दयामनी बारला : फौलादी इरादों वाली भारतीय महिला
दयामनी बारला झारखंड के पूर्वी क्षेत्र में प्रस्तावित अर्सेलर मित्तल के स्टील प्लांट के खिलाफ आदिवासी आंदोलन का नेतृत्मव करती है। अपने इस काम की पहचान की वजह से दयामनी बारला को हाल ही में यूरोपियन सोशल फोरम (ईएसएफ) द्वारा स्थानीय लोगों के अधिकारों पर आयोजित एक वर्कशॉप में भाग लेने के लिए स्वीडन आमंत्रित किया गया। उन्हें विश्वभर के 23 वक्ताओं में भी शामिल किया गया जो स्थानीय लोगों के अधिकारों और पर्यावरण न्याय के लिए अपनी आवाज उठा रहे हैं।
दयामनी बारला का जीवन एक संघर्ष की कहानी है, साथ ही असाधारण दृढ़ता और उपलब्धि की दास्तान भी है। अक्सर रेलवे प्लेटफार्म पर रात गुजारने वाली बारला ने अपनी बहुत कम आमदनी से बचाकर अपनी शिक्षा पर खर्च किया। आपनी मास्टर डिग्री पूरी करने के बाद उन्होंने पत्रकारिता में प्रवेश किया और झारखण्ड की पहली आदिवासी महिला पत्रकार बनीं। अपने काम की वजह से उन्होंने कई सम्मान भी हासिल किए।
उन्होंने अपना बचपन रांची में एक छोटी सी चाय की दुकान चलाकर गुजारा जिसके बारे में उनका कहना है कि यह लोगों की बात सुनने के लिए बेहतरीन स्थानों में से एक है।
स्वीडन की कांफ्रेंस में उन्होंने झारखण्ड के चालीस गांवों की बात उठाई जो अर्सेलर मित्तल स्टील प्लांट की वजह से अपनी जमीन गंवा सकते हैं। कंपनी इस क्षेत्र में विश्व के सबसे बड़े स्टील प्लांट को लगाना चाहती है जिस पर वह 8.79 बीएन डॉलर खर्च करेगी।
ग्रीन फील्ड स्टील प्रोजेक्ट को 12000 एकड़ भूमि और एक नया पावर प्लांट चाहिए।
बरला के संगठन- आदिवासी-मूलवासी अस्तित्व रक्षा मंच (स्थानीय और आदिवासी लोगों की पहचान की सुरक्षा करने वाल फोरम) का कहना है कि स्टील प्रोजेक्ट के लगने से बड़े स्तर पर विस्थापन होगा और वन क्षेत्र की हानि होगी। इसका प्रभाव जल संसाधनों पर, इकोलॉजी पर और पर्यावरण के साथ स्थानीय लोगों के जीवन पर पड़ेगा।
बारला का कहना है कि ‘हम एक इंच जमीन भी नहीं देंगे’।
यह कहना गलत नहीं होगा कि दयामनी बारला मित्तल के लिए कुछ इसी तरह की मुश्किलें पैदा कर सकती हैं जैसी टाटा मोटर्स के लिए पश्चिम बंगाल में पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने पैदा की थीं। बारला और गांव वालों का साफ तौर पर कहना है कि ‘‘हम अपनी जान देने के लिए तैयार हैं लेकिन अपने पूर्वजों की भूमि का एक इंच भी मित्तल को नहीं देंगे। मित्तल को उनकेपुरखों क ीभूमि छीनने की इजाजत नहीं दी जाएगी।’’
अर्सेलर मित्तल के विजय भटनागर ने बीबीसी को बताया कि उनकी कंपनी किसी से जबरन भूमि लेने की कोशिश नहीं कर रही है। उन्होंने कहा कि हम तब तक इंतजार करेंगे जब तक कि मामले का हल नहीं निकल आता। उन्होंने बताया कि वे गांववालों के साथ बातचीत करने की कोशिश कर रहे हैं। उन्होंने कहा कि उनकी समस्याओं को समझते हैं औरह में उन्हें समझाने में सफलता मिल जाएगी कि झारखण्ड की पुनर्वास एवं पुर्स्थापन नीति का पालन किया जाएगा। इस संबंध में हमने प्रचार किया है।
स्थानीय कांग्रेस पार्टी की सांसद सुशीला केरकेट्टा का मानना है कि गांववाले अंत में मान जाएंगे। उन्होंने बताया कि उन्होंने गांववालों के साथ कई कामयाब मीटिंग की हैं जिनमें इस प्रोजेक्ट के फायदों के बारे में उन्हें समझाया गया है। उन्होंने कहा कि ‘‘यदि अर्सेलर मित्तल जैसे कंपनी यहां आती है तो बेरोजगारी की समस्या दूर होगी’’।
इसके बावजूद बारला के आंदोलन से जुड़े गांव वाले इस बात से इंकार कर रहे हैं।
सोशल एक्टिविस्ट और फ्रेंड ऑफ द अर्थ व इटनिया के सदस्य जो ईएसएफ वर्कश्रूाॉप के आर्गेनाइजरों में से एक हैं के बिले विक्को हिरवेला का कहना है कि ‘‘बारला का अभियान जमीनी स्तर तक संदेश देने की क्षमता रखता है।’’
बारला कहती हैं कि ‘‘कॉरपोरेट कंपनियां आदिवासी समाज की आर्थिक धारणा को नजरअंदाज कर रही हैं। आदिवासी समाज की जड़ें कृषि और वन उत्पाद से जुड़ी हुई हैं। उन्हों कहा कि प्राकृतिक संसाधन उनके लिए केवल जीविका चलाने का साधन नहीं हैं, यह हमारी पहचान, स्वायत्तता, संस्कृति और हमारी शान हैं, जो पीढ़ियों से चली आ रही है। आदिवासी समाज अपने अस्तित्व को कायम नहीं रख सकता है यदि उसे प्राकृतिक संसाधनों से दूर कर दिया जाए। उन्होंने प्रश्न किया कि क्या यह संभव है कि हमारा पुनर्वास किया जा सकता है या मुआवजा दिया जा सकता है।
साभार : बीबीसी