संघर्ष संवाद
Sangharsh Samvad

माई लॉर्ड : जंगल नहीं छोड़ेंगे आदिवासी, प्रतिरोध की तैयारी

-पूजा सिंह

रायपुर/भोपाल. देश की सर्वोच्च अदालत के आदेश के बावजूद देश भर के जंगलों में सैकड़ों सालों से रहने वाले आदिवासी अपना घर नहीं छोड़ेंगे .बस्तर ,सरगुजा ,झाबुआ से लेकर उत्तर प्रदेश के आदिवासी अंचल से जो जानकारी आ रही है वह गंभीर है .वे सर्वोच्च अदालत के फैसले को आदिवासियों के खिलाफ अबतक का सबसे बड़ा हमला मान रहे हैं .बस्तर में पहले से ही आदिवासियों पर जुल्म होता रहा है .अब इस फैसले के बाद आदिवासियों को बेदखल करने का कानूनी अधिकार मिल जाएगा . आदिवासियों के बीच काम कर रहे जन संगठनों का कहना है कि एक करोड़ से ज्यादा आदिवासी जाएंगे कहां .गौरतलब है कि देश की सर्वोच्च् अदालत ने 16 राज्यों में रहने वाले 11 लाख से अधिक आदिवासियों और जंगल में रहने वाले अन्य लोगों को उनकी पुस्तैनी जमीन से बेदखल करने का आदेश दिया है. ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि केंद्र की मोदी सरकार आदिवासियों और वनवासियों के अधिकारों की रक्षा के लिए बने कानून का बचाव नहीं कर सकी.

इस बीच आदिवासी वनवासी महासभा की तरफ से कानूनी लड़ाई लड़ने वाले स्वराज अभियान के शीर्ष नेता अखिलेंद्र प्रताप सिंह ने शुक्रवार से कहा , यह फैसला केंद्र सरकार की घोर लापरवाही का नतीजा है .सरकार को इस मामले में फ़ौरन अध्यादेश लाना चाहिए .आदिवासी अंचल में इस खबर के आते ही सुगबुगाहट तेज हो गई है .वे अपना घर छोड़कर जाएंगे कहां .एक करोड़ से ज्यादा आदिवासी इस फैसले से प्रभावित होंगे .इस मुद्दे को और लोगों के साथ संघ परिवार से जुड़े संगठन भी सर्वोच्च अदालत लेकर गए .वैसे भी आदिवासियों के बीच काम करने वाले संघ से जुड़े संगठनों की पहली प्राथमिकता आदिवासियों के हिंदूकरण की है .वे नहीं चाहते कि आदिवासी जंगल में रहें .

चूंकि यह आदेश सर्वोच्च न्यायालय का है इसलिए सभी राज्य इसका पालन करने के लिए बाध्य होंगे. अदालत का यह आदेश एक ऐसी याचिका पर आया है जिसने वन अधिकार अधिनियम की वैधता पर सवाल उठाया था. याचिकाकर्ता ने पारंपरिवक वनभूमि पर दावे खारिज करने की मांग की थी. सरकार ने बचाव के लिए अपने वकील ही नहीं भेजे और न्यायमूर्ति अरुण मिश्रा, नवीन सिन्हा और न्यायमूर्ति इंदिरा के पीठ ने 17 जुलाई तक उन सभी आदिवासियों की बेदखली का आदेश दे दिया जिनके दावे खारिज हो गये हैं.

अदालत ने कहा, राज्य सरकारें यह सुनिश्चित करेंगी कि जहां दावे खारिज करने के आदेश पारित कर दिए गए हैं, वहां सुनवाई की अगली तारीख को या उससे पहले निष्कासन शुरू कर दिया जाये. अगर उनका निष्कासन शुरू नहीं होता है तो अदालत उस मामले को गंभीरता से लेगी.’ शीर्ष अदालत को अब तक अस्वीकृति की दर बताने वाले 16 राज्यों से खारिज किये गये दावों की कुल संख्या 1,127,446 है जिसमें आदिवासी और अन्य शामिल हैं.कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने इस विषय पर ट्वीट करते हुए कहा कि वन अधिकार कानून को चुनौती देकर आदिवासियों को बेदखल किया जा रहा है और भाजपा सरकार मूक दर्शक बनी हुई है.

कांग्रेस नेतृत्व वाली यूपीए सरकार के पहले कार्यकाल में पास होने वाले वन अधिकार अधिनियम के तहत सरकार को निर्धारित मानदंडों के विरुद्ध आदिवासियों और अन्य वनवासियों को पारंपरिक वनभूमि वापस सौंपना होता है. साल 2006 में पास होने वाले इस अधिनियम का वन अधिकारियों के साथ वन्यजीव समूहों और नेचुरलिस्टों ने विरोध किया था.

संप्रग सरकार के समय 2006 में आदिवासियों और पीढ़ियों से वनों में रह रहे अन्य वनवासियों को अधिकार देने के लिए वनाधिकार अधिनियम अस्तित्व में आया था. इसने औपनिवेशक काल के 1927 के वनाधिकार अधिनियम की जगह ली थी, जिसे अंग्रेजों ने प्राकृतिक संपदा से अकूत भारतीय वनों के अपने हित में दोहन के लिए बनाया था.

साभार : शुक्रवार

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