सौ दिन छूते किसान आंदोलन के बीच तीन कृषि कानूनों को फिर से समझने की एक कोशिश
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तीन महीने हो चुके हैं दिल्ली के चारों तरफ किसान अपनी मांगों को लेकर शांतिपूर्वक धरना प्रदर्शन कर रहे हैं लेकिन सरकार अपनी हठधर्मिता के चलते किसानों की बात सुनने को तैयार नहीं है। 250 से अधिक किसान इस आंदोलन में शहीद हो चुके हैं। आखिर सरकार की ऐसी क्या मजबूरी है कि वह कानून वापस नहीं ले रही है और एमएसपी पर गारंटी नहीं दे रही है?
खुद सरकार ने कई बार किसानों से वादे किए थे कि c2 का रेट देंगे, किसानों की आय दुगनी करेंगे और एमएसपी की गारंटी देंगे। लेकिन जब से यह सरकार सत्ता में आई है सरकार अपने वादे भूल गई। अब इस आंदोलन का अंत कहां होगा? क्या यह आंदोलन देश में कोई बहुत बड़ा परिवर्तन लाएगा?
संसद ने किसानों के लिए तीन नए कानून बनाए हैं-
पहला है ”कृषक उपज व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सरलीकरण) विधेयक, 2020”। इसमें सरकार कह रही है कि वह किसानों की उपज को बेचने के लिए विकल्प को बढ़ाना चाहती है। किसान इस कानून के जरिये अब एपीएमसी मंडियों के बाहर भी अपनी उपज को ऊंचे दामों पर बेच पाएंगे। निजी खरीदारों से बेहतर दाम प्राप्त कर पाएंगे। लेकिन, सरकार ने इस कानून के जरिये एपीएमसी मंडियों को एक सीमा में बांध दिया है। इसके जरिये बड़े कॉरपोरेट खरीदारों को खुली छूट दी गई है। बिना किसी पंजीकरण और बिना किसी कानून के दायरे में आए हुए वे किसानों की उपज खरीद-बेच सकते हैं।
क्या होगा असर?
मंडियों में टैक्स लगेगा, मंडियों के बाहर टैक्स नहीं लगेगा। उदाहरण के तौर पर पंजाब में गेहूं की एमएसपी 1925 हैं जिस पर टैक्स 164 रुपये बैठता है। व्यापारी बाहर खरीदेगा उसको टैक्स नहीं देना पड़ेगा। 164 रुपये टैक्स के बचने पर व्यापारी शुरू शुरू में 64 रुपये किसान को दे देगा 100 खुद बचा लेगा तो किसान मजबूरी के कारण अपना गेहूं और अन्य फसल बाहर बेचने पर मजबूर हो जाएगा, ऐसे धीरे-धीरे मंडिया बंद हो जाएंगी।
यही खुली छूट आने वाले वक्त में एपीएमसी मंडियों की प्रासंगिकता को समाप्त कर देगी। एपीएमसी मंडी के बाहर नए बाजार पर पाबंदियां नहीं हैं और न ही कोई निगरानी। सरकार को अब बाजार में कारोबारियों के लेनदेन, कीमत और खरीद की मात्रा की जानकारी नहीं होगी। इससे खुद सरकार का नुकसान है कि वह बाजार में दखल करने के लिए कभी भी जरूरी जानकारी प्राप्त नहीं कर पाएगी।
इस कानून से एक बाजार की परिकल्पना भी झूठी बताई जा रही है। यह कानून तो दो बाजारों की परिकल्पना को जन्म देगा। एक एपीएमसी बाजार और दूसरा खुला बाजार। दोनों के अपने नियम होंगे। खुला बाजार टैक्स के दायरे से बाहर होगा।
सरकार कह रही है कि हम मंडियों में सुधार के लिए यह कानून लेकर आ रहे हैं लेकिन सच तो यह है कि कानून में कहीं भी मंडियों की समस्याओं के सुधार का जिक्र तक नहीं है। यह तर्क और तथ्य बिल्कुल सही है कि मंडी में पांच आढ़ती मिलकर किसान की फसल तय करते थे। किसानों को परेशानी होती थी। लेकिन कानूनों में कहीं भी इस व्यवस्था को तो ठीक करने की बात ही नहीं कही गई है।
मंडी व्यवस्था में कमियां थीं। बिल्कुल ठीक तर्क है। किसान भी कह रहे हैं कि कमियां हैं तो ठीक कीजिए। मंडियों में किसान इंतजार इसलिए भी करता है क्योंकि पर्याप्त संख्या में मंडियां नहीं हैं। आप नई मंडियां बनाएं। नियम के अनुसार, हर 5 किमी के रेडियस में एक मंडी होनी चाहिए, अभी वर्तमान में देश में कुल 7000 मंडियां हैं, लेकिन जरूरत 42000 मंडियों की है। आप इनका निर्माण करें। कम से कम हर किसान की पहुंच तक एक मंडी तो बना दें। संसद में भी तो लाखों कमियां हैं। यदि सुधार के नाम पर वहां एक समानांतर निजी संसद बनाई जा सकती है फिर किसानों के साथ ऐसा क्यों?
क्या जिम्मेदारी से बचना चाहती है सरकार?
आज सरकार अपनी जिम्मेदारी से भाग रही है। कृषि सुधार के नाम पर किसानों को निजी बाजार के हवाले कर रही है। हाल ही में देश के बड़े पूंजीपतियों ने रीटेल ट्रेड में आने के लिए कंपनियों का अधिग्रहण किया है। सबको पता है कि पूंजी से भरे ये लोग एक समानांतर मजबूत बाजार खड़ा कर देंगे। बची हुई मंडियां इनके प्रभाव के आगे खत्म होने लगेंगी। ठीक वैसे ही जैसे मजबूत निजी टेलीकॉम कंपनियों के आगे बीएसएनल समाप्त हो गई। इसके साथ ही एमएसपी की पूरी व्यवस्था धीरे-धीरे खत्म हो जाएगी। कारण है कि मंडियां ही एमएसपी को सुनिश्चित करती हैं। फिर किसान औने-पौने दाम पर फसल बेचेगा। सरकार बंधन से मुक्त हो जाएगी।
ठीक वैसे ही जैसे बिहार की सरकार किसानों के प्रति अपनी जिम्मेदारी से मुक्त हो गई है। वर्ष 2020 में बिहार में गेहूं के कुल उत्पादन का 1% ही सरकारी खरीद हो पाई है। बिहार में यही एपीएमसी कानून 2006 में ही खत्म किया गया था। सबसे कम कृषि आयों वाले राज्य में आज बिहार अग्रणी है, लेकिन आज यही कानून पूरे देश के लिए क्रांतिकारी बताया जा रहा है। कोई एक सफल उदाहरण नहीं है जहां खुले बाजारों ने किसानों को अमीर बनाया हो। बिहार ही उदाहरण है इस कानून की विफलता का।
सरकार कह रही है कि निजी क्षेत्र के आने से किसानों को लंबे समय में फायदा होगा। यह दीर्घकालिक नीति है। बिहार में सरकारी मंडी व्यवस्था तो 2006 में ही खत्म हो गई थी। 14 वर्ष बीत गए। यह लंबा समय ही है। अब जवाब है कि वहां कितना निवेश आया? वहां के किसानों को क्यों आज सबसे कम दाम पर फसल बेचनी पड़ रही है? अगर वहां इसके बाद कृषि क्रांति आ गई थी तो मजदूरों के पलायन का सबसे दर्दनाक चेहरा वहीं क्यों दिखा? क्यों नहीं बिहार कृषि आय में अग्रणी राज्य बना? क्यों नहीं वहां किसानों की आत्महत्याएं रुकीं? कई सवाल हैं।
दूसरा कानून है- ”कृषि (सशक्तिकरण और संरक्षण) कीमत आश्वासन और कृषि सेवा करार विधेयक, 2020”। इस कानून के संदर्भ में सरकार का कहना है कि वह किसानों और निजी कंपनियों के बीच में समझौते वाली खेती का रास्ता खोल रही है। इसे सामान्य भाषा में कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग कहते है। आपकी जमीन को एक निश्चित राशि पर एक पूंजीपति या ठेकेदार किराये पर लेगा और अपने हिसाब से फसल का उत्पादन कर बाजार में बेचेगा। यह तो किसानों को बंधुआ मजदूर बनाने की शुरुआत जैसी है। चलिए हम मान लेते हैं कि देश के कुछ किसान कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग चाहते हैं। लेकिन, कानून में किसानों को दोयम दर्जे का बना कर रख दिया गया है।
सबसे अधिक कमजोर तो किसानों को कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग में किसान और ठेकेदार के बीच में विवाद निस्तारण के संदर्भ में है। विवाद की स्थिति में जो निस्तारण समिति बनेगी उसमें दोनों पक्षों के लोगों को रखा तो जाएगा। लेकिन, हमें यह भी ध्यान रखना होगा कि पूंजी से भरा हुआ इंसान उस समिति में महंगे से महंगा वकील बैठा सकता है और फिर किसान उसे जवाब नहीं दे पाएगा। इस देश के अधिकतर किसान तो कॉन्ट्रैक्ट पढ़ भी नहीं पाएंगे।
कितना समर्थ है किसान?
कानून के अनुसार पहले विवाद कॉन्ट्रैक्ट कंपनी के साथ 30 दिन के अंदर किसान निपटाए और अगर नहीं हुआ तो देश की ब्यूरोक्रेसी में न्याय के लिए जाए। नहीं हुआ तो फिर 30 दिन के लिए एक ट्रिब्यूनल के सामने पेश हो। हर जगह एसडीएम अधिकारी मौजूद रहेंगे। धारा 19 में किसान को सिविल कोर्ट के अधिकार से भी वंचित रखा गया है। कौन किसान चाहेगा कि वह महीनों लग कर सही दाम हासिल करे? वह तहसील जाने से ही घबराते हैं। उन्हें तो अगली फसल की ही चिंता होगी। गन्ना मिल एक छोटी सी कंपनी होती है जो समय पर किसानों का भुगतान नहीं कर पाती। लगातार सरकार द्वारा 14 दिन में गन्ने के भुगतान का वादा किया गया लेकिन 14 दिन में गन्ने का भुगतान नहीं हो पा रहा है। कुछ जगह अभी तक पिछले वर्ष का भी भुगतान नहीं हो पाया है। जिले में सभी अधिकारी मौजूद हैं। जो बड़ी-बड़ी कंपनियां आएंगी उनसे कैसे किसानों को न्याय मिल पाएगा इस कानून में यह भी है। अगर किसान को पैसा देना हुआ और किसान पैसा नहीं दे पाया तो उसकी वसूली भू राजस्व के द्वारा की जाएगी यानी कि किसान की जमीन नीलाम की जाएगी यही इन कंपनियों की चाल है।
तीसरा कानून है ”आवश्यक वस्तु संशोधन विधेयक, 2020”। यह न सिर्फ किसानों के लिए बल्कि आम जन के लिए भी खतरनाक है। अब कृषि उपज जुटाने की कोई सीमा नहीं होगी। उपज जमा करने के लिए निजी निवेश को छूट होगी। सरकार को पता नहीं चलेगा कि किसके पास कितना स्टॉक है और कहां है। खुली छूट? यह तो जमाखोरी और कालाबाजारी को कानूनी मान्यता देने जैसा है। सरकार कानून में साफ लिखती है कि वह सिर्फ युद्ध या भुखमरी या किसी बहुत विषम परिस्थिति में रेगुलेट करेगी।
सिर्फ दो कैटेगोरी में 50% (होर्टिकल्चर) और 100% (नॉन-पेरिशबल) के दाम बढ़ने पर रेगुलेट करेगी नहीं बल्कि कर सकती है कि बात कही गई है।
सरकार कह रही है कि इससे आम किसानों को फायदा ही तो है। वे सही दाम होने पर अपनी उपज बेचेंगे। लेकिन यहां मूल सवाल तो यह है कि देश के कितने किसानों के पास भंडारण की सुविधा है? हमारे यहां तो 80% तो छोटे और मझोले किसान हैं।
आवश्यक वस्तु संशोधन कानून, 2020 से सामान्य किसानों को एक फायदा नहीं है। इस देश के किसान गोदाम बनवाकर नहीं रखते हैं कि सही दाम तक इंतजार कर सकेंगे। सरकारों ने भी इतने गोदाम नहीं बनवाए है। किसानों को अगली फसल की चिंता होती है। तो जो बाजार में दाम चल रहा होगा उस पर बेच आएंगे। लेकिन, फायदा उन पूंजीपतियों को जरूर हो जाएगा जिनके पास भंडारण व्यवस्था बनाने के लिए एक बड़ी पूंजी उपलब्ध है। वे अब आसानी से सस्ती उपज खरीद कर स्टोर करेंगे और जब दाम आसमान छूने लगेंगे तो बाजार में बेचकर लाभ कमाएंगे।
किसान को सहारे की जरूरत
सरकार 2022 तक किसानों की आय दोगुनी करने का वादा कर चुकी है। यह देश के 14 करोड़ कृषि परिवारों का सवाल है। शांता कुमार समिति कहती है कि महज 6 फीसदी किसान ही एमएसपी का लाभ उठा पाते हैं। बाकी 94 फीसदी बाजार और बिचौलियों पर ही निर्भर रहते हैं।
अन्य क्षेत्रों की तुलना में कृषि क्षेत्र आय असमानता को सबसे अधिक देख रहा है। इसलिए किसानों को एमएसपी का कानूनी अधिकार दिए जाने की जरूरत है। कोई उनकी फसल उससे नीचे दाम पर न खरीदे। अगर कोई खरीदता है तो उस पर कानूनी कार्रवाई हो और सरकार या संबंधित व्यक्ति उसकी क्षतिपूर्ति करें। यह कितना विचारणीय विषय है कि जो किसान देश के 130 करोड़ आबादी का पेट भर रहा है, आज वह अपनी उपज का सही दाम भी हासिल नहीं कर पाता है। समझ नहीं आता सरकार की ऐसी क्या मजबूरी है कि खुद महंगा खरीद रही है और व्यापारियों को सस्ता दिलाना चाहती है।
उदाहरण के तौर पर उत्तर प्रदेश में गेहूं की 1975 रुपए में सरकारी खरीद होती है और इस वर्ष बाजार में गेहूं 1400 से लेकर 1600 के बीच बिका है। जब सरकार महंगा खरीद रही है तो और लोग सस्ता क्यों खरीद रहे हैं। हम लोग मिनिमम सपोर्ट प्राइस मांग रहे हैं और हम यह भी मांग करते हैं की अधिकतम प्राइस भी तय किया जाए। देश के किसी किसान या किसान संगठन ने कभी ऐसे कानूनों की मांग नहीं की थी। किसान और कृषि संगठनों की मांग हमेशा एमएसपी और उसका सी2 के आधार पर निर्धारण, कर्ज मुक्त किसान और 100% फसल खरीद की रही है। यह कानून सिर्फ किसानों के ऊपर थोपा जा रहा है। यह एक संवैधानिक प्रश्न भी है। कारण है कि कृषि राज्य और केंद्र दोनों का विषय है और यह समवर्ती सूची में आता है। एपीएमसी कानून को पारित करना राज्यों का अधिकार है। इसलिए यह कानून तो असंवैधानिक भी हो सकता है। यह भारत के फेडरल स्ट्रक्चर (संघवाद) को कमजोर करने वाला कानून है। सरकार बाजार आधारित कृषि के लिए काम कर रही है न कि देश के 14 करोड़ किसान परिवारों के लिए। भारत के रिटेल के कारोबार पर कुछ बड़ी कंपनियां कब्जा करना चाहती हैं।
साभार : https://junputh.com/