किसान नेता डॉ. सुनीलम को सजा क्यों हुई ?
मध्य प्रदेश के जनवादी राजनीतिज्ञ डॉक्टर सुनीलम को सजा दिया जाना गहरी चिंता का विषय है। यह न्याया तंत्र को गुमराह कर जनहित के लिए उठने वाली आवाज को खामोश करने और क्षमतावानों के हित साधने की दिशा में किए जा रहे प्रयासों का एक हिस्सा है। इस पुरे प्रकरण पर सुनील की रिपोर्ट;
अन्नदाता कहा जाने वाला और खुद को भूखा रख कर दूसरे का पेट भरने वाला किसान बदहाल ही नहीं, बदनाम भी है। जब बिमारियों और सूखे से बच कर फसल अच्छी हो जाए तो बाजार में उसके खरीदार नहीं होते। किसान औने-पौने दामों पर फसल बेचने के लिए मजबूर होते हैं जिससे उसकी लागत भी नहीं निकल पाती है। प्राकृतिक कारणों से फसल बर्बाद हो जाती है जिससे किसानों का खर्च किया हुआ पैसा भी डूब जाता है और किसान कर्ज के जाल में फंसता चला जाता है। इस तरह किसान दोनों तरफ से मारा जाता है- फसल अच्छा हो तब भी, बर्बाद हो जाये तब भी। नई आर्थिक नीति के बाद से करीब 2.5 लाख (गैर सरकारी आंकड़ें इससे कहीं अधिक है) किसान कर्ज में डूब कर आत्महत्या करने के लिए मजबूर हुए हैं। जब किसान संगठित होकर अपने नुकसान या फसल का उचित मूल्य मांगता है तो अपने को ‘किसान हितैषी’ कहने वाली सरकार या अपने को किसानों के घर का बताने वाले मंत्री उनकी जायज मांग को अनसुना कर देते हैं। उनकी समस्या का समाधान उनको लाठी-डंडों से पीट कर, झूठे केसों में फंसा दिया जाता है। कई बार तो उनके ऊपर गोली चालन कर के उनके उचित मांग का जबाब दिया जाता है।
म.प्र. के बैतूल जिले के मुलताई तहसील में 12 जनवरी 1998 को ऐसी ही घटना घटी जिसमें किसानों की मुआवजे की मांग का जबाब गोलियों से दिया गया जिसमें 24 किसानों की मृत्यु हो गई तथा 150 किसान घायल हो गये। मुलताई तहसील घेरने की सूचना पहले से प्रशासन को थी। किसान पिछले कुछ महीनों से फसल खराब होने की मुआवजे की मांग को लेकर आन्दोलन कर रहे थे। वे कई बार जिला तथा तहसील स्तर पर अपनी मांग का ज्ञापन प्रशासन को भी दिये। 12 दिसम्बर 1997 को किसानों ने श्री टंटी चौधरी के नेतृत्व में ज्ञापन सौंपा। 18 दिसम्बर 1997 को पुनः ज्ञापन साैंपा गया और 7 दिन के अन्दर कर्रवाई न होने की स्थिति में आन्दोलन की चेतावनी दी गई । किसानों ने 25 दिसम्बर 1997 को मुलताई तहसील प्रांगण में एक बैठक बुलाई जिसमें किसान संघर्ष समिति का गठन किया तथा तहसील प्रांगण में हजारों किसान अनिश्चितकालिन धरने पर बैठ गये। लगातार 12 दिन के धरने के बाद सुनवाई न होने पर किसानों ने 7 जनवरी को निर्णय लिया कि 9 जनवरी 1998 को मुलताई तहसील से बैतूल जिला कलक्टर तक रैली निकालेंगे, 11 जनवरी, 1998 को मुलताई तहसील में चक्का जाम करेंगे तथा 12 जनवरी, 1998 को मुलताई तहसील को घेरेंगे। 8 जनवरी, 1998 को पुलिस ने शांतिपूर्ण धरना दे रहे किसानों को रात में धरना स्थल से भगा दिया, उसके बाद भी मुलताई के 75 किसानों ने बैतूल जिले तक शांतिपूर्ण रैली निकाली। जिलाधीश ने पुलिस ग्राउण्ड में आकर 400 रुपये प्रति एकड़ मुआवजा देने की बात कही जिसे किसानों ने हाथ खड़ा कर अस्वीकार कर दिया। 11 जनवरी, 1998 को मुलताई तहसील में चक्का जाम हुआ जिसे 450 गांव के किसानों ने सफल बनाया। पुलिस और कांग्रेस के गुण्डों द्वारा बसों में तोड़-फोड़ कराकर आन्दोलनरत किसानों पर फर्जी मुकदमंे लगाये गये और किसान संघर्ष समिति के छः नेताओं को गिर¬फ्तार किया गया। 12 जनवरी को पुलिस ने तहसील घेराव को रोकने का प्रयास नहीं किया और जब किसान एकत्रित होकर अपनी मांगों के लिए नारे लगा रहे थे तब पुलिस ने फायरिंग शुरू कर दिया, जिसमें 24 किसान शहीद हो गए तथा 150 किसान घायल हुए। पुलिस पर कार्रवाई करने के बदले गोली चालन के बाद 250 किसानों पर 66 मुकदमंे दर्ज किए गए। उस समय म.प्र. के उप मुख्यमंत्री सुभाष यादव ने कहा था कि एसपी और कलक्टर पर हत्या का मुकदमा दर्ज हो। यही मांग कांग्रेस के केन्द्रीय पर्यवेक्षक बलराम जाखड़ ने भी रखी। भाजपा ने इस कांड को जालियांवालाबाग हत्यकांड से तुलना की थी। उमा भरती ने मुख्यमंत्री बनने के बाद सभी मुकदमें वापस लेने की बात कही थी। उसके बाद से म.प्र. में करीब 1 लाख 76 हजार मुकदमें, जो कांग्रेस सरकार ने भाजपा कार्यकर्ताओं पर लगाये थे , वापस लिये गये लेकिन मुलताई प्रकरण से जुड़ा मुकदमा वापस नहीं लिया गया। न्याय के आश में 20 आरोपित किसानों की मौत हो चुकी है तथा 15 आरोपित किसान 70 वर्ष से अधिक के हो चुके हैं। इसी प्रकरण में 18 अक्टूबर, 2012 को बैतूल के जिला प्रथम अपर सत्र न्यायाधीश एस.सी. उपध्याय डॉ. सुनीलम के साथ-साथ दो लोगों – शेषराव व प्रहलाद अग्रवाल, को हत्यारा बता कर आजीवन करावास की सजा सुनाई गई।
प्रहलाद अग्रवाल वही व्यक्ति है जो मुलताई में लॉज चलाते हैं और मुलताई गोली कांड की जांच कर रहे एकल जांच आयोग के सामने शपथ पत्र देकर बताया था कि ‘16 जनवरी को मेरी अनुपस्थिति में पुलिस का एक दल लॉज में घुसकर तलाशी लेते रहा तथा मुझे घर से बुलाकर लॉज के कमरा नं. 4 में एक रिवाल्वर एवं कुछ कारतूस गद्दे पर रखकर मुझसे कागजों पर हस्ताक्षर करने को कहा। मुझ पर दबाव डाला गया कि इस कमरे में डॉ. सुनीलम रहते थे एवं ये रिवाल्वर एवं कारतूस उन्हीं के हैं। यह नहीं करोगे तो झूठे मामले में फंसा दिए जाओगे।‘ (देखें समाचार पत्र, लोकमत समाचार, 26 अगस्त 1998)।
जिला कोर्ट, बैतूल का फैसला पूरी तरह उसी पुलिस-प्रशासन की बयानों पर आधारित है जो खुद उक्त गोलीकांड का दोषी है। कोर्ट ने पुलिस अधिक्षक जीपी सिंह के बयान को सही माना जो कि खुद इस कत्लेआम के जिम्मेदार अधिकारी हैं। जीपी सिंह ने अदालत को बताया कि डॉ. सुनीलम ने फायर बिग्रेड के ड्राइवर को नीेचे खींचकर कर पत्थर से मारा। उन्होंने कहा कि पुलिस ने गोली चलाई तथा आन्दोलनकारियों ने गोली चलाई और किसके गोली से कितने मारे गये वह यह नहीं जानते। उस समय कौन उप मुख्यमंत्री थे वे यह भी नहीं जानते। इस तरह अदालत ने गैर जिम्मेदार पुलिस अधिकारी की बात तो मान ली जिसको ये भी नहीं पाता कि उप मुख्यमंत्री कौन था, पुलिस ने कितनी गोली चलाई और पुलिस की गोली से कितने लोग मरे। यह आईपीएस अधिकारी, जो कि 24 किसानों का हत्यारा है, अब आईजी बन चुका है।
दूसरे गवाह जो कि मुलताई के गांव से थे, उनमें से एक गुलाब सिंह हैंे, जो कि 12 जनवरी, 1998 को अपने घरेलू कामों से मुलताई आये थे। बस स्टैंड पर खड़े गुलाब सिंह का कहना है कि वे किसी भी पुलिस वाले के साथ मार पीट होते नहीं देखा लेकिन पुलिस वालों को भीड़ पर आश्रु गैस छोड़ते देखा। दूसरा गवाह रामदास किराना का समान लेने मुलताई आये थे। उन्होंने कोर्ट को बताया कि जब वह बस से उतरा तो देखा कि तहसील के पास भीड़ लगी थी। उस भीड़ में पुलिस वालों ने गोली चलाया था और उसे भी गोली लगी थी। अदालत ने गांव वालों के बातों पर गौर नहीं किया जिसमें उन्होंने पुलिस को गोली चलाते हुए और आश्रु गैस के गोले दागते हुए देखा। इस तरह साफ जाहिर है कि अदालत का फैसला पूर्वनियोजित है।
डॉ. सुनीलम और एड0 अराधना भार्गव के ऊपर 22 मई, 2011 को छिन्दवड़ा (म.प्र.) जिले में जिला मुख्यालय से 14 कि.मी. दूर पर जानलेवा हमला किया गया। डॉ. सुनीलम अदानी पावर प्रोजेक्ट लि. और अदानी पेच पॉवर प्रोजेक्ट में 5 गांव की जमीन छिनने का विरोध कर रहे थे। जब वे 28-29 मई, 2011 के पदयात्रा को सफल बनाने के लिए भूलामोहगांव से लौट रहे थे तो केन्द्रीय मंत्री कमलनाथ के गुर्गों ने उनके जीप को बोलरो से घेर लिया और लाठी डंडों से पिटाई की। छिंदवाड़ा के पुलिस अधिक्षक को तुरंत फोन से खबर देने के बाद 14 कि.मी. की दूरी तय करने में पुलिस को 2.30 घंटा लगा। इस फैसले से यह भी अशंका व्यक्त की जा रही है कि यह न्यायपालिका और कारपोरेट घरानों की मिलिभगत है। डॉ. सुनीलम को जेल में डालकर अदानी पॉवर प्रोजेकट और अदानी पेंच पावर परियोजना के आन्दोलन को कुचलना चाहते हैं।
इसी तरह देश भर में चल रहे जीविका के साधनों, जल-जंगल-जमीन को बचाने की लड़ाई को दबाने की साजिश हो रही है। सभी संघर्षों के नेताओं और कार्यकर्ताओं को इसी तरह झूठे केसों में फंसा कर जेलों में ठूंसा जा रहा है, गोलियों का निशाना बनाया जा रहा है। ‘आजाद भारत’ में विगत 65 वर्षों में अपनी जायज मांग के लिए प्रदर्शन करते हुए करीब 55 हजार आन्दोलनकारी पुलिस के गोलियों का निशाना बने हैं लेकिन आज तक एक भी दोषी पुलिस अधिकारी को सजा नहीं हुआ है। हर बार आत्मरक्षा की दुहाई देकर पुलिस-प्रशासन अपने को पाक साफ कर लेती है। किसानों से कहीं सेज, कहीं एकस्प्रेस वे तथा विकास के विभिन्न नामों पर जमीन छीना जा रहा है। जब किसान इसका विरोध कर रहे हैं तो उनको झूठे केसों में फंसा कर जेलों में घोर यातनायें दी जाती हैं; उनको दंगा फैलाने वाला अराजक तत्व आदि, आदि नामों से सम्बोधित किया जाता है।
भारत का शासक वर्ग साम्राज्यवाद परस्त नीतियों को लागू करने के लिए भारत की जनता पर क्रूर दमन बढ़ाता जा रहा है। भारत के विभिन्न राज्यों में जनता के ऊपर अलग-अलग नामों से आपरेशन चलाये जा रहे हैं। यहां तक कि बस्तर में ट्रेनिंग के नाम पर सेना को भी उतारा जा चुका है और आत्मरक्षा के नाम पर वायु सेना को भी फायरिंग करने का अधिकार दे दिया गया है। यह अपनी ही जनता पर अघोषित युद्ध है जो भारत का शासक वर्ग अलग-अलग रूप में लड़ रहा है। डॉ. सुनीलम, दयामानी बारला हो या देश के विभन्न जेलों में बंद जल-जंगल जमीन को बचाने की लड़ाई लड़ने वाले हों या माओवादी सभी शासक वर्ग की साम्राज्यवाद परस्त नीतियों के शिकार हैं। जिस तरह दयामनी बरला का जमानत होने के बाद दूसरे केश में गिरफ्तार कर लिया गया उसी तरह माओवादी नेता सुशील राय जिनकी उम्र 70 साल है जब भी जमानत होता है दूसरे केशों में उनको गिरफ्तार कर जेल से बाहर नहीं आने दिया जाता है। भारत की मेहनतकश जनता, न्याय पसंद बुद्धिजीवी, छात्र, मजदूर, किसान, महिलाओं को मिलकर इस साम्राज्यवाद-पूंजीवाद परस्त नीतियों को मुंहतोड़ जबाब देना होगा। इस तरह के जुझारू आन्दोलन से ही डॉ. सुनीलम और उन जैसे लाखों लोगों पर हो रहे अत्याचार से उनको बचाया जा सकता है और लोगों के जीविका के साधन जल-जंगल-जमीन की रक्षा हो सकती है।