राजस्थान : विकास की भेंट चढ़ीं 31 अरावली की पहाड़ियाँ
डाॅ. कृष्णस्वरूप आनन्दी
प्रकृति-विरोधी व प्रदूषणकारी एवं रोजगारनाशी व विस्थापनकारी विकास (?), भोग-प्र्रधान जीवन-शैली, बेलगाम नगर निर्माण व विस्तार और चकाचैंध वाले आधुनिकीकरण के चलते तेज़ी से अमूल्य, दुर्लभ या विलक्षण प्राकृतिक संसाधनों एवं संरचनाओं का सफ़ाया हो रहा है। इसकी जीती-जागती मिसाल है कि पिछले 50 वर्षों के दौरान खनन व निर्माण के बकासुर ने अरावली पर्वतश्रृंखला की राजस्थान-स्थित 128 पहाड़ियों में से 31 को निगल लिया है। उदयपुर विश्वविद्यालय द्वारा किये गये एक अध्ययन से यह बात उजागर हुई है कि जब बीसवीं सदी दस्तक दे रही थी, तब अरावली-पर्वतमाला के राजस्थान-स्थित क्षेत्र का 80 प्रतिशत हिस्सा पेड़-पौधों, जड़ी-बूटियों, वनस्पतियों और झाड़ियों से सघन या आच्छादित था और वर्ष 2001 में सिर्फ 8 प्रतिशत हिस्सा हरीतिमायुक्त था।
वर्ष 1980 में वहाँ रिहाइशी इलाक़े का रक़बा 247 वर्ग किलोमीटर था जो वर्ष 2016 आते-आते बढ़कर 638 वर्ग किलोमीटर हो गया था। यह बढ़त कोई मामूली नहीं, बल्कि 26 वर्षों के दौरान 258 प्रतिशत है। इसी तरह वर्ष 1980 में वहाँ केन्द्रित या संगठित औद्योगिक उत्पादन के नाम पर कुछ भी नहीं था। वर्ष 2016 आते-आते वहाँ 46 वर्ग किलोमीटर में मशीनी, पर्यावरणभक्षी एवं पूँजी-सघन कल-कारखा़नों का जाल बिछ गया था। वनभूमियों और पहाड़ियों के अस्तिस्त-लोप से अनगिनत वन्यजीवों का ठौर-ठिकाना छिन गया है। कुल मिलाकर स्थानीय पारिस्थितिकी ख़तरे में पड़ती जा रही है।
लेखक आज़ादी बचाओ आन्दोलन के ष्ट्रीय संयोजक है