राष्ट्रीय सम्मेलन : भूमि-वन-पर्यावरण कानूनों में प्रतिकूल और जन विरोधी संशोधनों की पोल खोल; 9 जुलाई 2018, दिल्ली
साथियों,
वर्षों के लम्बे संघर्ष के बाद 2013 में भूमि अधिग्रहण क़ानून, 1894 रद्द हुआ और उचित मुआवजे का अधिकार, भूमि अधिग्रहण में पारदर्शिता, विस्थापन और पुनर्वास अधिनियम, 2013 (जिसे 2013 का भूमि कानून के रूप में भी जाना जाताहै) पारित हुआ।
क़ानून पूरी तरह जनपक्षिय नहीं था लेकिन फिर भी परियोजना प्रभावितों के हित की बात, और कई हद तक किसानों तथा कामगारों के भूमि अधिकारों की रक्षा के उपाय थे। पीछ्ले पाँच वर्षों में क़ानून पारित होने के बाद नहीं इसे लागू किया गया, उलट इसे बदलने, कमजोर और खंडित करने के कई प्रयास किये गए, एक सोची समझी हुई राजनीति के तहत। एनडीए सरकार ने सत्ता में आते ही पहला काम 2013 के भूमि कानून में संशोधन करने के लिए अध्यादेश लाने का किया। परन्तु जनआंदोलनों, किसानों, श्रमिक संगठनों और राजनीतिक दलों के गहन विरोध के बाद पारित नहीं करा पाए। हालाँकि केंद्रीय स्तर पर इस हार से उनकी रणनीति में बदलाव जरूर आया। बीजेपी शासित राज्यों ने केंद्रीय कानून में संशोधन करना शुरू कर दिया है और इसमें उन सभी परिवर्तनों को शामिल किया है जो अध्यादेश में प्रस्तावित थे। इस आधार पर गुजरात, आंध्रप्रदेश, राजस्थान और कुछ अन्य राज्यों द्वारा भूमि कानून में ये बदलाव किये भी जा चुकेहैं। इसके अलावा राज्यों ने सहमति, विकल्प मूल्यांकन, सामाजिक प्रभाव मूल्यांकन, मुआवजे और विस्थापन तथा पुनर्वास प्रावधानों, मूल मालिकों को भूमि की वापसी, भूमि अधिकारों की रक्षा आदि कुछ सकारात्मक प्रावधानों को ख़ारिज करने की भी कोशिश की है।
कई राज्य सरकारों द्वारा नियोजित औद्योगिक गलियारों, सागरमाला, भारतमाला, स्मार्टशहरों, बुलेट ट्रेनों आदि जैसी कई भव्य बुनियादी ढांचा परियोजनाओं के लिए भूमि अधिग्रहण की ज़रूरतब ताई है । इसके कारण उन्होंने भूमि कानूनों, पर्यावरण कानूनों, खनन कानूनों, वन अधिकार अधिनियम, श्रम कानूनों आदि में परिवर्तन किया हैं, ऐसा प्रचार और प्रसार उन्होंने किया है। हमारा मानना है की विश बैंक की व्यापार रैंकिंग (ease of doing business ranking) और अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थानों और अन्य स्रोतों से अपेक्षित विदेशी निवेश में आसानी लाने के लिए इन सभी सुधारों को किया जा रहा है और आड़ देश की विकास का लिया जा रहा है। ये प्रतिगामी और जनविरोधी सुधारकिसानों, श्रमिकों, सामाजिक कार्यकर्ताओं और पत्रकारों पर उत्पीडन और हमलों को और सहज बना रहे हैं। इन क़ानूनों का उललंघन या फिर लागू नहीं होना, जैसे की वनधिकार क़ानून, में साफ़ दिख रहा है की, राजनीतिक इच्छा शक्ति में कमी और राज्य की असुरक्षा के कारण गुजरात, महाराष्ट्र, झारखण्ड और पहाड़ी राज्यों जैसे हिमाचल प्रदेश तथा उत्तराखंड में वनअधिकार अधिनियम 2006 का कार्यान्वयन पूर्ण रूप से विफल रहा है।
हालमें बढ़ रही हिंसा, तूतीकोरिन में पुलिस गोली चालन में 12, मंदसौर में 6 और कुछ साल पहले हजरीबाग में 6 लोगों की मौत, सैकड़ों आदिवासियों, मानव अधिकार और पर्यावरण कार्यकर्ताओं की गिरफ्तारियां, भूमि अधिकार तथा पथलगढ़ी आंदोलनों का अपराधीकरण, लोगों और प्राकृतिक संसाधनों की लूट आदि पूँजी और बजरीकरण की प्रक्रिया को अवैध रूपसे सुविधा जनक बनाने की कोशिश है। बड़े बड़े औद्योगिक घरानों का निवेश और मुनाफ़ा किसी भी क़ीमत पर और उसका फ़ायदा राजनीतिक दलों को किसी भी तरह मिले यही लक्ष्य दिखता है और ऐसेमें जनता के हितों की रक्षा की पूरी ज़िम्मेदारी हमारे संघर्षों के ऊपर रह जाती है।
इस सन्दर्भ में चर्चा करने, इन परिवर्तनों को समझने और रणनीति बनाने के लिए 9 जुलाई 2018 को जन आंदोलनों का राष्ट्रीय समन्वय और भूमि अधिकार आन्दोलन आपको गाँधी शांति प्रतिष्ठान में एक दिवसीय बैठक के लिए आमंत्रित करता है।
कार्यसूची :
9:00 – 9:30 – रजिस्ट्रेशन और चाय
9:30 -11:30 – प्रारंभिक सत्र/ राजनीतिक परिपेक्ष्य
11:30 – 3:00 – भूमि कानूनों / पर्यावरण कानूनों / तटीयक्षेत्र / वन अधिकार अधिनियम में परिवर्तनों पर विस्तृत प्रस्तुति
1:00-2:00 – भोजन
3:00- 4:00 – कानूनी और जमीनी चुनौतियाँ
4:00 – 4:30 – चाय
4:30 – 6:00- आगे की दिशा/ रणनीति
हम संघर्षों के साथी, सामाजिक कार्यकर्ताओं, अधिवक्ताओं, पत्रकारों, शोध कर्ताओं और अन्य सभी को इस बैठक में आमंत्रित करते हैं और इन जन विरोधी परिवर्तनों को चुनौती देने की मुहिम में शामिल होने का आग्रह करते हैं।
संपर्क – 9971058735 | napmindia@gmail.com
जन आंदोलनों का राष्ट्रीय समन्वय/भूमि अधिकार आन्दोलन