संघर्ष संवाद
Sangharsh Samvad

नियमगिरी का पुर्नभ्रमण : दूसरी किस्‍त

नियमगिरी में निवासकर रहा आदिवासी डोंगरिया कौंध समुदाय एक परिपूर्ण विचार के साथ खनन का विरोध कर रहा है। उसकी अपनी जीवनशैली प्रकृति के सामंजस्य से विकसित हुई है और जीवन के शाश्वत मूल्यों को अंगीकार करती है। इस आलेख के माध्यम से यह बात सामने आती है कि यह समुदाय बहुत सोचविचार करने के बाद व  पृथ्वी के भविष्य को सुस्थिर रखने की जद्दोजहद में अपने पैतृक निवास को बचाए रखने के प्रति कटिबद्ध है। प्रस्तुत है आशीष कोठारी के दो लेखों के यात्रा वृतांत की दूसरी व अंतिम किस्त जिसे हम सप्रेस से साभार प्रस्तुत कर रहे है;

पहली किस्त यहाँ पढ़े
भुवनेश्वर का एक जाना माना शिक्षा संस्थान, जिसकी पीठ पर अनेक राजनीतिज्ञों एवं वैज्ञानिकों का भी हाथ है, ने पूरे ओडिशा से हजारों आदिवासी बच्चों को वहां लाकर शिक्षा देना प्रारंभ कर दिया है जबकि तथ्य यह है कि इसमें बड़े पैमाने पर उन कारपोरेशनों से धन आ रहा है जो उस इलाके में खनन व कारखाने स्थापित करना चाहते हैं। क्षेत्र  में कार्यरत रहे कार्यकर्ता इस बात पर आश्चर्यचकित हैं कि यह शिक्षा है या यहां पर उनके दिमाग को बदला जा रहा है।

राज्य के पीछे-पीछे अब वहां बाजार भी घुसने लगा है। कुछ ही समय पूर्व तक डोंगरिया कौंध अर्थव्यवस्था पूर्णतया गैर मुद्रा आधारित थी, क्योंकि वे वस्तु विनिमय (बार्टर) के आधार पर अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति वनों, खेतों और नदियों से कर लेते थे। आदिवासी जो भी थोड़ा खरीदते हैं, जैसे कपड़े, नमक या कभी कभार बली प्रदान के लिए भैंसे अब अत्यंत महंगे हो गए हैं और उन्हें धन की अधिक “आवश्यकता“ पड़ने लगी है। यदि आप सुबह मुनिगुदा के कोने पर खड़े हों तो आप देखेंगे कि आदिवासी महिलाएं पैदल एवं पुरुष सायकिल पर बेचने के लिए जलाऊ लकड़ी व अन्य वन एवं कृषि उत्पाद लाते दिखे जाते हैं। चूंकि वे अपनी वस्तु वापस नहीं ले जा सकते अतएव अक्सर उन्हें अपने उत्पाद बाजार भाव से कम पर बेचकर जाना पड़ता है। भारत में आदिवासियों का बाजार से सामना उनके लिए हमेशा हानिकारक ही सिद्ध होता है।

अंत में उनका सामना होता है पुलिस एवं अन्य सुरक्षा बलों के आक्रमण से। इस क्षेत्र में नक्सलवादी गतिविधियां भी जारी हैं, इसके साथ खनन विरोधी हड़ताल के चलने से सरकार को समय-समय पर पुलिस बल भेजने का कारण भी मिल जाता है। आदिवासी नेताओं और उनके समर्थकों दोनों से लगातार पूछताछ होती रहती है और उन पर आतंकवाद सहित अनेक मुकदमें कायम कर दिए जाते हैं। उनके यहां तलाशी होती है और ऐसे अनेक तरीके प्रयोग में लाए जाते हैं, जिससे कि वे अपने ही घर में खुद को बेगाना महसूस करने लगते हैं।
डोंगरिया कौंध समुदाय विशेषकर आंदोलन के नेता इन मुद्दों को लेकर जागरूक हैं लेकिन उनमें इस बात को लेकर अस्पष्टता है कि इन मामलों से निपटा कैसे जाए।

अपने घरों की छतों पर बेतुकी लोहे की छत (टीनें) का बढ़ता प्रयोग (हालांकि दीवारें अभी भी मिट्टी की ही हैं) उनके भटकाव का संकेत है। वे इस बात की शिकायत करते हैं कि इन छतों से उनके घर गर्मियों में अत्यधिक गरम हो जाते हैं। यह पूछने पर कि उन्होंने अपनी पारंपरिक छतों को टीन की छतों से क्यों बदला? तो उनका जवाब था, “क्योंकि सरकार ने लोहे की छत दी।“ यही उत्तर उन्होंने तब भी दिया जब उनसे पूछा कि वे सफेद चावल क्यों खाने लगे हैं जबकि उनके पास स्थानीय मोटे खाद्यान्न और अन्य खाद्यान्न मौजूद हैं। उन्होंने पुनः स्वीकार किया कि यह उन्हें वह मुफ्त मिल रहा है, जबकि वास्तव में उनके यहां पारंपरिक खाद्यान्नों की कमी नहीं है। हमारे इस प्रश्न का उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया कि विनिमय के लिए धन का बढ़ता प्रयोग क्या उनके लिए समस्या खड़ी कर रहा है?

लड्डो सिकाका ने अपने बेटे को विद्यालय से भाग जाने के बाद वहां से निकाल लिया था, क्योंकि उसे वहां अकेले पड़ जाने का डर सताने लगा था। जबकि अन्य कई डोंगरिया कौंध परिवारों इस हताशा भरी उम्मीद में अपने बच्चों को विद्यालय भेजना जारी रखा हुआ है कि उनके बच्चों का भविष्य उज्जवल हो जाएगा। जबकि अनेक लोेगों का कहना है  उनकी प्राथमिकता तो यही है कि गांवों में ही विद्यालय हो जिसमें डोंगरिया कौध्र शिक्षक कुई भाषा में ही पढाएं एवं वन व कृषि आधारित शिक्षण को इसमें शामिल किया जााए ।

खनन विरोधी हडताल का एक सकारात्मक योगदान है नियमगिरी सुरक्षा समिति, जिसने सभी डोंगरिया कौंध बसाहटों को एक कर दिया है । समिति अन्य मुददे भी उठाती है, जैसे क्षेत्र में अवैध शराब बनाने के खिलाफ कार्यवाही एवं अन्तरगांव या अन्तर कुल (गोत्र) संबंधी विवादों का निपटारा। यह एक ऐसा मंच है जो कि आदिवासियों को परेशान करने वाले मामले उठाने को हमेशा तैयार रहता है । गैर सरकारी संगठन वसुंधरा के सहयोग से वन अधिकार अधिनियम के अंतर्गत बसाहट के अधिकार का दावा व योजना निर्माण  भी एक महत्वपूर्ण अवसर सिद्ध हो सकता है। छोटी सी यात्रा के माध्यम से एवं  आदान- प्रदान से हम किसी भी सूरत में उन जटिल प्रश्नों के साथ न्याय नहीं कर सकते जो कि हम पूछना चाह रहे थे। परंतु हम इस छोटी सी यात्रा के बाद इस बात पर पूरी तरह सहमत हो गए थे कि एक स्थान और वृत्तांत दोनों ही लिहाज से नियमगिरी का पुर्नभ्रमण आवश्यक है। डोंगरिया कौंध द्वारा अपने अतीत और वर्तमान की समझ के साथ अपने भविष्य के निर्धारण को समझने के लिए गहरी सहानुभूति और समझ की आवश्यकता है। कोई भी बाहरी व्यक्ति ऐसा तभी महसूस कर सकता है, जबकि वह वास्तव में उनका बहुत ख्याल रखता हो का वृत्तांत ताकतवर है और यह कायम रहेगा तथा प्रेरणा भी देता रहेगा, परंतु यह परिपूर्ण नहीं है। बाजार और राज्य दोनों ने प्रवेश कर लिया है, जो आज उनके चेहरे पर साफ दिखाई दे रहा है और उससे छुटकारा पाना भी उनके लिए अत्यंत कठिन है।

आवश्यकता इस बात की है कि डोंगरिया कौंध व नागरिक समाज तथा सरकार के बीच सुविचारित साझेदारी हो जो कि इस बात का रास्ता खोजे कि उनके सामने प्रस्तुत कठिन डगर से वे कैसे पार पाएं। साथ ही वह बकाया विश्व को इस तरह से प्रेरित व शिक्षित करते रहें कि किस तरह अंततः प्रकृति की गोद में जीवन बिताया जा सकता है।

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