पूंजी की प्रभुता में लोकतंत्र की हैसियत
दुनियाभर की भांति-भांति की शासन-प्रणालियों को देखें तो उनमें सर्वश्रेष्ठ लोकतंत्र ही दिखाई देता है, लेकिन पूंजी के बेशर्म सम्राज्य में उसकी कितनी हैसियत बची है? आज दुनिया का कोई भी देश, अपनी खामियों-खूबसूरतियों के बावजूद लोकतंत्र और पूंजी के रिश्तों को सुधार नहीं पा रहा है। ऐसे में क्या लोकतंत्र कारगर उपाय हो सकेगा? प्रस्तुत है, इसकी पड़ताल करता सत्यम पाण्डेय का यह लेख;
इसमें तो किसी को कोई संदेह नहीं होगा कि फासीवाद दरअसल पूंजीवादी व्यवस्था का ही एक निकृष्ट और क्रूर रूप है। लेनिन ने बीसवीं सदी के पहले दूसरे दशक तक के पूंजीवाद का विश्लेषण करते हुए बताया था कि साम्राज्यवाद पूंजीवाद की उच्चतम अवस्था है। उनका मानना था कि साम्राज्यवाद के चलते पूंजीवादी मुल्कों की लूट की आपसी लड़ाई इतनी प्रखर हो जाएगी और शोषण इतना अधिक हो जाएगा कि क्रांतिकारी नेतृत्व हासिल होने पर मेहनतकश शोषण के इस जुए को उतार फेंकेगा और इस तरह साम्राज्यवाद पूंजीवादी व्यवस्था का अंतिम सोपान साबित होगा।
‘प्रथम विश्वयुद्ध’ में यह काफी हद तक साबित भी हुआ, जब ‘तीसरी दुनिया’ के संसाधनों और बाजारों पर कब्जे के लिये अनेक मुल्क आपस में इस कदर उलझे कि पूरी दुनिया युद्ध का मैदान बन गई। इसी ‘आलमी लड़ाई’ के दौरान स्वयं लेनिन के नेतृत्व में सोवियत-क्रांति हुई जिसने पूरी दुनिया में समता के स्वप्न को विस्तार दिया। दुनिया के अनेक देशों में समाजवादी सरकारें स्थापित हुईं और औपनिवेशिक गुलामी में जकड़े देशों में मुक्ति की लड़ाईयां आरंभ हुईं।
यदि पूंजीवाद के खिलाफ निर्णायक लड़ाई लड़ी जाती तो यह युद्ध के अंत की शुरुआत थी, लेकिन महज दो दशक के अंदर ही दुनिया ‘दूसरी आलमी लड़ाई’ में फंस गई। यह अपने अस्तित्व पर आए संकट से निबटने की एक पूंजीवादी रणनीति थी। पूंजीवाद की अनेक खासियतें हैं जिनमें सबसे प्रमुख है- नित नये संकटों से निबटने की उसकी कलाबाजियां। इस बार उसने फासीवाद का सहारा लिया और एक नस्ल की श्रेष्ठता के नाम पर मनुष्यता के साथ जो अत्याचार हुए, उन्होंने दुनिया को कंपा दिया।
इससे एक ओर तो सोवियत समाजवादी गणतंत्र की जनता संघर्ष कर रही थी, तो दूसरी तरफ लोकतंत्र की बात करने वाले पूंजीवादी मुल्क। बहरहाल, यह लड़ाई फासीवाद के तात्कालिक खात्मे के साथ खत्म हुई और पुराने पूंजीवादी देशों ने कल्याणकारी राज्य की अवधारणा को प्रस्तुत कर अपने चेहरों से रक्त के दाग मिटाने की कोशिश आरंभ की।
अब आते हैं, लोकतंत्र पर। गौर से देखा जाए तो यूरोप में औद्योगिक क्रांति के आने के बाद तीन नए विचार दुनिया में आये – पूंजीवाद, लोकतंत्र और आधुनिकता। मजे की बात है कि ये तीनों एक-दूसरे से पृथक होने के बावजूद आपस में नाभिनालबद्ध हैं। लोकतंत्र अपने आपमें एक आधुनिक विचार है जो व्यक्ति की गरिमा और स्वतंत्रता पर जोर देता है।
ये तत्व पूंजीवाद को एक नैतिक वैधता प्रदान करते हैं जो उस दौर में सामंतवाद के बरअक्स एक आधुनिक उत्पादन प्रणाली के रूप में प्रकट हुआ था। अपनी सीमाओं के बावजूद लोकतंत्र अब तक की सबसे बेहतर शासन व्यवस्था सिद्ध हुई जिसने राजनीतिक बराबरी को स्थापित किया और आज सार्वभौमिक मताधिकार के माध्यम से प्रत्येक व्यक्ति को अपने शासक चुनने का अधिकार मिला है।
आधुनिकता और पूंजीवाद के दौर में लोकतंत्र आता है, लेकिन सत्ता-तंत्र का निर्वाचन सभ्यताओं के इतिहास में सब जगह कभी-न-कभी, किसी-न-किसी रूप में मौजूद रहा है। भारतीय संदर्भों में देखें तो छठवीं शताब्दी ईसा पूर्व के महाजनपदों में अधिकांश की शासन और निर्णय प्रक्रिया बहुत हद तक लोकतांत्रिक थीं, लेकिन वह दौर सामंतवाद का था। अब यह अपने आपमें मजेदार बात थी कि सामंतवादी व्यवस्था लोकतांत्रिक शासन प्रणाली के माध्यम से अभिव्यक्त हो रही थी।
इसके ठोस कारण भी थे। एक तो उस दौर में उत्पादन की प्रक्रिया और उसके संबंध सामंतवादी थे और महाजनपदों के अलावा अन्य राज्यों में भी वही संबंध और प्रक्रिया कायम थी। बाद में साम्राज्यों के उदय के साथ-साथ जनपद खत्म होते गए, क्योंकि उनके ‘नवजात लोकतंत्र’ दिन-प्रतिदिन जटिल होते उत्पादन संबधों को संभालने में असफल साबित हुए। बेशक, मगध जैसे साम्राज्यों ने उसे कर दिखाया – जैसे साम्राज्य करते हैं, उसी तरह।
इस विस्तार में जाने का मतलब सिर्फ इतना है कि यह समझा जा सके कि लोकतन्त्र एक शासन प्रणाली है जो किसी और तरह की शासन प्रणाली की तरह अपने समय में वर्चस्वशाली व्यवस्था को अभिव्यक्ति प्रदान करती है चाहे वह सामंतवाद हो, पूंजीवाद हो यहाँ तक कि समाजवादी व्यवस्था भी लोकतंत्र के माध्यम से संचालित हो सकती है। यह एक आईने की तरह है जिसके सामने जो आएगा, उसके चेहरे का प्रतिबिंब दिखाई देगा। ठीक ऐसा ही निरंकुश शासन व्यवस्था भी कर सकती है और सामंतवाद, पूंजीवाद यहाँ तक कि समाजवाद भी निरंकुश शासन व्यवस्था के अंतर्गत संचालित हो सकता है।
इसका मतलब लोकतंत्र के महत्व को कम करके आंकना और उसका अवमूल्यन करना नहीं है। लोकतंत्र के बारे में यह लिख पाने की आज़ादी लोकतंत्र ही दे सकता है। कोई निरंकुश शासन अपनी आलोचना इस तरह बर्दाश्त नहीं कर सकता। मैंने पहले भी कहा है कि लोकतंत्र अब तक की सबसे बेहतर शासन व्यवस्था है और आज की तारीख में इसका एक ही विकल्प है-बेहतर लोकतंत्र।
बेहतर लोकतंत्र का लक्ष्य कैसे हासिल होगा? आज पूंजीवाद शोषण और गैर-बराबरी के शिखर पर विराजमान है। महज एक फीसदी उद्योगपति दुनिया की आधी आबादी से अधिक की संपत्ति पर काबिज हैं। संसाधनों पर कब्जे की उनकी हवस, न केवल प्रकृति का विनाश करने पर उतारू है, बल्कि जल, जंगल और जमीन बचाने की बात करने वालों को हर तरह से प्रताड़ित भी किया जा रहा है।
जब लोकतंत्र आया था तब पूंजीवाद के लिये जरूरी था कि वह सामंतवाद का खात्मा कर दे। इसलिये उसने न्याय, बंधुत्व और समता जैसे नारे दिए। पूंजीवाद को लोकतंत्र बहुत भाया, परंतु आज पूंजीवाद लूट के जिस स्तर पर पहुंच गया है वहाँ ये तीनों मूल्य-समता, न्याय और बंधुत्व उसे अवांछित प्रतीत होने लगे हैं। जाहिर है, अब उसे इनसे मुक्ति चाहिए। इसलिये दिन प्रतिदिन लोकतंत्र और लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं को योजनाबद्ध तरीक़े से कमजोर किया जा रहा है। वैश्विक स्तर पर व्यवस्था के सभी अंग विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका इसी परियोजना में संलग्न हैं।
चूंकि यह बात सीधे-सीधे तो कही नहीं जा सकती कि अब पूँजीवाद का लक्ष्य लोकतंत्र से पूरा नही हो रहा है और उसे निरंकुश शासन व्यवस्था की दरकार है, इसलिये बिना कोई घोषणा किये इस काम को किया जा रहा है। कितनी बड़ी विडंबना होगी-निरंकुश लोकतंत्र।
इसलिये आज लोकतंत्र को बचाने की लड़ाई एकाँगी नहीं हो सकती। अब सिर्फ बचाने से लोकतंत्र नहीं बचेगा, उसे बेहतर बनाना होगा। बेहतर और समावेशी। सिर्फ राजनीतिक नहीं, बल्कि आर्थिक और सामाजिक समानता को स्थापित करता हुआ लोकतंत्र भविष्य का लोकतंत्र होगा। भविष्य का समाजवाद लोकतंत्र के बिना संभव नहीं होगा और भविष्य के लोकतंत्र के लिये समाजवाद अपरिहार्य होगा। लोकतंत्र बचाने वालों को इतनी सी बात समझनी होगी। (सप्रेस)