प्राकृतिक संसाधनों पर हक किसका ?
गुजरी 18 अप्रैल 2013 को सुप्रीम कोर्ट की ओर से फैसला आया कि वेदांता कम्पनी को उड़ीसा के नियामगिरी की पहाड़ियों में बॉंक्साइड के खनन के
लिए वहॉं की ग्राम सभा की सहमति लेनी होगी परंतु हम अपने देश में देखे, तो पिछले दो दशकों से बड़ी-बड़ी कॉंरपोरेट कम्पनियॉं
यहॉं की भूमि, नदी, खदान, पर्वत, समुद्र सब पर कब्जेदारी के लिए सीधे भारत
सरकार से करार कर रही है। फिर उस क्षेत्र से बसे लोगों को भगाने के लिए
हमारी सरकारें अपनी सेना का इस्तेमाल कर रही है। उड़ीसा, छत्त्तीसगढ़
महाराष्ट्र, तमिलनाडु, आन्ध्र प्रदेश, पश्चिम बंगाल और बहुत से प्रदेशो की
सरकारें पिछले दो दशकों से क्रूरतम तरीकों से ऐसा ही कर रही है। सर्वोच्च न्यायालय के फैसले पर सीमा आजाद की टिप्पणी;
लिए वहॉं की ग्राम सभा की सहमति लेनी होगी परंतु हम अपने देश में देखे, तो पिछले दो दशकों से बड़ी-बड़ी कॉंरपोरेट कम्पनियॉं
यहॉं की भूमि, नदी, खदान, पर्वत, समुद्र सब पर कब्जेदारी के लिए सीधे भारत
सरकार से करार कर रही है। फिर उस क्षेत्र से बसे लोगों को भगाने के लिए
हमारी सरकारें अपनी सेना का इस्तेमाल कर रही है। उड़ीसा, छत्त्तीसगढ़
महाराष्ट्र, तमिलनाडु, आन्ध्र प्रदेश, पश्चिम बंगाल और बहुत से प्रदेशो की
सरकारें पिछले दो दशकों से क्रूरतम तरीकों से ऐसा ही कर रही है। सर्वोच्च न्यायालय के फैसले पर सीमा आजाद की टिप्पणी;
सुप्रीम कोर्ट की ओर से यह उल्लेखनीय फैसला आया कि वेदान्त कम्पनी की उड़ीसा के नियामगिरी की पहाड़ियों में बॉंक्साइड के खनन के लिए वहॉं की ग्राम सभा की सहमति लेनी होगी। यह फैसला दो लिहाज से महत्पूर्ण है। पहला यह कि इस फैसले के माध्यम से पहली बार ग्राम सभा के रूप में स्थानीय लोगों की राय को महप्पूर्ण माना गया। दूसरा यह कि पहली बार संविधान के 73वें 74वें संशोधन को जमीन पर उतरने पर जोर दिया गया, जिसके मुताबिक किसी क्षेत्र के विकास में ऊपरी संस्थाओं की बजाय उस क्षेत्र की ग्राम या क्षेत्र पंचायतों की भूमिका व राय अहम होगी, कि वे अपने क्षेत्र का विकास कैसे करेंगी.
यह फैसला इसलिय भी महत्वपूर्ण है कि यह अपने आप में ढेर सरे सवाल-जवाब और दो विचारधाराओं को समेटें हुए है। पहला सवाल तो यह है, कि किसी देश के प्राकृतिक संसाधनों पर किसका कब्जा हो। दूसरा सवाल यह है कि किसी क्षेत्र के विकास का निर्णय किसका हो। यदि हम अपने देश में देखे, तो पिछले दो दशकों से बड़ी-बड़ी कॉंरपोरेट कम्पनियॉं यहॉं की भूमि, नदी, खदान, पर्वत, समुद्र सब पर कब्जेदारी के लिए सीधे भारत सरकार से करार कर रही है। फिर उस क्षेत्र से बसे लोगों को भगाने के लिए हमारी सरकारें अपनी सेना का इस्तेमाल कर रही है। उड़ीसा, छत्त्तीसगढ़ महाराष्ट्र, तमिलनाडु, आन्ध्र प्रदेश, पश्चिम बंगाल और बहुत से प्रदेशो की सरकारें पिछले दो दशकों से क्रूरतम तरीकों से ऐसा ही कर रही है। जिसे देखते हुए ऐसा ही लगता है कि इस देश के प्राकृतिक संसाधन पर सरकारों का कब्जा है और किसी क्षेत्र के विकास के लिए निर्णय लेने का अधिकार भी सरकारों के पास है।
आखिर जनता ही अपने वोट के माध्यम से सरकार बनाती है। पर हमारा संविधान जिनके मार्गदर्शन में ये सरकारे चलने का दावा करती है वह भी ऐसा नही मानता। इलाहाबाद हाईकोर्ट में विकास के इस सरकारी मॉंडल और सोच के खिलाफ मुकदमा लड़ रहे प्रसिद्व संविधान विदवकील रविकरन जैन अपने कई लिखित और मौखिक लेंखों/वक्तत्यों में बताते है कि संविधान कहता है कि प्राकृतिक संसाधनों पर मालिकाना समुदाय का यानि जनता का है, सिर्फ उसके उचित वितरण व रखरखाव का काम राज्यों यानि साकारो का है। इसी प्रकार संविधान का 73वां व 74वां संशोधन भी कहता है कि, किसी क्षेत्र के विकास कार्य के निर्णय से लेकर क्रियान्वयन का काम इस क्षेत्र की ग्राम सभाओं, नगर पंचायतों व नगर पलिकाओं का है न कि किसी ऊपरी संस्था का। ऊपरी संस्थाओं का काम निचली संस्थाओं को उन योजनाओं के लिए आर्थिक से लेकर अन्य तरीके की मदद पहुंचाना भर है।
विरोध - प्रतिरोध
इस रूप में 1950 में जवाहर लाल नेहरू की अगुवाई में बने योजना आयोग को भी श्री जैन असवेधानिक बताते है, क्योंकि उसका काम केन्द्रीय रूप से योजना बनाकर इसे नीचे तक लागू कराना है, जो कि ग्राम पंचायतों नगर पंचायतों व पालिकाओं के अधिकारों का खुला उल्लंघन है। यानी हमारें देश की विरोधाभाषी व्यव्था की शुरूआत इसकी पहली सरकार से ही हो गयी थी। एक ओर तो इस देश का संविधान इसके प्राकृतिक संसाधनों पर समुदाय का हक बताता है, दूसरी ओर नियन्त्रण यानि वितरण का जिम्मा केन्द्रीय सत्त्ता को सौपता है। एक और योजना आयोग जैसी केन्द्रीय संस्था का अस्तित्व है जो शुरू से ही साम्राज्यवादी प्रभाव व दबाव वाली विकास योजनाओं को देश में लागू करता है, और दूसरी ओर संविधान है जो विकेन्द्रित विकास के लिए ग्राम पंचायतों जिला पंचायतों, नगर पालिकायों के अधिकार की बात करता है।
सिर्फ इतना ही नही 18 अप्रैल 2013 को वेदान्त के लिए ग्राम सभाओं से सहमति लेने का फैसला सुनाने वाली भारत की उच्चतम न्यायलय ने भी 1950 से 1970 के बीच अपने कई फैसलों में प्राकृतिक संसाधनों पर मिल्कियत के मामलें में ‘एमिनेन्ट डोमेन’ का सिद्धन्त स्थापित किया। यानि सम्प्रभु-सत्त्ता सरकार की होगी। रवि किरन जैन ने इस सम्बन्ध में अपने एक लिखित आलेख में एक केस का जिक्र किया है, जिसमें संर्वोत्तम न्यायालय ने यूरोप के सोलवी शताब्दी के राजनीतिज्ञ हृागों ग्रोशस को उदधृत करते हुए कहा है ‘प्रजा की सम्पति राज्य की सम्प्रभु सत्त्ता (एमीनेन्ट डोमेन) के अधीन है। राज्य स्वंय या वह चाहे तो प्रजा को इसकी संपत्त्ति से वंचित कर सकता है और चाहे तो उसे नष्ट भी कर सकता है।’
न्यायालयों की इस समझदारी और फैसलों ने साम्राज्यवादी कोर्पोरेट घरानों की मदद के लिए सरकारों को विकास के विनाशक रास्तें पर बढने के लिए प्रेरित किया। नतीजा हम सब के सामने है। स्थानीय निवासी और पंचायते मूक दर्शक है। और उन्हें विकास योजनाओं के नाम पर लगातार उजाड़ा जा रहा है। इस क्रम में मौजूदा पीढ़ीयों तो उजड़ ही रही है आगे वाली पीढ़ीयों को भी धरती के प्रचुर प्राकृतिक संसाधनों से वंचित किया जा रहा है। खेंतो को उजाड़ कर जिस तरह से शहरीकरण किया जा रहा है उसमें आने वाली पीढ़ीयों के लिए अनाज कहां से आयोगा, यह सोचना किसी केन्द्रीय योजना आयोग की सोच के बाहर है जबकी यह स्थानीय किसानों व ग्राम सभाओं की सोच मे प्राकृतिक रूप् से उपस्थित है। मुआवजा के बल एक पीढ़ी को राहत पंहुचायी जा सकती है उसकी अगली पीढ़ियों को नही। यह स्थानीय लोगों के सामाजिक सांस्कृतिक और आर्थिक अधिकार का सवाल है।
इस सम्बन्ध में यदि हम 18 अप्रैल के उच्चतम न्यायलय के फैसले को देखें, तो वह भी ग्राम सभाओं के अधिकारों के सम्बन्ध में अपूर्ण और अपार्यप्त है। सर्वोच्य अदालत ने वेदान्ता को ग्राम सभाओं से सहमति लेने के सन्दर्भ में कहा है कि नियामगिरि के पहाड़ो पर स्थानीय लोगों का सांस्कृतिक और धार्मिक अधिकार है। परन्तु ग्राम सभाओं के आर्थिक अधिकार को फैसले में इस दायरे से बाहर ही रखा गया है यानि यदि उस फैसले के आधार पर किसी दूसरे क्षेत्र की ग्राम सभाएं जिनका आर्थिक नुकसान अधिक महत्पूर्ण है, अधिग्रहण या कब्जे के खिलाफ अदालतों में जाती है तो इस फैसले के आधार पर उन्हे राहत मिलने वाली नहीं है।
इस फैसले के सन्दर्भ में ही थोड़ी चर्चा नये भूमि अधिग्रहण कानून की भी करना जरूरी है। क्योकि पत्रिका के प्रकाशन तक यह कानून के रूप में हमारे बीच उपस्थित होगा। संभवतः अप्रैल के अन्त में आने वाले इस कानून,(जिस पर सभी दलों की आम सहमति बन चुकी है) में किसी कॉपोरेट घराने का खेती योग्य, उपजाऊ, बहुफसली भूमि के अधिग्रहण की राह बेहद आसान होने वाली है। इसके लिए सिर्फ इन दानवाकार कापोरेट घराने के मुआवजे के रूप् में कुछ रकम, जो कि राज्य सरकार तय करेगी, जमा करनी होगी, और इस पर कब्जा उनका होगा। खेती और खाद्यान के विनाश का यह एक और बड़ा खतरनाक रास्ता खुलने जा रहा है। यह सीधे-सीधे ‘एमीनेन्ट डोमेन‘ की विचारधारा को स्थापित करने का एक और रास्ता खुलने जा रहा है। यह सीधे – सीधे ‘एमीनेन्ट डोमेन‘ की विचारधारा को स्थामित करने का एक और रास्ता है, जिसमें ग्राम सभाओं के बचेखुले अधिकार भी छीन लियें जायेंगे। 100 एकड़ से कम जमीन के अधिकार भी छीन लिये जायेगें। 100 एकड़ से कम जमीन के अधिग्रहण के लिए तो अब पुनर्वास भी जरूरी नही होगा।
हालांकि यह नया बिल अधिग्रहण के अलावा मुआवजा, पुनर्वास और पुनर्स्थापना की बहुत सारी लोकलुभावना बातें करता है पर इसका सार वही है जो ‘एमीनेण्ट डोमेन‘ का है। उसी फैसले मे जिसमें सवौच्य न्यायालय ने ह्यूगो ग्रोशस को उदधृत किया था, दार्शनिक काण्ट को भी उदधृत कर किया, जिसके अनुसार ‘‘राज्य में स्वाभाविक रूप से ‘सम्प्रभु सत्त्ता‘ का निवास है वह प्रजा की संपत्त्ति है, बशर्ते उन्हें उचित मुआवजा दिया जाय।‘‘ यह दर्शन हमारी सरकार को सूट करता है क्योकि जबरन अधिग्रहण की क्रूरता के साथ पुनर्वास का लोक लुभावन चेहरा भी है। इसीलिए वह ‘अधिग्रहण होना चाहिए या नहीं की बहस से बाहर निकलकर उचित-अनुचित मुआवजे की राजनिति में लोगों का उलझाना चाहती है। पिछले कई सालों से अधिग्रहण के खिलाफ होने वाले आन्दोलेनो को तोड़ने के लिए भी वह इसी तरह की राजनीतिक गोटी खेलती रही है।
फिर भी भूमि अधिग्रहण के खिलाफ पूरे देश में आज जितनी तेजी से और जितन मजबूत आन्दोलन उठ रह है, यह फैसला उसी का नतीजा है। इन आन्दोलनों ने इस सवाल को सतह पर ला दिया, कि किसी क्षेत्र में विकास कैसा होगा, इसका फैसला स्थानीय लोगो को छोड़कर कैसे किया जा सकता है? उनकी अनुमती के बगैर कैसे किया जा सकता है? यह फैसला अधिग्रहण के खिलाफ होने वाले आन्दोलनो की एक छोटी किन्तु महत्त्वपूर्ण जीत है। परन्तु सरकारें अपने नख-दन्त और पैने कर रही है। जिसका एक उदाहरण आने वाला भूमि अधिग्रहण कानून है। स्थानीय निवासियों और संस्थाओं को छोड़कर विकास योजनाओं और भूमि अधिग्रहण, फिर उससे उठे आन्दोलनों से पूरे देश की जो स्थिति बन रही है, उसे देखते हुए यही लगता है कि आने वाले समय में राज्य और प्रजा के बीच यह संघर्ष का मुख्य केन्द्र बनने वाला है। मौजूद फैसला इस संघर्ष का एक छोटा सा किन्तु महत्त्वपूर्ण पड़ाव है।
साभार: दस्तक