संघर्ष संवाद
Sangharsh Samvad

‘1885 के बाद अफ्रीका को लूटने का यह नया सिलसिला है’

पिछले दिनों जर्मनी में ‘एफेक्टिव कोऑपरेशन फॉर ए ग्रीन अफ्रीका’ के जर्मनी में आयोजित पहले अधिवेशन में ओबांग मेथो ने विस्तार के साथ बताया कि किस तरह अफ्रीका के अनेक देशों और खास तौर पर उनके देश इथियोपिया की जनविरोधी और तानाशाह सरकारें पैसे के लालच में अपने ही देश की जनता के खिलापफ काम कर रही हैं और अपार प्राकृतिक संपदा से भरपूर उपजाउफ जमीनों को चीन, भारत, सउफदी अरब आदि देशों को बेचती जा रही हैं। ओबांग मेथो ने अपने भाषण में यह भी बताया कि इन विदेशी कार्पोरेट कंपनियों के खिलापफ जनता का प्रतिरोध् कितना तीव्र है और उन्हें किस तरह के दमन का सामना करना पड़ रहा है। उनके भाषणों को पढ़ते समय छत्तीसगढ़ और उड़ीसा सहित देश के अनेक हिस्सों में कार्पोरेट घरानों को दी जा रही जमीनों की परिघटना दिमाग में कौंध् जाती है… हम यहां उस लंबे भाषण का संक्षिप्त रूप प्रस्तुत कर रहे हैं।

मैं यहां केवल अफ्रीका के लिए बोलने नहीं आया हूं। जमीन, पानी और प्राकृतिक संसाधनों के साथ खाद्य असुरक्षा का जो संबंध् है उस संदर्भ में मैं देख रहा हूं कि अफ्रीका की लूटपाट का यह दूसरा दौर शुरू हो गया हैं। बावजूद इसके अफ्रीका का यह मसला समूची दुनिया का मसला है और यह किसी न किसी रूप में सारे देशों के लोगों को प्रभावित करता है।


मैं इथियोपिया के एक अनजान से जनजातीय समूह से आता हूँ जिसे अनुवाक कहते हैं। अनुवाक लोग दक्षिणी सूडान के पूर्वी हिस्से से लेकर पश्चिमी इथियोपिया तक बसे हुए हैं और यही वजह है कि इनकी आबादी थोड़ी बहुत दोनों देशों में है। जिन दिनों दक्षिणी सूडान में गृहयुद्द चल रहा था हर जनजाति के लाखों शरणार्थी हमारे इलाके से होकर गुजरते थे और कहीं न कहीं शरण लेते थे। गैम्बेला नामक जिस इलाके से मैं हूं वहां के अनुवाक लोग इन शरणार्थियों को खाना-पीना पहुंचाते थे और पनाह देते थे। अफसोस की बात है कि आज उन्हीं अनुवाक लोगों को आज खुद अपनी ही धरती पर शरणार्थी की हैसियत में रहना पड़ रहा है क्योंकि हमारी सरकार ने हमें उस जमीन से बेदखल कर दिया है जो सदियों से हमारे पूर्वजों के पास थी। इन जमीनों को विदेशियों और सत्ता के करीबी लोगों को व्यापारिक खेती के लिए सौंप दिया गया है। यह स्थिति केवल इथियोपिया के मेरे इलाके में ही नहीं है बल्कि समूचे महाद्वीप में आज किसी न किसी रूप में दिखायी दे रही है।

अफ्रीका के सामने आज सबसे बड़ा खतरा वहां की आबादी को अपने जमीन से वंचित होने का है। अनेक देशों में जमीन हड़पने वालों ने न तो उस जमीन पर बसने वालों को कोई मुआवजा दिया और न उनके जीने का कोई उपाय उपलब्ध् कराया। अधिकाश लोग अपनी ही जमीन में मजदूरी करने के लिए मजबूर हो गए। विदेशी निवेशकों ने इन देशों की भ्रष्ट सरकारों के साथ जो गुप्त समझौते किए उसकी जानकारी भी यहां के बाशिंदों को नहीं मिल सकी। खाद्य सुरक्षा के मुद्दे पर सारी दुनिया में एक चिंता दिखायी देती है क्योंकि अब से महज 38 साल बाद यानी 2050 तक दुनिया की आबादी 9 अरब हो जाएगी। ऐसे में ऐसी जमीनें जो जल स्रोतों के नजदीक हों, एक मूल्यवान वस्तु का रूप ले चुकी हैं जिन्हें कभी-कभी ‘हरित सोना’ भी कहा जाता है। इसके साथ ही खनिज पदार्थों, तेल, प्राकृतिक गैस जैसे संसाधनों पर ललचायी निगाहों से देखने वालों की निगाह सबसे पहले अफ्रीका पर जाती है क्योंकि यह एक ऐसा महाद्वीप है जहां के बहुत सारे प्राकृतिक संसाधन अभी भी धरती की गर्भ में छिपे हुए है। यही वजह है कि अफ्रीका की लूट आज दुबारा शुरू हो गयी है।

1985 में बर्लिन सम्मेलन के दौरान साम्राज्यवादी देशों ने पूरे अफ्रीका को आपस में बांट लिया था। अफ्रीका की यह पहली लूट थी। इस पहली लूट को मुकम्मल रूप देने से पहले इन विदेशियों ने खुद अफ्रीकियों की मदद से, जो अपने भाई-बहनों के साथ विश्वासघात करके मुनाफा कमाना चाहते थे, अफ्रीकियों को अपना गुलाम बनाया। इन बाहरी लोगों ने फूट डालो और राज करो की नीति अपनाते हुए उन अफ्रीकी अवसरवादियों के साथ समझौता किया जो जनता के बीच अपेक्षाकृत मजबूत हैसियत रखते थे। इनकी ही मदद से अफ्रीकी जनता का शोषण हुआ। अफ्रीका को उपनिवेश बनाया गया। यह मानते हुए भी कि उपनिवेशवाद का अफ्रीका के विकास में कुछ हद तक योगदान रहा है, आज भी उपनिवेशवाद को ही मानवता के इतिहास का सबसे काला दौर माना जाता है।

अफ्रीकी जनता को एक वस्तु समझने और अफ्रीका के अनेक संसाधनों पर कब्जा करने के क्रम में तमाम देशों में विदेशी अल्पसंख्यक समूह का शासन शुरू हुआ जिसे बाद में सत्ता हस्तांतरण के बाद अफ्रीका के ताकतवर लोगों ने भी अपना लिया। अफ्रीका के इन ताकतवर लोगों ने अपने कबीला आधारित समूहों की मदद से शासन का वही तरीका अपनाया जो वे उपनिवेशवादियों से सीख चुके थे। यहां तक कि इथियोपिया में जहां औपनिवेशिक प्रयास विफल हो गए लेकिन सामंतवाद को सफलता मिली और नतीजे वही रहे। यहां उपनिवेशवाद हो या सामंतवाद दोनों ने कबीलावाद का सहारा लिया और व्यापक जनसमुदाय पर अपना शासन स्थापित किया। इस शासन प्रणाली में ऐसी संस्थाओं को टिकने ही नहीं दिया गया जो इनकी निरंकुशता पर अंकुश लगा सकें और अगर ऐसी संस्थाएं अस्तित्व में आयीं भी तो वे एक प्रहसन बनकर रह गयीं।

2008 से आज तक तकरीबन 20 करोड़ 40 लाख एकड़ जमीन सारी दुनिया में लीज पर दी गयी है और इसका अधिकाश हिस्सा अफ्रीका में आता है। अफ्रीका में भी जमीन हड़पने से संबंधित सौदों में इथियोपिया का नाम सबसे उफर है। इथियोपिया में भी इस मामले में गैम्बेला का इलाका सबसे उफर है जो मेरा निवास स्थान है। मैं आपको बताना चाहूंगा कि किस तरह यह सब हुआ और कैसे जमीन हड़पने की इन कार्रवाइयों से उस इलाके में खाद्य असुरक्षा बढ़ गयी है जहां के बाशिंदों ने कभी भी अपना पेट भरने के लिए दूसरों का सहारा नहीं लिया।

2008 में तत्कालीन प्रधनमंत्री मेलेस जेनावी ने भारत की एक व्यापारिक संस्था करूतुरी ग्लोबल लिमिटेड के साथ एक गुप्त समझौता किया। उस समझौते के अंतर्गत प्रधनमंत्री ने इस कंपनी को एक लाख हेक्टेयर जमीन 50 वर्षों की लीज पर दिया और कहा कि इस जमीन को विकसित करने के बाद उन्हें और भी 2 लाख हेक्टेयर जमीन दी जाएगी जिस पर वे दुनिया की सबसे बड़ी व्यापारिक खेती करेंगे। यहां पैदा होने वाली अधिकाश सामग्री का निर्यात भारत को तथा अन्य बाजारों को किया जाता है। इस कंपनी ने कुछ स्थानीय अनुवाकों को अपने यहां नौकरी दी लेकिन उन्हें जो मजदूरी दी जाती थी वह विश्व बैंक द्वारा निर्धरित मजदूरी से भी कम थी। 2009 से 2010 के बीच गैम्बेला क्षेत्र में काम करने वाली कंपनियों की संख्या लगभग 900 हो गयी और इनमें से अधिकाश कंपनियां भारत, चीन तथा सउदी अरब की थीं। इनमें सउदी स्टार नामक एक कंपनी भी है जिसके मालिक सउदी अरब के अत्यंत समृद्द शेख मोहम्मद अल अमुदी हैं जो यहां अनाज पैदा कर सउदी अरब को निर्यात करते हैं। पिछले वर्ष सशस्त्र विद्रोहियों ने, जो गैर कानूनी ढंग से जमीन हड़पे जाने का विरोध् कर रहे हैं, सउदी स्टार के मुख्यालय पर हमला कर दिया और अनेक कर्मचारियों की हत्या की। इस घटना से यह संकेत मिलने लगा कि अपनी जमीन से बेदखल किए जाने से क्षुब्ध् स्थानीय लोगों ने अब हिंसा का सहारा ले लिया है।

जमीन बेचने की प्रक्रिया शुरू करने से पहले इथियोपिया सरकार ने 1995 में यहां के भू-क्षेत्र का एक अध्ययन कराया था जिसके नतीजे के रूप में यह बात सामने आयी थी कि गैम्बेला क्षेत्र की जमीन सबसे ज्यादा उपजाउ है और यहां नील नदी के पानी की पर्याप्त पहुंच होने के कारण सिंचाई की भी जबर्दस्त सुविधा है। उसी अध्ययन में यह भी बताया गया था कि यह समूचा इलाका जैव विविधता से भरपूर है और अभी तक अविकसित है। लगभग इन्हीं वर्षों के आसपास इस इलाके में तेल होने की जानकारी मिली। 2003 में सरकार ने तेल की खुदाई शुरू की। यहां के अनुवाक लोगों ने तेल के संदर्भ में जब अपनी कुछ मांगें रखीं तो उनकी आवाज को दबाने का इंतजाम किया जाने लगा। स्थानीय लोगों ने अपनी जो भी मांगें रखी थीं उनका संबंध् पर्यावरण और उनकी आजीविका से जुड़ा हुआ था और ये सारी मांगें देश के संविधन के अंतर्गत ही थीं। 13 दिसंबर 2003 को इथियोपिया सरकार ने अपने सैनिकों को और इन सैनिकों के साथ स्थानीय लोगों के उस हथियारबंद दस्ते को जिसे सरकार ने खुद तैयार कराया था, इलाके में भेजा और इन लोगों ने विरोध् करने वालों पर हमला बोल दिया। तीन दिनों के अंदर अनुवाक समुदाय के 424 नेता मारे गए। इनके शवों को सामूहिक तौर पर दफना दिया गया। इलाके की महिलाओं के साथ बलात्कार किया गया और अस्पतालों तथा स्कूलों को नष्ट कर दिया गया। इसके बाद अगले दो वर्षों तक जबर्दस्त तरीके से सरकारी सैनिकों द्वारा यहां मानव अधिकारों का उल्लंघन किया गया। इन तीन दिनों के नरसंहार में जो लोग मारे गए उनमें से तकरीबन 300 लोगों को तो मैं व्यक्तिगत तौर पर जानता था। इनमें कई मेरे संबंधी, मेरे सहपाठी और विकास कार्यों में मेरे साथ काम करने वाले लोग थे। सरकार ने अपनी इस शर्मनाक हरकत पर पर्दा डालते हुए यह प्रचारित किया कि यह एक जातीय संघर्ष था जो अनुवाक लोगों और एक दूसरी जनजाति के बीच भड़क उठा था। जिस दिन यह नरसंहार हुआ उसके अगले दिन से ही मलेशिया के पेट्रोनास के तत्वावधन में चीन की एक कंपनी ने तेल की खुदाई का काम शुरू कर दिया। वे जब तक वहां रहे मानव अधिकारों का उल्लंघन जारी रहा।

2007 में जब उन कुंओं से सारा तेल निकाल लिया गया तो ये सैनिक दक्षिण पूर्वी इथियोपिया और सोमालिया की ओर बढ़े जहां नागरिकों के खिलापफ एक बार फिर इसी तरह के अपराध् किए गए। अब इथियोपिया की सरकार ने ऐलान किया है कि ओगादेन क्षेत्र में जो तेल की खुदाई होगी उसके लाभ में वहां के नागरिकों को भी भागीदार बनाया जाएगा।

आज जो हालत है उसमें जमीनों पर तेजी से कब्जा होता जा रहा है, स्थानीय लोगों को जबरन उनकी जमीन से हटाकर सरकार द्वारा बनायी गयी बस्तियों में रखा जा रहा है और किसी भी प्रतिरोध् के खिलापफ सेना का इस्तेमाल किया जा रहा है। इन हालात ने ओनुवाक तथा अन्य जातीय समूहों के सामने खतरा पैदा कर दिया है। 2011 में हमने जमीन पर कब्जा करने की इस प्रक्रिया का ओकलैंड इंस्टीटयूट के साथ मिलकर एक व्यापक अध्ययन किया। अभी इस वर्ष के प्रारंभ में भी जमीन हड़पने से स्थानीय लोगों पर पड़ने वाले प्रभावों की पड़ताल ह्यूमन राइट्स वाच नामक संस्था ने की। इनके अध्ययन के अनुसार गैम्बेला में 70 हजार देशज लोगों को जबरन हटाया जा चुका है और आने वाले दिनों में 245000 लोग बेदखल किये जायेंगे। यह संख्या गैम्बेला की कुल आबादी की तीन चौथाई है। सरकार कहती है कि जो लोग बनायी गयी बस्तियों में जा रहे हैं, वे स्वेच्छा से जा रहे हैं जबकि सच्चाई यह है कि उन्हें उनकी उपजाउ जमीनों से बेदखल कर जबरन ऐसी जगह भेजा जा रहा है जहां वे सभी सुविधओं से वंचित होकर पेड़ों के नीचे सिर छुपाने के लिए अभिशप्त हैं। उनमें से कइयों को मैं व्यक्तिगत तौर पर जानता हूं और मुझे पता है कि उन्हें किन मुसीबतों का सामना करना पड़ रहा है। मुझे पता है कि हमारे जंगलों को कैसे काटा जा रहा है और रसायनों, उर्वरकों तथा कीटनाशकों की वजह से हमारी नदियां कितनी प्रदूषित हो रही हैं कि अब हम वहां मछली भी नहीं पाल सकते।

इसमें कोई संदेह नहीं कि अफ्रीका को विकास की जरूरत है। न तो मैं विकास विरोधी हूं और न पूंजी निवेश के खिलापफ हूं अथवा आर्थिक विकास नहीं चाहता। मैं दिन दहाड़े हो रही इस डकैती के खिलाफ हूं। पश्चिमी देशों में ऐसी स्थितियों में कानून जनता की रक्षा करता है लेकिन हमारे यहां या तो इस तरह का कानून नहीं है या अगर है तो उसे लागू नहीं किया जाता। कोई भी दूसरा देश कभी ऐसी कार्रवाई को बर्दाश्त नहीं कर सकता जैसी हमारे यहां हो रही है। क्या कोई बाहर का देश जर्मनी या कनाडा जाकर वहां के पर्यावरण को अंगूठा दिखाते हुए पेड़ों की कटाई कर सकता है? क्या कोई सउदी अरब जाकर इस बात की परवाह किये बगैर कि वहां की जनता कैसे अपना काम चलायेगी, वहां के तेल संसाधनों पर कब्जा कर सकता है? आप कल्पना भी नहीं कर सकते क्योंकि कोई भी सुव्यवस्थित देश अपने नागरिकों की रक्षा के लिए कानून बनाता है। हमारे यहां लुटेरों के लिए भ्रष्ट सरकार ने पूरी छूट दे रखी है और यह सारा कुछ विकास के नाम पर हो रहा है।

हाल में इथियोपिया की सरकार ने मुझे आतंकवादी घोषित करते हुए मेरी अनुपस्थिति में मुझे सजा सुनायी लेकिन मेरे ‘अपराध्’ से संबंधित कोई भी दस्तावेज मुझे मुहैया नहीं कराया…मैं मानता हूं कि जमीन हड़पना जिंदगी को हड़पने जैसा है। मानव समुदाय द्वारा कभी भी इसकी इजाजत नहीं दी जानी चाहिए। यह किसी एक देश का मामला नहीं है क्योंकि हम मानते हैं कि जब तक सब लोग खुशहाल और स्वतंत्र नहीं रहेंगे तब तक कोई भी खुशहाल और स्वतंत्र नहीं रह सकता।

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