद मात्र चंद मिनटों की दूरी पर है। देश के तमाम सांसद जिसको की हम देश की जनता का प्रतिनिधि कहते हैं इस नजारे को अपने घर में बैठ कर भी देख रहे होंगे क्योंकि घटना की जगह और उनके घर के बीच में बस एक सड़क है जिसे रफीमार्ग कहते हैं। लेकिन इस पर कोई भी पार्टी मंत्री से संतरी तक ने किसी प्रकार की प्रतिक्रिया नहीं दी।
मजदूरों के साथ-साथ मेहनतकश जनता, किसानों, दलितों, अल्पसंख्यकों, आदिवासियों की यही हालत है। जब किसान गंगाएक्सप्रेस वे, यमुना एक्सप्रेस हो या सेज के खिलाफ लड़ता है तो उनको हरेक तरह की यातनायें दी जाती हैं, झूठे केसों में फंसाकर जेलों में डाला जाता है या गोलियों से भून दिया जाता है । वह नन्दीग्राम, सिंगुर हो या कलिंगानगर, काशीपुर हो या पंजाब, और उत्तर प्रदेश या देश के किसी भी हिस्से में यही हालत है। दूसरे को कानून की दुहाई देने वाले खुद ही कानून को ठेंगे पर रखते हैं। कानून द्वारा जनता के हित में जो भी एक-दो फैसले आ जाते हैं उसको भी ये कानून के रखवाले नहीं मानते हैं, जैसा कि आप सलवा जुडूम के फैसले में देख सकते हैं।
जिस तरह मारूति सुजुकी मजदूरों को कातिल बनाये जाने के विरोध में दिल्ली के संगठनों को थाने ले जाया गया। उसी तरह की घटना 19 जून को पंजाब के पटियाला में हुई। पटियाला जिले के चरसों, बलबेड़ा गांव में किसानों को लाठियों से पीटा गया, गोलियां चलाई गई जिसमें करीब दो दर्जन किसान घायल हो गये। जब इन घायल किसानों से मिलने पटियाला अस्पताल में बीकेयू (दकौंदा) के किसान नेता गये तो उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। जब बीजापुर के जनसंहार मंे मारे गये परिवार के लोग हैदराबाद जाकर अपनी बात सुनाना चाहते हैं तो उन परिवार वालों के साथ साथ आन्ध्र प्रदेश सिविल राइट्ज (एपीसीएलसी) के दो लोगों को गिरफ्तार कर लिया गया। इस तरह की घटनायें देश में आये दिन हो रही है। यानी लूट शोषण के खिलाफ बोलोगे तो मारे जाओगे।
यह दिन के उजाले की तरह साफ है कि देशी विदेशी लुटेरों (कारपोरेट घरानों) की लूट को दिन दूना, रात चौगूना बढाने के लिये भारतीय शासक वर्ग के नेतृत्व में यह किया जा रहा है। इस लूट को बनाये रखने के लिए हर तरह के दमन-उत्पीड़न का सहारा लिया जा रहा है। मेहनतकश जनता की हर आवाज को दबाया जा रहा है, यहां तक कि जनवाद पसंद बुद्धिजीवियों को भी तरह तरह से डरा-धमका कर चुप रहने या प्रलोभन देकर अपने पक्ष में करने की कोशिश की जाती रही है।
इस दमन उत्पीड़न से जनता का विश्वास इस व्यवस्था से उठ चुका है। आम जनता ही नहीं मजदूरों-किसानों के घर से आये फौज, पैरामिलिट्री या पुलिस में जो जवान है उनका भी विश्वास अफसरशाही लोकतंत्र से डिगने लगा है उसके अन्दर भी बेचैनी बढ़ने लगी है। क्योंकि इन जवानों और अफसरों के बीच भी अंतर है जवान मेहनतकश जनता के घर से आये हैं जब कि ज्यादातर अफसर बड़े घरों से हैं जो कि दूसरे की मेहनत पर जिन्दा रहते हैं। इस बेचैनी का एक रूप है दिल्ली में श्रम शक्ति भवन पर सिपाही द्वारा प्रदर्शनकारियों पर अमानवीय व्यवहार न करना और एसएचओ के दृष्टि में वह गुनहगार हो गया। सेना के अंदर भी अफसरों व सैनिकों के बीच टकराव बढ़ रहा है। लद्दाख के न्योमा में मई माह में सैनिकों और अफसरों के बीच मार-पीट उसके बाद जम्मू-कश्मीर के सांबा कैंप में एक सैनिक के आत्महत्या के बाद बख्तरबंद जवानों और अफसरों में टकराव। लेकिन यह टकराव अभी स्वतःस्फूर्त हो रहे हैं जिस दिन यह टकराव वैचारिक रूप से अपने को जोड़ लिया और अपने आप को ये शोषित-उत्पीड़ित जनता के साथ खड़ा कर लेंगे उसी दिन से इन लूटेरों का अंतिम दिन नजदीक आ जाएगा।