पर्यावरण, नदी, पहाड़ बचाने का संकल्प : विश्व पर्यावरण दिवस 5 जून को रैली एवं जनसभा का आयोजन
जब पहाड़ टूटता है-तब सिर्फ मिट्टी, पत्थर-कंकड़, बालू, पेड़-पौधे ही नहीं गिरते हैं वरन नष्ट होता है वहां का समाज, उस समाज की भाषा-संस्कृति, पहचान, उस इलाके का इतिहास, पर्यावरण, नदी-झरने। पहाड़ों के विलीन होते ही, उस इलाके की सामाजिक एकता-सामूहिकता के साथ प्रकृतिकमूलक सभ्यता और संस्कृति भी विलीन हो जाती है। और यहीं से शुरू होता है-प्राकृतिक आपदाओं का सिलसिला। कभी बाढ़ तो, कभी सूखा। कभी भूकंप तो, कभी महामारी। कभी तेज गर्मी तो, कभी हड्डी को कंपा देने वाली ठंडक। किसानों को आशा दिलाने वाले, आकाश में मंडराते काले बादलों की जगह विस्फोटों से ध्वस्त होते पहाड़ों से उड़ते धूल और कारखानों के उगलते काले धुओं का साम्राज्य स्थापित होता है। इसी की देन है जलवायु परिर्वतन। शायद इसी को विश्व के पर्यावरणविद और भूगर्भशास्त्री ग्लोबल वार्मिंग कहते हैं।
पर्यावरण और प्राकृतिक सुंदरता के नाम पर देश को विशिष्ट पहचान देने वाले हिमाचल के ऊपर पर्यावरण प्रदूषण और ग्लोबल वार्मिंग के बादल मंडराते दिखाई दे रहे हैं। देश के सैलानियों को अपनी प्राकृतिक छटा में डुबो देने वाला शिमला अब अपना अस्तित्व खोता दिखाई दे रहा है। अब यहां भी गर्मी अपनी उपस्थिति दर्ज करा चुकी है तथा पानी की समस्या भी शुरू हो गयी है। शिमला की मनमोहक वादियों से बाहर करीब 250 किलोमीटर का सफर तय करने के बाद किन्नौर के मरूस्थलीय तीखे पर्वतीय इलाके औद्योगिकीकरण की मार का बयान शुरू कर देते हैं। सतलुज नदी के साथ-साथ ही रिकांग पियो पहंुचा जा सकता है। नदी के दोनों किनारे तीव्र तीखी चट्टान नुमा पहाड़ हैं। इस पहाड़ को काट कर, चट्टान को फाड़ कर ग्रीफ ने नदी के बाजु से पियो तक रोड बना दिया है। दूसरे किनारे के पहाड़ पर रोड बनाने की प्रक्रिया शुरू कर दी गयी है। रोड के किनारे जहां-तहां प्लास्टिक से ढंकी झोपड़ियां मिलेेंगी, जिसमें झारखंड और उतरप्रदेश के मजदूर जो सड़क निर्माण के काम में लगे हैं वे रहते हैं। नदी पर जगह-जगह डैम बांध कर पानी को रोका गया है। इस जल संग्रहण क्षेत्र में जगह-जगह दर्जनों सुरंगें बनाई गई हैं। कई परियोजनाओं के लिए कई सुरंगे निर्माणाधीन हैं। पूरी नदी में दर्जनों परियोजनाएं पूरी हो चुकी हैं। दर्जर्नों अभी निर्माणाधीन है। पूरी नदी में जगह-जगह सैंकड़ो बुलडोजर, ट्रक, जेसीबी मशीन, मिक्सचर मशीन, डम्फर दिन-रात चल रहे हैं। जगह-जगह में जे0 पी0 कंपनी के बड़े-बड़े क्रेशर चल रहे हैं। कई जगहों में इसकी सीमंेंन्ट की फैक्ट्री भी चल रही है। नदी में ही कई छोटे शहर बसते जा रहे हैं। जे0 पी0 कंपनी का कार्यालय तथा कालोनी भी नदी के किनारे ही बनाई गई है। जहां तक नजर जाती है-कंपनियों द्वारा निर्माणाधीन कार्य ही दिखाई देता है।
नदी के दोनों किनारों, पहाड़ की ढलान पर तमाम गांव बसे हैं। जो आज नहीं तो कल परियोजनाओं के प्रभाव में आ कर नदी में विलीन हो जाएगें। पहाड़ की उंची चोटियों में कहीं-कहीं जमी सफेद बर्फ दिखाई देती हैं। उस पिघलते बर्फ का स्वच्छ पानी पहाड़ से होते हुए सतलुज में जगह-जगह आकर मिलता है। लेकिन नदी में मिलते ही स्वच्छ पानी का रूप बदल जाता है। सीमेंट फैक्ट्री का पानी, बिजली सयंत्र का पानी, साथ ही गिर रहे पहाड़ का मिटटी-बालू नदी के पानी में घुलता जाता है। इस कारण पानी का रंग सीमेंट के घोल की तरह दिखाई देता है।
रिकाँग पियो पहंुचते ही यह दृश्य बदल जाता है। 5 जून को सफेद बर्फ की चादर ओढे हिमाचल की वादियों से घिरे रिकाँग पियो शहर हिमाचल बचाओ-देश बचाओ, रिकोंग पियो बचाओ -पर्यावरण बचाओ, पर्यावरण का विनाश बंद करो, कंपनियों की मनमानी नहीं चलेगी के गगन भेदी नारों से गूंज उठा था। विश्व पर्यावरण दिवस के मौके पर सैकड़ों की संख्या में जनता ने रोड पर उतर कर – पर्यावरण, नदी, पहाड़ को सुरक्षित रखने का संकल्प लिया। अपनी बातों को जनमानस तक पहुंचाने के लिए हजारों महिला-पुरूषों, युवक-युवातियों ने; पर्यावरण बचाओ-देश बचाओ, लिखे हुए प्लेकार्ड थामे नारे लगाते हुए रैली भी निकाली। बाद में जिला मुख्यालय स्थित रामलीला मैदान में रैली सभा में तब्दील हो गयी। देश के कई हिस्सों से आये पर्यावरणविदों ने देश के पर्यावरण संकट से बढ़ रहे जलवायु परिर्वतन पर चिंता जाहिर की। विश्व पर्यावरण दिवस के मौके पर पर्यावरण चिंतकों ने देश की धरोहर जल-जंगल-जमीन, पहाड़ नदी-नालों के साथ किसी तरह की छेड़छाड़ की इजाजत किसी कंपनी या सरकार को नहीं देने का संकल्प लिया। किन्नौरवासियों ने सतलुज नदी की रक्षा करने की मांग सरकार से की। सभा के बाद रिकॉँग पियो की उपायुक्त सु़श्री ममता को 20 सूत्री मांगपत्र भी सौंपा गया।
सभा में चिंता जाहिर की गई कि-हिमालय में किन्नौर जिला विकास के तथाकथित सौदागरों द्वारा उत्पन कई पर्यावरणीय समस्याओं का सामना कर रहा है। यह जिला सतलुज नदी के दोनों किनारों की तीव्र ढलानों पर स्थित है। यह हिमाचल के उत्तरपूर्व में स्थित चट्टानी ढ़लान वाला क्षेत्र है। इस का कुल क्षेत्रफल 6401 वर्ग किलोमीटर है। इस क्षेत्र के गांवों की उंचाई समुद्रतल से 7000 सें 12000 फुट तक है। वांगतु से ऊपर वर्षा बहुत कम होती है। मानसूनी हवायें यहां तक नहीं पहंुच पाती हैं। वर्षा न होने के कारण यहां पर वानस्पतिक आवरण न के बराबर है। इसलिए वांगतु से उपर के क्षेत्र को शीत मरूस्थल कहा जाता है। पहाड़ी मरूस्थल कितना नाजुक होता है इसका अंदाजा यहां के हर कदम पर भूस्खलन बिंन्दुओं से लगाया जा सकता है। एक ओर तो किन्नौर का समूचा क्षेत्र पहले से ही अत्ंयत संवेदनशील है वहीं दूसरी ओर 21वीं सदी के पदार्पण के साथ ही इस जिले के सामने अनेक प्राकृतिक संसांधनों के अंधाधुंध दोहन से यहां का पर्यावरण खतरे में है। किन्नौर जिले में एक के बाद एक लगातार कई निर्माणाधीन एवं प्रस्तावित जलविद्युत परियोजनाओं के कारण इस क्षेत्र का अस्तित्व संकट में हैं। किन्नौर में स्थित सतलुज जल संग्रहण क्षेत्र इस इलाके की पर्यावरणीय जीवनशैली के लिए अभिशाप बन चुका है। सतलुज जल संग्रहण क्षेत्र में नाथपा-झाखडी-1500 मेगावाट, संजय परियोजना-120 मेगावाट, बास्पा प्प् – 300 मेगावाट, रूकती-1.5 मेगावाट पहले से ही क्रियान्वित है और करछम-वांगतु-1000 मेगावाट, काशंग1- 66 मेगावाट, शोरांग 100 मेगावाट, ओर टिडोंग-100 मेगावाट परियोजनाएं निर्माणाधीन हैं। चांगो-यंगथंग-140 मेगावाट, यंगिंग-खाब 261 मेगावाट, खाब-श्यासो 1020 मेगावाट, जंगी-ठोपन 480 मेगावाट, ठोपन-पवारी-480, शौगठोंग-करछम 402 मेगावाट तथा टिडोंग 2-60 मेगावाट शुरू होने को है। इस के अतिरिक्त श्यासो-स्पिलो 500 मेगावाट, काशंग 2-48 मेगावाट, काशंग 3-130 मेगावाट, बासपा 1-128 मेगावाट, रोपा 60 मेगावाट प्रस्तावित है। 12 हाईड्रो प्रोजक्ट प्रस्तावित -पाईपलाइन में है, जिससे लगभग 4000 मेगावाट बिजली पैदा करने की योजना है। इसके साथ ही कई अन्य कंपनियां परियोजना के लिए जमीन का सर्वे का काम रही हैं।
(5 जून 2010 को रिकांग पियो की रैली से लौटकर आदिवासी मूलवासी अस्तित्व रक्षा मंच, झारखण्ड की अगुआ दयामनि बारला की रिपोर्ट के अंश)
जिस्पा बांध विरोधी आंदोलन, केलांग
केलांग (लाहौल-स्पीति) भी किन्नौर की तरह एक जनजातीय जिला है। यह हिमाचल प्रदेश का आखिरी जिला है जिसकी सीमाएं किन्नौर व चीन (तिब्बत) से लगती हैं। हिमाचल प्रदेश पॉवर कारपोरेशन ने चन्द्रा नदी पर लाहौल के जिस्पा गांव के पास जिस्पा 300 मेगावाट की जल विद्युत परियोजना प्रस्तावित की है। परियोजना के लिए चन्द्रा नदी पर 200 मीटर ऊँचा जिस्पा बांध बनाने की योजना है जिसमें लाहौल-स्पीति के पांच गांव जिस्पा, सुमदो, दारचा, हिंक्यूम और दारचा दो विस्थापित होंगे।
यहां के स्थानीय निवासियों ने इस बांध के विरोध में जिस्पा बांध संघर्ष समिति का गठन किया गया है जिसने प्रस्तावित बांध के विरोध में जन समर्थन जुटाने के लिए हस्ताक्षर अभियान शुरू कर दिया है। 30 मई 2010 को संघर्ष समिति ने जिस्पा के फोटांग में तोद घाटी की तीनों पंचायतों- कोलंग, दारचा और यूरनाथ के लोगों की एक आपात बैठक बुलाई जिसमें संघर्ष की रणनीति पर चर्चा की गई तथा दो कमेटियों का निर्माण किया गया।
जिस्पा बांध संघर्ष समिति ने 7 जून 2010 को सितिंगरी से केलांग तक लगभग 7 किलोमीटर लंबी पैदल यात्रा निकाली जिसमें एक हजार महिला और पुरुषों ने भाग लिया। संघर्ष समिति के संयोजक रिगजिन ने जिला परिषद उपाध्यक्ष पद से इस्तीफा देने का ऐलान करते हुए कहा कि प्रदेश में जल विद्युत परियोजनाओं के नाम पर 11 जिलों को तबाह कर दिया गया है।
सभा के अन्त में प्रस्ताव पारित किया गया जिसमें सरकार को चेतावनी देते हुए लोगों ने ऐलान किया कि इस प्रोजेक्ट को किसी भी कीमत पर नहीं बनने दिया जायेगा, चाहे इसके लिए अपनी जान की बाजी ही क्यों न लगानी पड़े, तो भी लोग पीछे नहीं हटेंगे।
जे.पी. सीमेंट ग्राण्डिक यूनिट तथा थर्मल प्लांट विरोधी आंदोलन बघेरी
जे.पी. कंपनी बघेरी, टिक्करी, पंडियान, (तहसील नालागढ़, जिला सोलन, हिमाचल प्रदेश) गांवों की लूहन्टु नदी में 2.0 एमटीपीए सीमेंट ग्राण्डिग यूनिट तथा 25 मैगावाट मल्टीफ्यूल आधारित थर्मल ऊर्जा प्लांट व 3 ग 10.89 मेगावाट का डीजल जनरेटर आधारित ऊर्जा प्लांट लगाने जा रही है।
14 जनवरी 2010 से जे.पी. कंपनी द्वारा 1.75 एम.टी.पी.ए. का सीमेंट ग्राण्डिंग का प्लांट चालू कर दिया गया जबकि डस्ट नियंत्रण का कोई यंत्र अभी तक कंपनी द्वारा नहीं लगाया गया है।
हालांकि स्थानीय लोग अभी भी आंदोलनरत हैं 24 मई 2010 को बघेरी में एक रैली का आयोजन किया गया तथा घोषणा की गयी की इस जन विरोधी कंपनी को यहां से भगाकर ही दम लेंगे।
7 सितंबर 2009 को जन सुनवाई में हिम प्रवेश, हिमालय नीति अभियान के साथियों के साथ स्थानीय लोगों, 10 पंचायतों के प्रधान तथा स्थानीय एम.एल.ए, एम.पी. भी मौजूद थे- लोगों की एक ही मांग थी की हमें थर्मल प्लांट नहीं चाहिए। लोगों ने जबरदस्त विरोध दर्ज करवाया। हिमाचल प्रदेश प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने व्यापक जन विरोध को देखते हुए कहा कि जे.पी. कंपनी पंजाब बोर्ड पर थर्मल प्लांट लगा रही है इसलिए यह केन्द्र सरकार के अधिकार क्षेत्र में आता है।
केन्द्र सरकार ने एक कमेटी का गठन कर दिया। इस कमेटी के सामने भी लोगों ने अपना विरोध दर्ज करवाया लेकिन खेद की बात है कि इतने जबरदस्त विरोध के बावजूद भी इस कमेटी से 10 मार्च 2010 को जे.पी. कंपनी को 10 मैगावाट के थर्मल प्लांट की प्रदूषण की स्वीकृति मिल जाती है।
इस कमेटी के निर्णय से पहले ही फरवरी 2010 में सुप्रीम कोर्ट का भी 2007 से लंबित मामले में निर्णय आ जाता है कि जे.पी. कंपनी को चरावण की भूमि 95 साल के लिए लीज़ पर दे दी जाय।
लोगों के विरोध के बावजूद जे.पी. कंपनी प्रशासन, दलाल, न्यायालयों के सहयोग से अपनी योजना पर काम करती जा रही है।
हरिपुर नाला (पखनोज वाला) माइक्रोहाइडेल प्रोजेक्ट विरोधी आंदोलन, कुल्लू
जिला कुल्लू में मनाली-नग्गर रोड पर हरिपुर नाले पर माइक्रो हाइड्रो पावर प्लांट निर्माणाधीन है। 4 अप्रैल 2010 को ग्राम पंचायत हलाणा प् की ग्रामसभा ने इस पावर प्लांट के खिलाफ प्रस्ताव पारित किया। इस नाले को बचाने के लिए जल-जंगल-जमीन बचाओ आंदोलन संघर्ष समिति के साथी हिमालयन स्की विलेज के विरोध में सफल आंदोलन चला चुके हैं। इस पावर प्लांट से 5 हजार हेक्टेयर भूमि की सिंचाई प्रभावित होगी तथा तीन पंचायतों के 109 गांवों की पेयजल आपूर्ति भी प्रभावित होगी। इस नाले पर हाइड्रो प्रोजेक्ट के लगने से 15 हजार लोग सीधे प्रभावित होंगे। इस प्रोजेक्ट पर सरकार द्वारा गठित तीन सदस्यों की समिति ने स्थानीय लोगों द्वारा जताई गयी चिंताओं को बिल्कुल भी तवज्जो नहीं दी तथा अपनी रिपोर्ट में इसका जिक्र तक नहीं किया। मई 2010 में संघर्ष समिति के साथियों ने कुल्लू के जिलाधिकारी को ज्ञापन दिया तथा समिति की रिपोर्ट और सिफारिशों को रद्द करने की मांग की। साथ ही संघर्ष समिति ने इस प्रोजेक्ट के निर्माण कार्य को स्थगित करने की धमकी भी दी जिसके फलस्वरूप इस प्रोजेक्ट का काम अभी भी रुका हुआ है।
टावर लाइन एवं पावर पुलिंग स्टेशन विरोधी आंदोलन, बनाला
बनाला में पिछले दो साल से लोग पावर पुलिंग स्टेशन के विरोध में संघर्ष कर रहे हैं। यहां पर पावर पुलिंग स्टेशन (हब) प्रस्तावित है जिसके अन्तर्गत यहां पर कई परियोजनाओं की बिजली को एक जगह पर एकत्रित करने के बाद उसका वितरण किया जायेगा।
हिमाचल प्रदेश में अभी 6 हजार मेगावाट जल विद्युत का उत्पादन हो रहा है। इन परियोजनाओं से उत्पादित विद्युत को ग्रिड तक ले जाने के लिए हर परियोजना अपनी टावर लाईन बिछा चुकी है। अगले तीन वर्षों में हिमाचल प्रदेश में 11 हजार मेगावाट जल विद्युत का उत्पादन शुरू हो जाएगा। इन परियोजनाओं की टावर लाइन भी तब तक बन जायेगी। ज्यादातर टावर लाइन मण्डी, बिलासपुर होते हुए नालागढ़ की तरफ जा रही हैं। इन इलाकों के कुछ क्षेत्रों के ऊपर टावर लाइनों का जाल बिछ जायेगा, जबकि अभी यह टावर लाइन जाल कुल्लू, किन्नौर, चम्बा से होते हुए मण्डी, शिमला, बिलासपुर, सोलन व नालागढ़ की ओर दिख रहा है।
हिमालय नीति अभियान के साथी गुमान सिंह टावर लाइनों के प्रभावों को इस प्रकार बताते हैं कि-
- टावर लाईन सरकारी व निजी भूमि के ऊपर से निकल रहा है जिसके लिए केवल टावर की जगह कंपनियां खरीद या लीज पर ले रही हैं जबकि लाईन के नीचे 10 मीटर के दायरे में पेड़ों को हटाया जाता है।
- उक्त भूमि जिस के ऊपर से तार की लाइनें जा रही हैं उसके नुकसान की भरपाई नहीं की जा रही है जबकि नीचे जंगल, बगीचे, खेती व रिहायशी घर भी मौजूद हैं।
- टावर लाईन के तारों की बिजली का इलेक्टो मैगनेटिक फील्ड का घेरा 100 फुट का होता है जिससे रेडिएशन होता है। रेडिएशन से मनुष्य, पालतू पशु, वन्य प्राणियों, पक्षियों, जंगल, सेब व अन्य फलों के बगीचों, खेती तथा अन्य जीव जगत पर भारी दुष्प्रभाव आंका गया है।
- टावर लाइन के नीचे रहने वाले मनुष्यों पर वैज्ञानिक अध्ययनों से यह साबित हो चुका है कि नपुंसकता में 5 से 10 गुणा बढ़ोतरी हो गयी है। अपंगता, चर्म रोग, कैन्सर में 5 गुणा बढ़ोतरी आंकी गई है। रेडिएशन के कारण रक्तचाप, डिप्रेशन, गर्भपात भी हो रहे हैं। यही प्रभाव अन्य पालतू पशुओं व वन्य प्राणियों में भी देखे गये हैं इससे पक्षियों का तो समूल नाश हो जाता है।
- तारों के नीचे 10 मीटर तक पेड़ हटाने पड़ते हैं तथा धीरे-धीरे नष्ट हो जाते हैं। इससे बगीचों की उत्पादकता घट जाती है। रों के टूटने से आग लगने व करंट का अंदेशा तो है ही। टावर लाईन युद्ध की स्थिति में सबसे ज्यादा संवेदनशील निशाना बन जाते हैं। जबकि नीचे चलने वाले हवाई परिवहन के लिए भी यह टावर लाईन घातक है, जिसकी जरूरत आपातकाल तथा आपदा के समय बहुत होती है।
- प्रदेश में कुल्लू, किन्नौर, चम्बा, मण्डी, शिमला, बिलासपुर, सोलन व नालागढ़ में लोग इसके विरोध में आंदोलन कर रहे हैं। हिमालय नीति अभियान जल्दी ही टावर लाईन की समस्या से प्रभावितों की एक बैठक करने वाला है जिसमें आगे की रणनीति पर विचार-विमर्श किया जायेगा।
शाल घाटी बचाओ आंदोलन
वर्तमान विकास के मॉडल से त्रस्त लोगों ने शाल घाटी बचाओ संघर्ष समिति के नाम से मुहिम शुरू की है, जो शाल घाटी में निर्माणाधीन एवं प्रस्तावित माइक्रो-हाइड्रो प्रोजेक्टों के विरोध में संघर्षरत है। लेकिन सरकार लोगों के संघर्ष को दबाते हुए कंपनियों को खुली छूट दे रही है।
अप्रैल 2010 में शांतिपूर्ण धरने पर बैठे लोगों पर पुलिस द्वारा हमला किया गया जिसमें ज्ञानचंद सहित कई अन्य साथी घायल हुए। आंदोलनों में साथियों पर स्थानीय गुण्डे या जिस राज्य की कंपनी अपना प्रोजेक्ट लगा रही है या शुरू करने वाली है वहां के वेतन भोगी गुण्डे आये दिन उन्हें डरानते, धमकाते, मारपीट करते रहते हैं। इसी क्षेत्र में होलीनाला पर 125 मेगावाट का एक प्रोजेक्ट लग रहा हैं स्थानीय लोगों ने विरोध किया तो कम्पनी ने पुलिस के साथ मिलकर उन पर झूठे केस दायर करवा दिये।
लुहरी जल विद्युत परियोजना विरोधी आंदोलन
हिमाचल प्रदेश सरकार ने लुहरी 700 मेगावाट जल विद्युत परियोजना का प्रस्ताव पारित किया है। इस परियोजना के तहत सतलुज नदी का पानी नीरथ से विन्दला गांव तक एक सुरंग के माध्यम से जायेगा। नीरथ से विन्दला तक सड़क से दूरी 60 किलोमीटर है जबकि सुरंग के माध्यम से यह लंबाई 38 किलोमीटर होगी। 60 किलोमीटर की इस लंबाई में नदी के दोनों तरफ लगभग 2 लाख लोग प्रभावित होंगे।
इस प्रोजेक्ट के विरोध में आंदोलन की शुरूआत 6 जून 2010 में लुहरी में आयोजित बैठक से हुई। इस बैठक में प्रभावित पंचायतों के सरपंच तथा स्थानीय लोगों ने भाग लिया। बैठक में निर्णय लिया गया कि इस प्रोजेक्ट से व्यापक आबादी पर प्रभाव पड़ेगा। क्षेत्र के लोगों को इस प्रोजेक्ट के दुष्परिणामों के बारे में बताया जायेगा। अगली बैठक में संघर्ष समिति बनाने तथा भविष्य की रणनीति तय की जायेगी।