संघर्ष संवाद
Sangharsh Samvad

संपादकीय, मार्च 2011

चेरनोबिल परमाणु संयंत्र की दुर्घटना के 25 साल पूरे होते-होते जापान की मौजूदा प्राकृतिक विभीषिका हमारे सामने है। जापान में आये भूकम्प तथा परमाणु संयंत्रों से होने वाले रेडिएशन से भी दुनिया के शासक सबक सीखने को तैयार नहीं हैं। चर्चाओं, लेखों और बयानों में यह कहा जा रहा है कि इस तरह की दुर्घटनायें संभावित हैं, जरूरत इन स्थितियों से निपटने की पुख्ता तैयारी की है।
परमाणु ऊर्जा के खतरों से आँखमँूदकर आगे बढ़ने को तत्पर शासकवर्ग अपने हितों के लिए पूरी मानवता को दांव पर लगाने में भी झिझकता हुआ नहीं दिख रहा है। दूसरी तरफ परमाणु ऊर्जा संयंत्रों को अनिवार्यतः खतरनाक मानते हुए भारत के प्रस्तावित परमाणु ऊर्जा संयंत्रों के खिलाफ लोग अपने जुझारू संघर्ष को तेज करते जा रहे हैं।
जापान में आये भयंकर भूकम्प के बारे में लखनऊ विश्वविद्यालय में स्ट्रक्चरल जियोलाजी के प्रो. के.के. अग्रवाल तथा डिजास्टर मैनेजमेण्ट एण्ड डेवलपमेण्ट पत्रिका की एक अध्ययन रिपोर्ट ने यह खुलासा किया है कि जापान में आया भूकप हिमालय के आस-पास बसे शहरों, बहुमंजिली इमारतों के लिए खतरे की घण्टी है। लखनऊ और दिल्ली जैसे शहर हिमालय क्षेत्र से 200 कि.मी. की हवाई दूरी पर स्थित हैं। इस क्षेत्र में रिक्टर स्केल पर 8 या इससे भी ज्यादा की तीव्रता का भूकम्प कभी भी आ सकता है।  प्रो. अग्रवाल का कहना है कि हिमालय क्षेत्र में बहुत समय से कोई बड़ा भूकम्प नहीं आया है जबकि धरती के भीतर प्लेटों की टकराहट जारी है जो कभी भी जापान के भूकंप से भी विकराल भूकंप को जन्म दे सकती है।
यदि हम देखें तो यह पाते हैं कि हिमालय क्षेत्र में अंधाधुंध जंगल काटे गये हैं, पर्यटन एवं शहरीकरण के नाम पर बेतरतीब निर्माण-बहुमंजिली इमारतों को खड़ा किया गया है। नैनीताल से लेकर शिमला तक में 6 से 8 मंजिला इमारतों की वजह से यह खतरा और बढ़ा है। अंधाधुंध जंगलों की कटाई का परिणाम उत्तराखण्ड में तबाही के रूप में सामने है- भूस्खलन, सड़कों-पुलों का टूटना बहना। लखनऊ शहर को भूकंप एवं बाढ़ के सबसे संवेदनशील इलाके के रूप में प्रो. अग्रवाल देखते हैं। लखनऊ में गोमती नदी के तटों को पाटकर (गोमतीनगर जैसी पाश लोकेलटी बनायी गयी है) नये इलाके बसाये गये हैं, फलस्वरूप लखनऊ में बाढ़ का प्रकोप बढ़ गया है और भूकंप आने पर यह बहुमंजिली इमारतों वाला इलाका सबसे ज्यादा प्रभावित होगा।
भू-वैज्ञानिकों का यह कहना है कि हिमालय के 6 क्षेत्रों में रिक्टर स्केल पर 8 या इससे ज्यादा तीव्रता वाला  भूकंप कभी भी आ सकता है। दार्जिलिंग- सिक्किम, नैनीताल-शिमला, लखनऊ-दिल्ली रेंज भी इसमें शामिल हैं। इस बात का प्रबल अंदेशा है कि हिमालय के जिन इलाकों में बीते पांच-सात सौ साल से कोई बड़ा भूकंप नहीं आया, वहां अब ऐसा हो सकता है। पूर्वी हिमालय की तीसरी सबसे बड़ी पर्वतमाला कंचनजंगा (8534 मीटर) के नीचे बसा सिक्किम, उत्तर में तिब्बत, पूर्व में भूटान, पश्चिम में नेपाल तथा दक्षिण में प. बंगाल से घिरा है। पर्यटकों के लिए स्वर्ग कहा जाने वाला यह हरी-भरी वादियों वाला क्षेत्र दार्जिलिंग की ही तरह खतरे में है। इसके खतरे में पड़ने का कारण है अन्धाधुंध वनों-वृक्षों की कटाई की वजह से मिट्टी का खिसकना, फलतः पहाड़ों का धंसना।
प्राकृतिक आपदाओं को न्यौता देने वाले कारनामे, मनुष्य-प्रकृति के संतुलित रिश्तों को तबाह करने वाली बाजारोन्मुखी परियोजनायें तथा परमाणु ऊर्जा जैसी आत्मघाती योजनायें आज हमारे शासकों के एजेण्डे में हैं। अपनी विलासितापूर्ण जीवन शैली को ज्यादा से ज्यादा विलासितापूर्ण बनाते जा रहे शासक वर्ग और उनकी नजदीकी जमातें अपनी जीवन शैली बदलने को तैयार नहीं हैं। फलतः प्रकृति का अंधाधुंध दोहन बंद नहीं हो पा रहा है। इस विलासितापूर्ण जीवन शैली की आधुनिकतम जरूरतें जहां एक तरफ शहरीकरण की मांग कर रही हैं, हवाई अड्डों, माल्स, होटलों तथा एअर कंडीशनिंग की मांग कर रही हैं वहीं इन जरूरतों को पूरा करने के लिए उन्हें अमानवीय तरीके से ज्यादा से ज्यादा मुनाफा कमाना है, अतएव बाजारों का विस्तार होता जा रहा है। बाजार का यह विस्तार बची-खुची लोक अर्थव्यवस्थाओं का खात्मा करता जा रहा है। इन प्रक्रियाओं को सही ढंग से चलाने के लिए शासक वर्ग को हर कदम पर ऊर्जा की जरूरत है और इस जरूरत की पूर्ति के लिए ‘परमाणु ऊर्जा’ को ‘लुकमान हकीम के नुस्खे’ की तरह सामने पेश किया जा रहा है। अतएव परमाणु ऊर्जा संयंत्रों की श्रृंखलायें खड़ी की जा रही हैं। बाजार के विस्तार तथा मुनाफे को सुनिश्चित करने के लिए खनिज पदार्थों, पानी, वनों तथा ज्यादा से ज्यादा जमीन की जरूरत है। परिणामतः भूमि, नदियों, पहाड़ों, वनों पर शासकवर्गों की गिद्ध निगाहें जमी हुई हैं। वहीं दूसरी तरफ इसके उलट जल, जंगल, जमीन बचाने के लोगों के जनसंघर्ष, आज बड़ी तेजी के साथ खड़े हैं। यह दोनों प्रक्रियायें आमने-सामने खड़ी हैं।

फलतः एक तरफ जहां वनों, नदियों, पहाड़ों को बचाने के लिए छत्तीसगढ़, झारखण्ड, उड़ीसा, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र के लोग वेदान्ता, पोस्को, जे.पी, मित्तल, जिंदल,भूषण, आर.पी.जी. जैसी कंपनियों के खिलाफ संघर्ष कर रहे हैं वहीं राजस्थान, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, बंगाल, आन्ध्रप्रदेश, कर्नाटक के किसान अपनी कृषि योग्य भूमि बचाने के निर्णायक संघर्ष की राह पर हैं। जैतापुर (महाराष्ट्र), गोरखपुर (हरियाणा), हरिपुर (प. बंगाल), मिथिबिर्दी (गुजरात), सिरीकाकुलम (आं.प्र.) में प्रस्तावित परमाणु ऊर्जा संयंत्रों के खिलाफ संघर्ष करते हुए लोग कुर्बानियां दे रहे हैं। छाता (झारखण्ड), शिवनाथ व केलो (छत्तीसगढ़), जरगो, सोन, कनहर व पाँगन (उत्तर प्रदेश) नदियों को बचाने के लिए लोग हर स्तर पर संघर्षरत हैं।

देश की सबसे ज्यादा भूमि अधिग्रहीत करने वाली 1047 कि.मी. लम्बी गंगा एक्सप्रेस-वे परियोजना, लगभग 70 गांवों को जल समाधि देने वाली कनहर बांध परियोजना,  बभनी का पावर प्लांट, कचरी में जे.पी. के पावर प्लांट द्वारा निगले जाने वाली 2500 एकड़ भूमि (उत्तर प्रदेश), नवलगढ़ का भूमि अधिग्रहण (राज.) बांध एवं पावर प्लांट-सीमेंट प्लांट विरोधी संघर्ष (हिमाचल), पालपुर (म. प्र.) एवं चित्तौड़गढ़ (राज.) में प्रस्तावित अभयारण्य के खिलाफ संघर्ष आज उभरते हुए नये जनसंघर्ष हैं।
आज स्थिति यह है कि जहां काशीपुर, कलिंगनगर, पोस्को, वेदांत, जिंदल, भूषण, मित्तल, जे.पी. के खिलाफ लोग कई सालों से संघर्ष के रास्ते पर हैं वहीं दूसरी तरफ नवलगढ़ (राजस्थान), फतेहाबाद (हरियाणा), कचरी (उत्तर प्रदेश) के किसान अपनी कृषि एवं कृषि भूमि बचाने के लिए 250 से भी ज्यादा दिनों से शांतिपूर्ण ढंग से क्रमिक अनशन, धरना-प्रदर्शन करते आ रहे हैं।
कनहर बचाओ आंदोलन के लोगों को शांतिपूर्ण पैदल यात्रा न करने देना, जैतापुर में लोगों के प्रवेश पर रोक तथा जिला बदर, सामाजिक संगठनों को नोटिसें देना राज्य के इरादों को एक बार फिर साफ करते हैं। देखना यह है कि राष्ट्र-राज्य इन संघर्षों के साथ किस तरह की नीति, रवैया अपनाता है।
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