भूमि अधिग्रहण बिल के खिलाफ प्रदर्शन : योगेंद्र यादव पुलिस हिरासत में !
नई दिल्ली के जंतर-मंतर पर 10 अगस्त 2015 को भूमि अधिग्रहण बिल के खिलाफ किसानों के साथ प्रदर्शन कर रहे स्वराज अभियान के सदस्य योगेंद्र यादव और उनके करीब 90 साथियों को शांति भंग के आरोप में दिल्ली पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया है। कल रात को योगेंद्र यादव और उनके साथियों को दिल्ली पुलिस ने जंतर-मंतर से हिरासत में लिया था। जिसके बाद योगेंद्र को रात पुलिस हिरासत में गुजारनी पड़ी। योगेंद्र ने आरोप लगाया है कि पुलिस ने हिरासत में उनके साथ अभद्रता और मार पिटाई की।
योगेंद्र यादव का संगठन स्वराज अभियान भूमि अधिग्रहण बिल का विरोध कर रहा है। इसी के तहत ये लोग जंतर-मंतर पर प्रदर्शन कर रहे थे। रैली में शामिल लोग जब प्रधानमंत्री आवास की ओर जाने की कोशिश करने लगे तो पुलिस ने इन लोगों को हिरासत में ले लिया।
ज्ञात रहे कि जय किसान आंदोलन के तहत किसानी से जुड़े 4 मुद्दों को लेकर 1 अगस्त को पंजाब में बरनाला के टेकरीवाल गांव से संयोजक योगेन्द्र यादव द्वारा किसान ट्रैक्टर मार्च शुरू की गयी। 10 अगस्त को जंतर-मंतर पर स्वराज अभियान द्वारा देश भर के किसानों को इस मार्च के लिए आमंत्रित किया गया। जय किसान आंदोलन का समर्थन देश के 75 किसान संगठनों द्वारा किया गया।
भूमि अधिग्रहण द्वितीय संशोधन बिल 2015 को वापस लेने, किसानों के लिए न्यूनतम आय की गारंटी देने, प्राकृतिक आपदाओं का मुआवजा औसत उत्पादन से कम हुए उत्पादन के समर्थन मूल्य के बराबर मुआवजो दिये जाने तथा 2 एकड़ प्रति परिवार के हिसाब से भूमिहीनों को जमीन आबंटित किये जाने के मुद्दे को लेकर यह यात्रा की गयी।
यात्रा का उद्देश्य किसानों के साथ संवाद था। इस कारण 10 दिवसीय यात्रा के दौरान योगेन्द्र यादव ने लगभग 250 नुक्कड़ सभाएं करते हुए पंजाब, हरियाणा, प. उत्तर प्रदेश तथा दिल्ली के किसानों के साथ बातचीत की। पानीपत जैसे कुछ स्थानों पर यात्रा का सौ से अधिक टैªक्टरों के साथ स्वागत किया गया।
जय किसान आंदोलन के तहत किसानों से अपने खेत की मिट्टी कलश में लेकर जंतर-मंतर पहुंचने की अपील की गयी। स्वराज अभियान से प्राप्त जानकारी के अनुसार यह लेख लिखे जाने तक 5000 कलश एकत्रित किये जा चुके थे। देश भर से इकट्ठी की गयी मिट्टी का किसान स्मारक बनाने की मांग जय किसान आंदोलन द्वारा की जा रही है।
उल्लेखनीय है कि देश में अब तक किसान आंदोलनों के दौरान आजादी के पहले और आजादी के बाद शहीद हुए किसानों का कोई स्मारक नहीं है। ना ही गत 68 वर्षों में आत्महत्या करने वाले 5 लाख से अधिक किसानों का कोई स्मारक बना है। इस दृष्टि से यह अनौखा आंदोलन है जो स्मारक बनाने की जगह भी सुझा रहा है। जय किसान आंदोलन की मांग है कि किसान स्मारक रेस कोर्स रोड पर उस स्थान पर बनाया जाय जहां प्रधानमंत्री निवास के सामने घुड़ दौड़ का जुआ खेला जाता है। रेस कोर्स की यह जमीन अंग्रेजों ने एक किसान से बिना मुआवजा दिये ली थी, बाद में उसे जुआ घर चलाने वाली कंपनी को दे दिया गया। 1997 में लीज समाप्त होने के बाद पुनः कंपनी को जमीन आबंटित कर दी गयी। इस स्थान की मांग करने के पीछे जय किसान आंदोलन का तर्क है कि प्रधानमंत्री निवास के सामने किसान स्मारक बनाये जाने से देश के प्रधानमंत्री किसानों की त्रासदी को लेकर सोचने के लिए मजबूर होंगे। यूं भी नैतिकता के आधार पर प्रधानमंत्री निवास के सामने घुड़ दौड़ के नाम पर जुआ घर चले, यह किसी के गले उतरता नहीं है। उल्लेखनीय है कि रेस कोर्स पर स्वराज अभियान द्वारा अचानक एक प्रदर्शन योगेन्द्र यादव और प्रशान्त भूषण के नेतृत्व में किया जा चुका है।
यह तो सभी जानते हैं कि जय किसान आंदोलन की मांगों को लेकर सरकार के कानों में जूं तक रेंगने वाली नहीं है। लेकिन भू-अधिग्रहण का मुद्दा राष्ट्रव्यापी आंदोलन का बड़ा मुद्दा बन चुका है। सरकार द्वारा भू-अधिकार अध्यादेश लाने के बाद से अब तक देश भर में हजारों किसान आंदोलन हो चुके हैं, केवल जंतर-मंतर में 500 से लेकर 50,000 किसानों के 100 से अधिक आंदोलन हुए हैं, जिसके चलते सरकार बैकफुट पर आने के लए मजबूर हुई है। भू-अधिग्रहण से जुड़ा एक अहम मुद्दा अब तक गत 68 वर्षों में हुए भू-अधिग्रहण का है, किसान संगठनों के अनुसार अब तक 10 करोड़ व्यक्ति अर्थात लगभग 2 करोड़ परिवारों की जमीन अधिग्रहित की गयी है जिसमें से 27 प्रतिशत जमीन का उपयोग भी अब तक हुआ नहीं है। यूपीए सरकार द्वारा विशेष आर्थिक क्षेत्र के तहत अधिग्रहित जमीन की भी यही हकीकत है। इसीलिए जय किसान आंदोलन सरकार से भू-अधिग्रहण तथा विस्थापित परिवारों के पुनर्वास को लेकर स्वीकृति की मांग कर रहे हैं तथा अब तक उपयोग में नहीं लायी गयी जमीन किसानों को वापस दिये जाने की पैरवी कर रहे हैं।
देश में पहली बार किसान संगठनों, पार्टियों, जातियों, क्षेत्रों एवं धर्मों से ऊपर उठकर भू-अधिग्रहण का विरोध करने के लिए एकजुट हुआ है। पिछली बार जब एकजुट हुआ था तब पार्टियों को अंग्रेजों के जमाने के कानून को बदलने के लिए मजबूर होना पड़ा था। अबकी बार किसानों की राष्ट्रव्यापी एकजुटता ने सरकार को दो बार अध्यादेश लाने के बावजूद पीछे हटने के लिए मजबूर किया है जिससे आने वाली सरकारें यह सबक सीखने के लिए मजबूर होंगी कि उन्हें किसानों के संवेदनशील मुद्दों को नहीं छेड़ना चाहिए। यह सबक वैसा ही होगा जैसा इमरजेंसी के बाद देश के मतदाताओं ने इंदिरा गांधी को हराकर सभी पार्टियों और सरकारों को दिया था जिसके चलते कोई भी सरकार इमरजेंसी लगाने पर विचार करने से घबरायेगी।
सरकार यदि अध्यादेश के माध्यम से लाये गये संशोधनों को वापस ले लेती है तथा यूपीए द्वारा पारित भू-अधिग्रहण कानून को विपक्ष को मान्य कुछ संशोधनों के साथ संसद में पेश करती है तब यह देखना दिलचस्प होगा कि विपक्ष भू-अधिग्रहण को लेकर क्या भूमिका लेता है। किसान संगठन लंबे अरसे से ग्रामसभा की सहमति के बिना कृषि योग्य भूमि के अधिग्रहण पर रोक तथा 5 वर्ष तक अधिग्रहित जमीन का उपयोग न किये जाने पर जमीन की किसान को वापसी तथा किसान द्वारा मुआवजा न लेने तथा 5 वर्षों तक अधिग्रहण की अधिसूचना के बाद जमीन पर कब्जा बने रहने की स्थिति में मालिकाना हक पाने की मांग करता रहा है। भूमि अधिकार आंदोलन के तहत देश के किसान संगठन एवं किसान सभाएं अब तक उपयोग में नहीं लायी गयी अधिग्रहित जमीनों पर किसानों से कब्जा करने की अपील की जा रही है तथा कई स्थानों पर इस आशय के आंदोलन भी शुरू कर दिये गये हैं।
जय किसान आंदोलन केंद्र सरकार के चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारियों को मिलने वाले न्यूनतम 15 हजार प्रति माह वेतन के बराबर हर किसान परिवार को आय की गारंटी देने की मांग कर रहा है जिसका अर्थ यह नहीं कि किसानों को घर बैठे 15 हजार का चैक दिया जाय बल्कि यह कि मूल्य आयोग किसानों के श्रम का मूल्य केंद्र सरकार के कर्मचारी के बराबर तय करे। अनुसूचित जाति/जनजाति आयोग के उपाध्यक्ष रहे डॉ. बी.डी. शर्मा किसान को कुशल कारीगर के बराबर पारिश्रमिक देने की मांग पहले से ही करते रहे हैं। किसान संघर्ष समिति जैसे संगठन पहले ही मूलतापी किसान घोषणापत्र के माध्यम से इस मांग को लम्बे अरसे से उठाते रहे हैं। कृषि वैज्ञानिक देविन्दर शर्मा इस मुद्दे पर लिखते रहे हैं लेकिन सरकार ने किसी भी स्तर पर इस मुद्दे पर अब तक विचार नहीं किया है। ऐसी स्थिति में जय किसान आंदोलन एक किसान मार्च से सरकार से यह मांग मनवा सके, ऐसी स्थिति दिखलायी नहीं पड़ती। सरकार की बात तो दूर अब तक किसानों के बीच यह मुद्दा अब तक चर्चा का विषय बनकर नीचे तक नहीं पहुंचा है। राजनीतिक एजेन्डा में इस विषय पर चर्चा शुरू होना आवश्यक है।
जय किसान आंदोलन का तीसरा मुद्दा किसानों को लगातार आक्रोशित करता रहा है। प्राकृतिक आपदा या अन्य कारणों से फसल नष्ट हो जाने के बाद किसानों को राजस्व आचार संहिता, जिसे आमतौर पर 6(4) की किताब के तौर पर जाना जाता है तथा फसल बीमा के नाम पर अब तक जो मुआवजा राशि दी जाती रही है वह पीड़ित किसानों की नजर में ऊंट के मुंह में जीरा साबित होती रही है। फसल बीमा की अब तक जितनी योजनायें भी विभिन्न सरकारों द्वारा लायी गयीं उनमें से एक योजना भी ऐसी नहीं है जिसे किसानों की दृष्टि से सफल कहा जा सके। ऐसी स्थिति में किसान संगठनों की बैठक में तैयार किये गये मांगपत्र में औसत उत्पादन से प्राकृतिक आपदा के चलते कम हुए उत्पादन का समर्थन मूल्य के हिसाब से पीड़ित किसान को मुआवजा दिये जाने की मांग अत्यन्त महत्वपूर्ण हो जाती है। राज्य सरकारों को लगभग हर वर्ष सूखा, बाढ़, ओलावृष्टि, अतिवृष्टि, जंगली जानवरों अथवा अन्य कारणों से किसानों की फसल नष्ट हो जाने के कारण किसानों का आक्रोश झेलना पड़ता है। तब सरकारें मुलताई की तरह पुलिस गोली चालन का सहारा लेती हैं जिसमें अब तक हजारों किसान मारे जा चुके हैं तथा लाखों किसान फर्जी मुकदमें झेल रहे हैं। केंद्र सरकार और राज्य सरकार के लिये किसानों से जुड़ा यह सबसे अहम मुद्दा है। लेकिन 68 वर्षों में अब तक सरकारों तथा राजनैतिक दलों के बीच इस मुद्दे पर कोई सहमति नहीं बन सकी है जबकि वास्तविकता यह है कि देश का एक भी किसान परिवार नहीं होगा जो हर तीन साल में कम से कम एक बार इस मुद्दे से प्रभावित न होता हो।
भूमिहीनों को 2 एकड़ जमीन देने का मुद्दा देश की 52 प्रतिशत आबादी से जुड़ा हुआ है जो भूमिहीन की श्रेणी में आते हैं। आजादी के बाद हुए भूमि सुधारों के माध्यम से बंगाल, कश्मीर, केरल तथा तमिलनाडु में भूमिहीनों तथा बटाईदारों को भूमि आबंटित करने का काम विभिन्न पार्टियों और सरकारों द्वारा किया गया। तमाम सरकारों ने विशेष तौर पर दलित भूमिहीनों को, जो जमीनें आबंटित कीं वे पहले से ही सरकारी जमीनों के दबंगों द्वारा अतिक्रमण किये जाने के कारण पट्टा मिल जाने के बावजूद दलित भूमिहीनों के कब्जे में नहीं आ सकीं लेकिन जो सरकार लाखों हेक्टेअर जमीन कारपोरेट और बिल्डरों को ओने-पौने दामों पर आबंटित करती हैं उससे भूमिहीनों के पक्ष में यदि जय किसान आंदोलन द्वारा यह मांग की जाती है तो उसे औचित्यपूर्ण ही कहा जायेगा।