संघर्ष संवाद
Sangharsh Samvad

कुडनकुलम: सर्वोच्च न्यायालय में जनता की अवमानना

अपने हक अधिकारों के लिए संघर्ष कर रहे देश के लोगों का इस तरह के मामलों में सर्वोच्च न्यायालय से गुहार लगाना निर्थक है। और यह कहा जा सकता है कि अदालत खुद भी इसी सिस्टम का हिस्स है जो आकांशओं और वंचित जन समुदाय और ‘ व्यापक जनहित’ की मुख्य अवधारणा के बीच बढ़ती खाई को पाटने में पूरी तरह नाकाम रही है। इस प्रकार के मामलों में न्यायालय के समक्ष याचना करने से कोई लाभ नहीं होने वाला है और लोगों को विकाश की विनाशक अवधारणा जो विकसित हो रही के खिलाफ लड़ाई लड़नी होगी। सर्वोच्च न्यायालय के फैसले पर पी.के. सुंदरम  का  महत्वपूर्ण आलेख;

कुडनकुलम मामले पर सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिया गया निर्णय भारतीय इतिहास में नर्मदा बांध पर आए निर्णय और इसी प्रकार के अन्य निर्णयों की सूची में शामिल किया जा सकता है। आजादी के बाद से ही देश के जनतंत्र में व्यापक जनहित, विकास/ग्रोथ और  देश हितों की संकीर्ण परिभाषा के द्वारा अपना नियंत्रण स्थापित रखने का प्रयास किया गया है।

किसका हित बड़ा है?

जब चेन्नई के पर्यावरणवादी संगठन पूवुलाजिन ननबरगल द्वारा जनहित याचिका दायर की गई थी जिसमें  विशेष तौर पर सुरक्षा से संबंधित खतरों को उठाया गया था और यह भी इंगित किया गया था कि प्रोजेक्ट की स्थापना में किस तरह सरकार द्वारा खुद अपने बनाए निमयों की अनदेखी की जा रही है। सवोच्च न्यायालय के अंतिम निर्णय से यह स्पष्ट होता है कि देश को विकास करने के लिए परमाणु उर्जा की जरूरत है। जजों ने याचिकाकर्ता की मांग के परे जाकर यह साबित करने का प्रयास किया है कि परमाणु ऊर्जा देश के विकास के लिए जरूरी है और लोगों  में खतरे  की भावना को खारिज कर दिया। अदालत ने यहां तक कह दिया कि देश के व्यापक हित के प्रोजेक्ट में ‘छोटी परेशानियां’ तो आती ही हैं।

अदालत के फैसले का दूसरा पैराग्राफ लोगों को कुडनकुलम में आंदोलन के लिए खुद उकसा रहा है और भावनात्मक प्रतिक्रया  रिक्टर की स्थापना के विरोध में पैदा हो गई है। फैसले में कहा गया है कि यह बात बनावटी है कि रिएक्ट से लोगों को खतरा और डर महसूस हो रहा है। यह नहीं सोचा जा रहा जब एनरिको फर्मी ने पहले परमाणु पावर प्लांट की स्थापना की थी। जब से अदालत ने यह बात कही है लोगों में एक प्रतिक्रिया की लहर दौड़ गई है और वह अब भी विरोध कर रहे हैं। फैसले में यह भी कहा गया है कि लोगों के हितों का ध्यान रखा गया है जब संविधान का निर्माण किया गया है। क्या इस आधार पर यह सुझाया जा सकता है कि परमाणु ऊर्जा भारत के लिए लाभ का सौदा है?

यह निर्णय भारत में निसंदेह परमाणु रिक्टर की स्थापना और परमाणु ऊर्जा का समर्थन करता हैः

  • फैसले में एटॉमिक एनर्जी कमीशन (एईसी) की प्रशंसा की गई है और परमाणु के बारे में इसे पूरी तरह निर्णय लेने वला माना है और एटॉमिक एनर्जी रेग्युलेटरी बोर्ड (एईआरबी) को कंपीटेंट रेगुलेटर माना है जो एईसी पर फंड और मानव संसाधन के लिए लिर्भर करता है। और इसे एईसी को रिपोर्ट करने का कार्य को सराहा है जिसके क्रियाकलापों को पूरा करना अनिवार्य है।
  • यह निर्णय परमाणु ऊर्जा पर राष्ट्रीय नीति के प्रति भी पूरी तरह विश्वास व्यक्त करता है कि देश में मौजूदा ढ़ांचा हर प्रकार के रेडिएशन को रोकने में सक्षम है।
  • शिर्षक ‘राष्ट्रीय नीति’ (पेज-9) के तहत निर्णय में कहा गया है कि भारत में 20 परमाणु ऊर्जा स्टेशनों से पिछले चार दशकों से  4780 मेगावाट बिजली का उत्पादन रोजाना किया जा रहा है और इस दौरान कोई बड़ा हादसा देखने में नही आया है। निस्संदेह परमाणु उर्जा ने इस दौरान बड़ा रोल निभाया है इसी शिर्षक से पेज-10 पर कहा गया है कि रिन्युबल ऊर्जा स्रोतों के द्वारा बहुत छोटा सा हिस्सा ही ऊर्जा का पूरा किया गया है जो कुल बिजली उत्दान का मात्र 15 प्रतिशत है। जो वास्तव में परमाणु ऊर्जा का 6 गुना है।
  • परमाणु उर्जा के विश्व परिदृष्य में फुकुशिमा में अचानक हुए परमाणु हादसे का जिक्र नहीं किया गया है। परमाणु ऊर्जा उत्पादन में फ्रांस का उत्पादन-74.6 प्रतिशत, अमेरिका के 104 रिएक्टर हैं जबकि विश्व में कुल 439 वर्ष 2007 तक थे जिनसे कुल ऊर्जा का 13-14 प्रतिशत पैदा होता था। सच्चाई यह है कि वर्ष 2011 तक उत्पादन घटकर 11 प्रतिशत रह गया और यह गिरावट लगातार जारी है। अधिकतर रिएक्टर अपने अंत की ओर हैं और बहुत ही कम नए रिएक्टरों का निर्माण किया जा रहा है।
  • इसके बावजूद एनपीसीआईएल के इस दावे को लेकर कोई सवाल नहीं किए गए जिसमें  वर्ष 2020 तक 20 हजार मेगावाट और वर्ष 2030 तक 63 हजार मेगावाट बिजली के उत्पादन का दावा किया गया है।
  • फैसले में कहा गया कि परमाणु ऊर्जा का समर्थन करने का एक कारण यह है कि यह ऊर्जा का वैकल्पिक रूप है और स्वच्छ ,सुरक्षित, टिकाउ और मजबूत ऊर्जा का स्रोत है। इसके द्वारा कोल, गैस, तेल आदि ऊर्जा स्रोतों को बदला जा सकता है। जजों को इसकी कोई परवाह नहीं कि जो बाते परमाणु ऊर्जा के बारे में कही जा रही हैं वह सभी सवालों के घेरे में हैं जिनपर राष्ट्रीय नीति में विचार करने की जरूरत है। फ्रांस की बात करें तो वहां भी राष्ट्रीय ऊर्जा नीति को लेकर एक नए कानून पर विचार किया जा रहा है।
याचिका में सवाल किया गया था कुडनकुलम में रिएक्टर को लेकर तकनीकि समस्याएं हैं, इस पर अदालत ने सरकारी विशेषज्ञों- न्युक्लिीयर पावर कारपोरेशन ऑफ इंडिया लिमिटेड औैर एटॉमिक एनर्जी रेग्युलेटरी बोर्ड के अधिकारियों से पूछताछ की। दुर्भाग्य से भारत में परमाणु ऊर्जा के विषय में स्वतंत्र संस्थागत विशेषज्ञता डिपार्टमेंट ऑफ एटॉमिक एनर्जी में नहीं हैं। इस स्थिति में जजों के पास कोई विकल्प नहीं था कि वे उन्ही अधिकारियों पर भरोसा करे जो याचिका में बताए गए खतरे का विरोध कर रहे थे उनकी बात को स्वीकार करे। इस तरह यह पूरी प्रक्रिया ही पहली ही नजर में एक तरफा दिखाई देती है। जजों के पास अब भी मौका है कि नियमों के उल्लंघनों और खतरों को कुडनकुलम रिएक्टर से जोड़कर फिर से देखे ।

जिओ पोडोल्सक द्वारा घटिया क्वालिटी के उपकरणों की सप्लाई किया जाना बहुत गंभीर मामला है, कोस्टल रेगुलेटरी जोन का उल्लंघन और पर्यावरणीय प्रभावों के नियम, फ्यूल स्टोरेज को लेकर नियमों का स्पष्ट न होना, एईआरबी द्वारा नियमों का पूर्ण पालन न कर बिना मॉक ड्रिल के नो कंपलेन का प्रमाण प़त्र देना, आस पास में निवास करने वाली बड़ी आबादी के साथ आवश्यक समझौते आदि।  क्या इसे इस रूप में न्यायोचित ठहराया जा सकता है ?

अदालत एक राजनीतिक समझौते को मान्यता दे रही है?

अदालत के फैसले में कहा गया है कि भारत द्वारा अमेरिका से 2005 में और फ्रांस से 2008 में और 2010 में किए गए सिविल परमाणु समझौते भारत सरकार के प्रयासों का नतीजा है जो उसने ‘विकास के लिए राष्ट्रीय नीति’ के तहत अनेक द्विवपक्षीय संधियों और समझौतों के तहत किए हैं और जो अनुभवों और विशेषज्ञता को ध्यान में रखते हुए किए गए हैं। यह एक खुला हुआ तथ्य है कि परमाणु समझौते के लिए अमेरिका द्वारा पहल की गई थी और ऊर्जा की आवश्यकता को बाद में कुचक्र के द्वारा न्यायोचित ठहराने का प्रयास किया गया। द इंटीग्रेटेड एनर्जी पॉलिसी-2006 भी अमेरिका के साथ हुए परमाणु समझौते के एक वर्ष के बाद आई। भारत में परमाणु रिएक्टर की स्थापना की खबर जब 2005 में आई कि अमेरिका के साथ मिलकर यह रिएक्टर लगाया जा रहा है तो यह हैरान करने वाली थी। यह डील आवश्यक बन गई थी यूएस मैनोइयुरिंग इंटरनेयशनल इंस्टीट्यूशन नियमों के दबाव के चालेते और एनएसजी और आईएईए द्वारा भारतीय परमाणु हथियारों को वैद्यता दिलाने और भारत का प्रवेश ग्लोबल अंतर्राष्ट्रीय कामर्स में सुनिष्चित करने के लिए। भारत पर अमेरिका, फ्रांस और रूस की ओर से यह दबाव लगातार बनाया जा रहा था कि भारत में परमाणु रिएक्टर ही उसके लिए एक विकल्प है। पूर्व एईसी चेयरमैन अनिल कोकाडकर ने स्वयं यह स्वीकार किया था कि परमाणु रिएक्टरों का आयात जिम्मेदारी पर सवाल उठाता है, परमाणु रिएक्टर की स्थापना इन देषों के हित में है।

परमाणु ऊर्जा और राष्ट्रीय नीति

भारत की परमाणु उर्जा पर राष्ट्रीय नीति की विस्तार से प्रशंसा करने के बाद जजों ने कहा कि अदालत यह नहीं सोचती कि नीति को हूबहू स्वीकार किया जाए या किसी नीति को मान्यता देने के लिए निर्णय दिया जाए, यह ठीक है (पेज-13)। ठीक-ठीक, अदालत के सामने याचिका चीखकर कह रही थी कि उचित विचार विमर्श की जरूरत है या परमाणु नीति की जरूरतों को पूरा करने की जरूरत है यदि पूरा देश एक है। याचिका में सुरक्षा मानकों और नियमों की अनदेखी का मामला उठाया गया है। इसके बावजूद भी जजों ने क्यों परमाणु ऊर्जा को ग्रीन, साफ सुथरी और भारत के विकास के  लिए जरूरी करार दिया? जजों ने लंदन के एक पुराने केस को कोट करते हुए कहा कि हम यहां फैसले पर फैसला करने के लिए नहीं बैठ सकते ….इंडो रूसी समझौते की रौशनी में जो कुडनकुलम परमाणु रिएक्टश्र के लिए किया गया।

यह मान लेंते है, लेकिन क्या भारत सरकार और रूसी सरकार के बीच हुआ समझौता सुनिश्चत करता है कि पूरी तरह नियमों का पालन करते हुए जिम्मेदारी निभार्इ जाएगी और भूमि – कानून को लेकर कोई आपत्ति नहीं होगी।


सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय का प्रारंभिक भाग में दो हिस्से हैं। पहला एनपीपी की सुरक्षा और बचाव, अंतर्राष्ट्रीय समझौतों और संधियों, केकेएनपीपी प्रोजेक्ट, एनएसएफ और इसके प्रबंधन और परिवहन, डीजीआर, सिविल जिम्मेदारियों, डीएमए, सीएसए और अन्य इससे जुड़े मामलों की बात करता है। जबकि दूसरे हिस्से में पर्यावरणीय समस्याएं, सीआरजी, वनों की कटाई, ईको सिस्टम पर रेडिएशन के प्रभाव, विशेषज्ञों की राय आदि पर बात करता है।

पहले हिस्से में इस निर्णय में इस बात पर जोर दिया गया है कि प्रोजेक्ट में पर्याप्त सुरक्षा मानकों को अपनाया गया है। इसलिए एईआरबी के सुरक्षा कोड्स का विस्तार से वर्णन किया गया है।(पूरे 12 पेज में )। इसकी संस्थानिक स्वायत्ता पर कोई सवाल किए बगैर या एईआरबी पर कैग् की रिपोर्ट का हवाला देते हुए इस मिथ को तोड़ने का प्रयास किया गया है जिसमें इसकी स्वतंत्रता और क्षमता को लेकर सवाल उठाए गए थे। भारत की  अंतर्राष्ट्रीय  बाध्यताओं और आईएईए के सुरक्षा नियमों के पालन के विस्तार को लेकर कई पेज में दिए गए है। आईएईए की 2008 की रिपोर्ट में जोर देकर कहा गया है कि वर्ष 2050 तक बिजली की आपूर्ति तीन गुना बढ़ जाएगी,  इस बात को जजों ने खास तौर पर जोर दिया है। आईएईए द्वारा यह भी दावा किया गया है कि परमाणु ऊर्जा को अपनाना निस्संदेह एक लो कार्बन उर्जा को अपनाना है।

निर्णय में इस परियोजना के प्रति विष्वास जताया गया है ‘‘ एईआरबी द्वारा अपनाए गए सुरक्षा और बचाव के कोड और आईएईए और इसका समर्थन उस डर को कम करता है जो कई सैक्टरों के द्वारा सुरक्षा और बचाव को लेकर केकेएनपीपी पर सवाल किए जा रहे थे’’


जजों ने यह भी इंगित किया है कि पीयूसीएल बनाम भारत सरकार और अन्य मामले 2004 में कोर्ट एईसी डील के संवेदनषील होने को स्वीकार करता है। इस डील पर गोपनीयता का परदा पड़ा हुआ है जबकि सिविलियन और सैनिक परमाणु सुविधाएं दोनों अपने आप में अलग हैं और इस बात को  भारत- अमेरिका समझौते में भी दर्षाया गया है।

सुरक्षा के मुद्दे

कुडनकुलम पर सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय को पढ़ने के बाद सुरक्षा का मुद्दा एईआरबी या एनपीसीआईएल द्वारा अपनाई गई सुरक्षा नीति से अलग नहीं है। सुरक्षा मानकों को अपनाए जाने के दावों को लेकर विस्तार से वर्णन किया गया है, लेकिन बहुत ही कम यह दिशानिर्देष पर्याप्त रूप सुरक्षा को लेकर आंदोलनों द्वारा उठाए जा रहे सवालों के जवाब दे पाने में सक्षम है । इसके बावजूद यह एक जनतांत्रिक प्रकिया के तहत है।


दूसरे भाग में ‘‘ केकेएनपीपी प्रेाजेक्ट’’ शिर्षक के तहत जजों ने कुडनकुलम में साइट सलेक्षन प्रक्रिया को लिया है और यह दखने का प्रयास किया है कि यह प्रोजेक्ट कितना कमजोर है। जज इस बात पर पूरी तरह सहमत हैं कि कुडनकुलम प्रोजेक्ट रिएक्टर लगाने के लिए पूरी तरह सुरक्षित है। जजों ने माना कि यहा किसी भूकंप, सुनामी या अन्य प्राकृतिक आपदाओं का डर नहीं है। जबकि याचिका में इस बात के सबूत पेश किए गए थे कि यह क्षेत्र जियोलॉजिकली अस्थिर है और यहां भूकंप का एक इतिहास रहा है और ज्वालामुखी और कार्स्ट के कारण यहां खतरा बना रहता है।

सबसे अधिक ध्यान स्पैन्ट न्यूक्लीयर फ्यूल (एसएनएफ) के सुरक्षित भंडारन और एक डीप जियोलॉजिकल रिपोजिटेरी (डीजीआर) की कुडनकुलम क्षेत्र में तलाश के काम पर दिए जाने की है। यह सामान्य समस्याएं हैं जो पूरे विश्व में जहां कहीं भी परमाणु रिएक्टर लगे हैं सामने आती हैं और परमाणु उद्योग अनेक दशकों से इस समस्या का समाधान खोजने के लिए संघर्ष करता रहा है। इसमें हैरान होने की जरूरत नहीं है इसका प्रोगात्मक और रेडीमेट समाधान प्रस्तुत किया गया है। एनपीसीआईएल परमाणु कचरे के संचयन के लिए रिपोजेटरी तलाषने के लिए तैयार है, जिसमें वह लंबे समय तक परमाणु कचरे का संचयन कर सकेगा और यही भरोसा उसने कोर्ट को भी दिलाया है जिससे कोर्ट सहमत भी है। द एईआरबी के कोड ‘ मैनेजमेंट ऑफ रेडियोएक्टिव वेस्ट’ पर लंबी चर्चा की गई है इसकी राह में अनेक समस्याएं हैं। भारतीय परमाणु स्थापनाओं में परमाणु कचरे को कचरे के रूप में नहीं पहचाना गया है क्योंकि यह दावा किया गया है कि इसको रिप्रोसेस कर इसको उपयोग मे लिया जा सकेगा इस पर भी जजों ने संतोष जताया है। जबकि वास्तविकता यह है कि रिप्रोसेसिंग का कार्य और भी नुकसानदायक है और लंबे समय के लिए कचरा पैदा होता है  यदि यह कहा जाए कि भारतीय परमाणु कार्यक्रम वास्तविकता से बहुत दूर है तो गलत न होगा। जजों ने कहा है कि ‘‘ विषेषज्ञों का मानना है कि डीजीआर की स्थापना कोई तकनीकि चुनौति नहीं है….लेकिन यह सामाजिक-राजनीतिक समस्या अधिक है’’। सबसे अधिक प्रतावित वेस्ट रिपोजेटरीज अमेरिका में हैं जहां इन्हें स्वीकृति नहीं मिली है और जहां कहीं भी विषेषज्ञ स्वतंत्र हैं वहीं इसको स्वीकृति नहीं मिल सकी। अदालत के निर्णय में कहा गया है कि कर्नाटक के कोलार माइन के बंजर भूभाग पर एक डीजीआर प्रस्तावित है। वास्तव में जहां इस मामले को लेकर अनेक महत्त्वपूर्ण मुद्दे हैं वहीं एनपीसीआईएल प्रचार के काम में लगी है और अदालत में शपथ पत्र दिया है अपने ही मुकदमें में जो 6 महीने से चल रहा है।


जजों का मानना है कि कुडनकुलम रिएक्टर अपने कचरे का संचयन कर सकता है जिसकी क्षमता सात साल तक की है। एसईपी की मौजूदगी से रिएक्टर में जटिलाएं पैदा हो सकती हैं और दुर्घटना भी घट सकती है जैसे जापान के फुकुषिमा में हुआ था और इस घटना को मेंषन नहीं किया गया है।

फुकूशिमा कभी नहीं होगा!

जबकि जजों ने फुकूशिमा की घटना के बाद सुरक्षा जांच की बात कही जो प्रधान मंत्री के आदेश पर की गई तो इस बारे में तो वे पूरी प्रक्रिया की आलोचना करने में असमर्थ रहे आंतरिक सुरक्षा को लेकर जोखिम उठाया गया और बिना किसी स्वतंत्र जांच या मूल्यांकन के इसे किया गया। कुडनकुलम पर 17 सिफारिशों पर कोर्ट को भरोसा है कि इन्हें एईआरबी और एनपीसीआईएल पूरी तरह से लागू कर लेगें। निर्णय के इस पैरा में रेडिएशन की लोरी में तुक से तुक मिलाने का काम किया गया हैः कि हम अपने रोजाना के जीवन में रेडिएशन से रूबरू होते रहते हैं जैसे-कॉस्मिक रेडिएशन, अर्थ क्रस्ट का रेडिएशन, वायु में यात्रा, एक्स-रे, सीटी स्केन,एंजियोग्राफी, एंजियोप्लास्टी आदि।

दूसरे शिर्षक ‘रेस्पोन्स टू प्युपल्स रजिस्टेंस’ कोर्ट ने समझदारी भरा सरकारी वक्तव्य दिया है लोगों से बात किए जाने का। इस तथ्य को शामिल नहीं किया गया है कि सरकार द्वारा नियुक्त 15 सदस्यों की समिति ने इदिनताकारी में आंदोलन कर रहे लोगों से मिलने की भी जरूरत नहीं समझी और उनके साथ सुरक्षा दस्तावेजों को साझा करने से इंकार कर दिया और आंदोलन द्वारा उठाए गए सवालों का जबाव दे पाने मे नाकाम साबित हुए। इससे बाद भी लोगों से बातचीत की बात कितनी शर्मनाक है। राज्य सरकार ने आंदोनकारियों पर झूठे पुलिस केस लगा रखे हैं स्थानीय कांग्रेस के गुंडे आंदोलकारियों को मारते पीटते हैं लोकल मीडिया की भूमिका भी संदेह के घेरे में है। किसी को भी स्थानीय लोगों के संषर्घ की परवाह नहीं है। अदालत के फैसले में कहा गया है कि सरकारी विषेषज्ञ दल के निष्कर्ष संतोषजन हैं। इस तथ्य के बारे में कोई संज्ञान नहीं लिया गया कि पूर्व एईसी चीफ जिसे राज्य सरकार द्वारा विषेषज्ञ समिति का अध्यक्ष नियुक्त किया गया था के कारण लगातार विवाद पैदा होते रहे।


‘सिविल लाइबिलिअी फॉर न्यूक्लीयर डेमेज’ नाम के ष्षीर्षक में कहा गया है कि परमाणु सैक्टर में कड़ी जिम्मेदारी खास है लेकिन  कुडनकुलम की खास समस्या पर जिम्मेदारी के मामले पर कुछ नहीं कहा गया। रूसी अधिकारियों द्वारा दावा किया गया है कि वे इंटर गवर्नमेंट एग्रीमेंट के तहत किसी भी जिम्मेदारी से मुक्त हैं।

आपदा प्रबंधन योजना पर विचार करते हुए  अदालन के निर्णय में नेशनल डिजास्टर मैनेजमेंट अथॅारिटी के दिशानिर्देषों का वर्णन किया गया है। जिसमें आपदा की स्थिति में रेडियोलॉजिकल एमरजेंसी और एनडीएमए व डीएई के बीच बेहतर तालमेल से काम करने की बात कही गई है। सबसे अधिक जोर जिस बात पर दिया गया है वह है परमाणु दुर्घटना के प्रति लोगों को जागरूक करना। इसके बावजूद  नियमों की अनदेखी की जा रही है और आपदा प्रबंधन की जांच को लेकर कोई ध्यन नहीं दिया जा रहा है।

यद्पि सवोच्च न्यायालय द्वारा  एईआरबी के नियमों का संदर्भ दिया गया है जिसके तहत रिएक्टर से 1.5 किमी के दायरे में कोई आबादी या आवास नहीं होना चाहिए। जबकि कुडनकुलम में सुनामी कालोनी के बारे में यह नियम लागू नहीं होता जो रिएक्ट के स्थान से मात्र 700 मीटर की दूरी पर बसी हुई है और इसमें करीब 2500 लोग रह रहे हैं। निर्णय में यह भी कहा गया है कि  ईपीपी के तहत रिएक्टर के पांच किमी के दायरे में 24000 से अधिक लोग नहीं रहने चाहिए और इसे ‘स्टेरेलाइस्ड जोन कहा जाए। जबकि नियम के अनुसार 20000 से अधिक लोग नहीं रहने चाहिए। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा यह आंकड़ा वर्ष 2001 की जनगणना के आधार पर लिया है न कि 2011 की जनगणना के आधार पर ।

अदालत ने यह भी माना कि माक ड्रिल का अभ्यास समय समय पर किया जाना चाहिए ताकि आपात स्थिति से निपटने का अभ्यास हो सके लेकिन हैरत है कि मॉक ड्रिल लोगों को षिक्षित करने के लिए किए गए न कि उन्हे अपना बचाव करना सिखाने के लिए । लोगों को बताया गया कि प्रोजेक्ट नेषनल पॉलिसी का हिस्सा है, जिसकी प्रकृति सहभागी है और हम परमाणु देशों से कटकर नहीं रह सकते हैं’ यह सब जनता का समर्थन रिएक्टर को स्थापित करने के लिए किया गया। अदालत को भरोसा है कि जिला प्रषासन द्वारा ऑफ साइट आपात अभ्यास का जो शपथ पत्र दिया गया है वह सच्चाई के करीब है।

अदालत के फैसले के पहले हिस्से के अंतिम पैरा में जजों द्वारा कहा गया है कि अदालत को भरोसा है कि एनपीसीआईएल अपने कारपोरेट सोशल रेस्पॉन्सबिलिटी-सीएसआर को निभाएगी। कई मिलियन रुपये स्कूल की इमारतों, अस्पतालों, सड़कों और अन्य पर खर्च के लिए जारी किए जा चुके हैं। तारापुर से रावतभाटा और इसके पास के कलपक्कम के स्थानीय लोग इस तरह के वादों की हकीकत को खूब देख चुके हैं।

अदालती फैसले का दूसरा हिस्सा पर्यावरणीय प्रभावों पर केंद्रित है, इसमें कहा गया है कि परमाणु ऊर्जा को लेकर नेशनल पॉलिसी में पर्यावरणीय मुद्दों पर ध्यान देने की जरूरत है यह भी कहा गया है कि परमाणु ऊर्जा भारत के आर्थिक विकास में खास स्थान रखती है, यह ऊर्जा का ऐसा स्रोत है जिससे देश के आर्थिक विकास को गति मिलेगी।

निर्णय के इस हिस्से में दोनों पक्षों द्वारा की गई बहस को विस्तार पूर्वक स्थान दिया गया है। लेकिन सरकार के पक्ष से ही अदालत ने सहमति जताई है जिसमें कहा गया है कि कुडनकुलम प्रोजेक्ट में किसी प्रकार के पर्यावरणीय इंपेक्ट एसेसमेंट गाइडलाइन का उल्लंघन नहीं किया गया है प्रोजेक्ट 1988 में नोटिफाई किया गया था। और 1994 में ईआईए की मांग पर इसका अधिनियमन किया गया। सर्वोच्च न्यायालय को एनपीसीआईएल द्वारा दिया गया बेमानी शपथ पत्र और एमओईएफ अधिक उचित प्रतीत हुआ। अदालत ने इस बात की भी चर्चा फैसले में की है कि कुडनकुलम में पर्यावरणीय प्रभावों पर प्रभावी कदम उठाए गए हैं, इस संदर्भ में प्रधानमंत्री द्वारा लिखे गए पत्र का हवाला दिया गया है, 1989 के एमओईएफ के मेमोरेंडम,  मंजूरी के लिए एईआरबी द्वारा 1989 में आवष्यक शर्त के साथ अनुबंध, और 6 सितंबर 2001 का एमओईएफ का पत्र जो नियमों के उल्लंघन को न्यायिक ठहराता है जिसके तहत 377.30 करोड़ प्रोजेक्ट पर पहले ही खर्च किए जा चुके हैं। अदालत ने माना कि पर्यावरणीय प्रभावों पर पूरा ध्यान दिया गया है और नियमों का उल्लंघन नहीं हुआ है नही ईआईए के अनुबंधों की अनदेखी की गई है। ईआईए रिपोर्ट में कुडनकुलम में चार और रिएक्टर लगाए जाने की सिफारिश की गई है। इसमें कहा गया है कि एक और दो बेस लाईन पर बिना किसी जनसुनवाई के तैयार किए जा सकते हैं। सर्वोच्च न्यायालय को यह आपत्ति के योग्य नहीं लगा।

दो करीबी बांधों से रिएक्टर के लिए पानी लाए जाने की योजना को विकसित किया जा रहा है। साल 2006 में कुडनकुलम में डिसेलिनेशन (विलवणीकरण) प्लांट शूरू किया गया था । याचिका में यह प्रष्न उठाया गया था कि डिसेलिनेशन (विलवणीकरण) प्लांट के अपने पर्यावरणीय खतरे हैं, इससे प्रदूषण और बढ़ेगा इसके लिए ईआईए से नए सिरे से स्वीकृति ली जानी चाहिए। इस पर अदालत ने अपने फैसने में कहा है कि डिसेलिनेषन (विलवणीकरण) प्लांट ईआईए के 1994 के अनुबंधों के आधार पर सूची में शामिल नहीं है लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि यह नियमों का उल्लंघन है। इसके लिए अलग से ईआईए द्वारा पर्यावरणीय मूल्यांकल किए जाने की जरूरत नहीं है।


इसी प्रकार सावोच्च न्यायालय ने याचिका में उठाई गई आपत्तियों जो सीआरजेड मंजूरी और टीएनपीसीबी द्वारा बाद में दी गई वैधता जो कुडनकुलम के पनी में बढ़ रहे तापमान से संबंधित थी पर भी कोई ध्यान नहीं दिया। निर्णय के ‘सस्टेनेबल डेवलपमेंट एंड इंपेक्ट ऑन द इको सिस्टम’ शीर्षक में रोले कमीशन ऑन एनवायरमेंट पॉलूशन (यूके-1971), स्टॉकहोम कॉनफ्रेंस (1972),यूएनजीए वर्ल्ड चार्टर ऑफ नेचर (1982), रिजो सम्मिट (1992),द यूएन मिलेनियम डिक्लेरेषन ऑफ 2000, यूएन कानफ्रेंस ऑन सस्टेनेबिलि डेवलेपमेंट (जून 2012) और अन्यों को कोट किया गया है। लेकिन केवल यह निषकर्ष निकालने के लिए कि ‘‘ इस तरह हम यह पाते हैं कि केकेएनपीपी की स्थाना को लेकर पर्याप्त तथ्य मौजूद हैं इस प्रकार के प्रोजेक्ट को सस्टेनेबल विकास की कसौटी पर कसा जा चुका है। पर्यावरण और इकोतंत्र पर पड़ने वाले सभी प्रभावों का अध्ययन किया जा चुका है और इसके जिए सभी राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय मानकों और सिद्वांतों का पालन किया जा रहा है।

व्यापक जनहित

जजों ने अपने फैसले में कहा है कि ‘‘ आसपास रहने वाले लोगों के साथ बहुत थोड़ी ज्यादती हुई है बहुत थेाड़े से नियमों का उल्लंघन हुआ है। संविधान के आर्टिकल-21 द्वारा उन्हें जीने का अधिकार मिला हुआ है। लेकिन लोगों को ऊर्जा के उत्पादन को वर्यीता देना चाहिए  जो देश के आर्थिक विकास के लिए बहुत जरूरी है। इससें गरीबी दूर करने में मदद मिलेगी और रोजगार आदि के अवसर मुहैया होंगे। अपने फैसले में अदालत ने इससे पूर्व के कई अन्य विकास प्रोजेक्ट का उदाहरण दिया जिनको लेकर विरोध हुआ था और इस बात पर जोर दिया कि पर्यावरण और जीवन के अधिकार के आधार पर और आर्थिक वैज्ञानिक लाभ और बहुत कम हानिकार रेडिएशन के आधार पर तुलना करने पर इस प्रोजेक्ट के सही मकसद तक पहुंचा जा सकता है। विकास की पूर्वनिर्धारित धारणा अदालत का सख्त होना और वस्तुनिष्ठ होना और जल्दबाजी में अदालत  व्याकरण की के आधार पर एक विवेकहीन कथन दे डाला-‘‘ समुदाय के व्यापक हित के लिए मानव अधिकार के उल्लंघन की व्यक्तिगत आषंका को रास्ता देना चाहिए। जबकि संविधान के आर्टिकल-21 के तहत जीने का अधिकार प्राप्त है।’’ हम जजों की व्याकरणीय गलती को नजरअंदाज भी कर दे तो भी यह सवाल अपनी जगह रह जाता है कि उन लोगों का क्या जो कुडनकुलम में पिछले 25 सालों से ष्षांतिपूर्वक विरोध जताते आ रहे हैं व्यक्तिगत आषंका के रूप में ? कौन बड़ा समुदाय है? क्या किसानों के हित, मछुआरों के हित और भारत के गरीबों के हित व्यापक जनहित में शामिल नहीं हैं?


इससे भी आगे जाते हुए जजों ने कहा कि रेडिएषन के खतरे की जो आषंका जताइ जा रही है वह निराधार है। उन्होंने अपने फैसले में कहा  कि इस संसार में कोई भी आदमी यह नहीं बता सकता कि भविष्य में क्या होने वाला है। एक बड़े क्षेत्र में हम लोग भाग्य के सहारे हैं ….

किसी बात की आशंका के पूर्वाभास से चिंतित होना या डरना, एक डर के पूर्वाभाष से प्रभावित होना भी हर व्यक्ति के लिए अलग बात है। अदालत ने विषेषज्ञों की राय का हवला देते हुए कहा कि एमओईएफ, ईएसी, टीएनपीसीबी, आईओएम, आईईएल, एनईईआरआई आदि सभी की रिपोर्ट प्रोजेक्ट के पक्ष में है। और यह सभी संगठन इस बात पर एक मत हैं कि कुडनकुलम प्रोजेक्ट सुरक्षा मानकों को लेकर पूरी तरह से संतोशजनक हैं।
जस्टिस दीपक मिश्रा ने अपनी प्रस्तावना में जोर दिया है कि जीवन के भय को कम करने और सभी आषंकाओं को दूर करने के लिए आगे बढ़कर एक वैज्ञानिक सोच पैदा करनी होगी प्रकृति के अनिष्चितता के बारे में समझना होगा और योग्तम की उत्तर जीविता के सिद्वांत को समझना होगा। उन्होंने आगे इस बात का जिक्र किया है कि किस प्रकार डीएई के सुरक्षा निर्देषों का पालन किया गया है और हर संभव कदम उठाए गए हैं जिससे भविष्य में कोई दुर्घटना न हो सके। उन्होंने आईएईए के 1994 के परमाणु सुरक्षा पर कनवेंशन और स्पैंट फ्यूल के प्रबंधन की सुरक्षा पर संयुक्त कनवेंशन और रेडिएशन से सुरक्षा प्रबंणन पर कनवेंशन-1997 को कोट किया जिसमें केवल भारत में ही नहीं विष्व स्तर पर जनता की सुरक्षा को लेकर चर्चा की गई। उन्होंने फुकूशिमा की घटना के बाद कुडनकुलम में सुरक्षा मानकों की जांच जो एईआरबी द्वारा गई का भी उल्लेख किया। इसके बावजूद भी परमाणु स्थापना के प्रति पूर्ण विश्वास व्यक्त करने के बाद भी पर्याप्त सिफारिषों और अदालती आष्वासन की जरूरत महसूस हुई।


जस्टिस मिश्रा ने सुरक्षा और परमाणु उर्जा विकास को आनुपतिक रूप् में आमने सामने रखकर देखा है। जबकि सुरक्षा की जरूरत को वर्तमान और भविष्य के लिए जरूरी माना गया है। उन्होंने यह भी कहा है कि एक आधुनिक राज्य के निर्माण के लिए परमाणु उर्जा की जरूरत है। परमाणु उर्जा को बढ़ावा देने और पर्यावरण की सुरक्षा को एक साथ लाना होगा। जस्टिस मिश्रा ने नर्मदा केस का उल्लेख करते हुए कहा कि एक प्रजातांत्रिक देष में लोक कल्याण को बड़ा माना जाता है। और केवल समाज के एक छोटे से वर्ग की वजह से सरकार अपनी जिम्मेदारी को छोड़ नहीं सकती है।

अपने अंतिम निर्देष में अदालत ने एनपीसीआईएल से कहा है कि सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष रिपोर्ट पेश करे जिसमें  फाइनल कमिशनिंग, पर्यावरणीय प्रभाव सहित सभी सुरक्षा के उपायों  और पहलुओं की जानकारी, सुरक्षा के लिए उठाए गए कदमों की जानकारी ष्षामिल हो। समय-समय पर की जाने वाली सुरक्षा जांच  रखरखाव , परमाणु कचरे के निपटान से संबंधि कार्य और फुकूषिमा की घटना के बाद जारी दिषानिर्देषों का पालन और एनडीएमए के दिशा निर्देशों का पालन, अदालत ने एनपीसीआईएल, एईआरबी,एमओईएफ,टीएनपीसीबी और अन्य संबंधित निकायों को निर्देष भी दिए हैं लेकिन उनकी क्षमता और ईमानदारी पर पूरा भरोसा भी जताया है। सर्वोच्च न्यायालय ने एक गहरे जियोलॉजिकल रिपोजिटेरी की तुरंत स्थापना के आदेष भी दिए हैं और कहा है कि इसकी स्थापना जल्दी होनी चाहिए ताकि एसएनफ को परमाणु प्लांट से डीजीआर भेजा जा सके।

आंदोलकारियों के खिलाफ आपराधिक मामले वापस लिए

सवोच्च न्यायालय ने कुडनकुलम में आंदोलकारियों पर लगाए गए आराधिक मामलों को वापस लिए जाने के निर्देष दिए है ताकि स्थिति को सामान्य बनाया जा सके और शांति कायम की जा सके।

इस परिदृष्य में, अपने अधिकारों के संघर्ष कर रहे  भारत के लोगों का इस तरह के मामलों में सर्वोच्च न्यायालय से गुहार लगाना निर्थक है। और यह कहा जा सकता है कि अदालत खुद भी इसी सिस्टम का हिस्स है जो आकांशओं और वंचित जन समुदाय और ‘ व्यापक जनहित’ की मुख्य अवधारणा के बीच बढ़ती खाई को पाटने में पूरी तरह नाकाम रही है। इस प्रकार के मामलों में न्यायालय के समक्ष याचना करने से कोई लाभ नहीं होने वाला है और लोगों को विकाश की विनाशक अवधारणा जो विकसित हो रही के खिलाफ लड़ाई लड़नी होगी।

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