मॉरीशस मार्ग और देश की लूट: विदेशी पूंजी की बंधक एक सरकार
इस् बार देश के संसाधनों की लूट् के लिए कोई वास्कोडिगामा भारत नहीं आया. हिंद महासागर में स्थित एक छोटा सा टापू मारीशस अब देसी कालेधन को सफ़ेद करने का केन्द्र बन चुका है. आज जब भारत में करीब 40 प्रतिशत ‘विदेशी
पूंजी निवेश’ मारीशस की मार्फ़त आ रहा है, तब सरकार द्वारा निवेश के लिए सुगम माहौल बनाने की कवायद् कुछ् और नहीं बल्कि एक छलावा है। भारत और मॉरीशस के बीच ‘दोहरा करारोपण निषेध समझौते’ में छिपे इस राज की पड़ताल करता सुनील भाई का आलेख:
मामला उस बदनाम ‘मॉरीशस मॉर्ग’ का है जो विदेशी कंपनियों द्वारा भारत में लगातार बड़ी मात्रा में कर-चोरी का शास्त्रीय उदाहरण बन चुका है। जब से भारत ने अपने दरवाजे विदेशी पूंजी के लिए खोले हैं, इस देश में सबसे ज्यादा विदेशी पूंजी संयुक्त राज्य अमरीका, यूरोप या जापान से नहीं बल्कि अफ्रीकी महाद्वीप के एक छोटे से टापू देश मॉरीशस से आ रही है। भारत में करीब 40 प्रतिशत विदेशी पूंजी निवेश का श्रेय इस छोटे से देश को प्राप्त है। इस चमत्कार का राज भारत और मॉरीशस के बीच ‘दोहरा करारोपण निषेध समझौते’ मंे छिपा है। इस समझौते में यह प्रावधान है कि कोई कंपनी एक देश में कर चुका रही है तो दूसरा देश उस से कर नहीं वसूलेगा। इस प्रावधान के कारण भारत के शेयर बाजार में शेयरों का कारोबार करने वाली मॉरीशस की कंपनियां करों में भारी बचत कर लेती हैं, क्योंकि मॉरीशस में कर नाममात्र का है। शेयरों की खरीद फरोख्त मंे जो मुनाफा होता है, उस पर भारत में 15 फीसदी अल्पकालीन पूंजी-लाभ कर या 10 फीसदी दीर्घकालीन पूंजी-लाभ कर देना पड़ता है।
करों में इस भारी बचत का लाभ उठाने के लिए भारत में पूंजी लगाने की इच्छुक दुनिया भर की कंपनियां मॉरीशस में एक दफ्तर खोल लेती हैं। मॉरीशस सरकार उनको ‘कर-निवास प्रमाणपत्र’ (यानी कर के उद्देश्य से निवासी होने का प्रमाणपत्र) दे देती हैं और उसी के आधार पर उनको भारत में करों से छूट मिल जाती है। यह एक तरह की धोखाधड़ी है, क्योंकि मूल रुप से ये कंपनियां मॉरीशस की नहीं हैं और मॉरीशस में एक दफ्तर खोलने तथा यह प्रमाणपत्र हासिल करने के अलावा उनका मारीशस से कोई लेना-देना नहीं है। इसी की जांच करने तथा मॉरीशस की कंपनी होने के और ज्यादा सबूत मांगने की एक पंक्ति बजट में आ गई थी, जिससे इन कंपनियों में घबराहट फैल गई और शेयर बाजार नीचे जाने लगा। उनकी चिंता को दूर करने के लिए वित्त मंत्री ने बाद में कहा कि यह पंक्ति गलती से आ गई है। हम संसद में वित्त विधेयक को पास करवाते वक्त इस गलती को सुधार लेंगे। कर-निवास प्रमाणपत्र को ही पर्याप्त और पूरा सबूत माना जाएगा। यदि इसमंे कोई बदलाव करना होगा तो वह मॉरीशस सरकार से बातचीत के बाद दोनों की सहमति से ही होगा और अभी घबराने की कोई जरुरत नहीं है। गौरतलब है कि दोनों सरकारों ने ‘दोहरे करारोपण निषेध समझौते’ की समीक्षा करने और इस को सुधारने के लिए 2006 में एक समूह गठित किया था, जिसने अभी तक कुछ विशेष नहीं किया। इसकी ज्यादा बैठके भी नहीं हुई। शायद इसलिए कि भारत सरकार नहीं चाहती थी। वित्तमंत्री के आश्वासन से यही लगता है कि यह समूह निकट भविष्य में भी कुछ ठोस नहीं करने वाला है। भारत में करों की यह विशाल चोरी मजे से लगातार चलती रहेगी।
कर-चोरी के इस मॉरीशस मार्ग पर पहले भी कई बार सवाल उठे हैं और विवाद हुआ है। भारत और मॉरीशस में यह समझौता 1983 में हुआ था, लेकिन इसका दुरुपयोग नब्बे के दशक में शुरु हुआ जब भारत ने अपने शेयर बाजारों में विदेशी पूंजी को इजाजत और न्यौता देना शुरु किया। 2000 में कुछ देशभक्त आयकर अधिकारियों ने मॉरीशस में फर्जी निवास करने वाली इन कंपनियों की जांच शुरु की थी, तब भी यही नाटक हुआ था। कंपनियों ने भारत से अपनी पंूजी वापस ले जाने की धमकियां दी, शेयर बाजार गिरने लगा और तब वित्त मंत्रालय ने अपने ही अधिकारियों पर रोक लगाते हुए एक परिपत्र निकाला। इस बदनाम परिपत्र क्रमांक 789 में निर्देश दिया गया था कि मॉरीशस सरकार का ‘कर-निवास प्रमाणपत्र’ अपने आप में पर्याप्त है और आगे कोई जांच करने की जरुरत नहीं है। तेरह साल बाद इसी देश-विरोधी नाटक को दोहराया गया।
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(लेखक समाजवादी जन परिषद के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष एवं ‘सामयिक वार्ता’ के संपादक है।)
– सुनील, ग्राम – केसला, तहसील इटारसी, जिला होशगाबाद (म.प्र.)
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