संघर्ष संवाद
Sangharsh Samvad

नर्मदा: पुनर्वास में भ्रष्टाचार

नर्मदा नदी पर निर्माणाधीन सरदार सरोवर और इंदिरा सागर बांध मे विस्थापितों के पुनर्वास के नाम पर हो रहे भ्रष्टाचार को नर्मदा बचाओ आंदोलन ने पुरजोर संघर्ष से उजागर किया है । बांध के नाम पर अपना जीवन दांव पर लगाने वाले गरीब किसानों, दलित आदिवासी अपने हक के लिए न्यायमूर्ति झा के समक्ष नौकरशाहों, दलालों की मिलीभगत से हो रहे भ्रष्टाचार की पोल खोल रहे हैं । इन्हीं पुनर्वास के नाम पर हो रहे धांधलियों की हकीकत को बयान करता  मेधा पाटकर का यह आलेख;

नर्मदा पर निर्माणाधीन 30 बड़े बांधों की श्रृंखला में  अनेक बांधों पर विस्थापितों का आंदोलन हर मुद्दे को उजागर करता जा रहा है। लेकिन सरदार सरोवर, जहां से सबसे पहले लड़ाई शुरु हुई, वह आज भी 122 मीटर पर रुका हुआ है। क्यों? नर्मदा बचाओ आंदेालन ने जैसे इस बांध को लेकर, लोक विरोधी, असंवैधानिक निर्णय प्रक्रिया, पर्यावरणीय मंजूरी की खोखली नींव, पुनर्वास के झूठे दावे, नियोजन का अभाव, पुनर्वास के लिए जरुरी जमीन उपलब्ध कराये बिना कानूनी उल्लंघन आदि कई सारे मुद्दों के साथ बांध के लाभ -हानि की सच्चाई और गुजरात -राजस्थान को पानी या महाराष्ट्र-मध्यप्रदेश को बिजली के अतिश्योक्ति वाले दावे का भी पर्दाफाश किया है। विश्व बैंक से कुछ कर्जा लेकर आगे धकेली हुई परियोजना से विश्व बैंक जैसे साहूकार ने भी हाथ वापस खींच लिए।

पर्यावरणीय तथा पुनर्वास में न केवल नर्मदा जल विवाद न्यायाधिकरण का फैसला, बल्कि महाराष्ट्र,   मध्यप्रदेश और गुजरात  की जाहिर ‘उदार’ नीति तथा सर्वोच्च अदालत के ही चार फैसलों का पूरा पालन न होते हुए, हर छोटी-मोटी कार्य की निगरानी और आंदोलन की हर मोर्चे पर आज भी लड़ाई जारी है । इस बांध से डूब और विनाश और पानी को कंपनियां व शहरों की ओर मोड़ने की साजिशें थोपी हुई है। सरदार सरोवर के डूब क्षेत्र में आज तक करीब 45000 से अधिक परिवार बसे हुए हैं। कानूनी और मैदानी संघर्ष, अहिंसक किन्तु विशेष नाजुक संघर्ष को अपनाकर, अपना हक मांगते, डटकर।
पिछले 27 सालों की इस गाथा से उठे ‘विकास’ के सवाल लोकतांत्रिक विकास नियोजन और न्यायपूर्ण, निरंतर विकास की मांग सुपरिचित है। लेकिन सबसे महत्वपूर्ण और बुनियादी मुद्दे पर चल रहा संघर्ष पुनर्वास में भ्रष्टाचार के खिलाफ है।
मध्यप्रदेश उच्च न्यायालय के आदेश से  न्यायालयीन जांच आयोग न्याय. श्रवण शंकर झा की अध्यक्षता में गठित किया गया , जो पुनर्वास के हर कार्य में हुई अनियमितताएं एवं भ्रष्टाचार की जांच कर रहा है। जांच पांच कार्यों पर केंद्रित है। ये हैं –
  1. जमीन खरीदी में कुछ हजार फर्जी रजिस्ट्रियां 
  2. पुनर्वास स्थलों पर किया गया निर्माण कार्य
  3. भूमिहीनों को वैकल्पिक व्यवसाय के नाम पर दी गई अनुदान राशि
  4. हर गांव में पात्र-अपात्र विस्थापितों की सूची में धांधली 
  5. हर गांव के घर , प्लॉट्स आबंटित या पुर्नआबंटित करने में भ्रष्टाचार।
सरदार सरोवर के डूब में पहाड़ी तथा मैदानी दोनों क्षेत्र आते हैं । पहाड़ी क्षेत्र के आदिवासियों ने न हटकर, डटकर जमीन के बदले जमीन वह भी न्यूनतम पांच एकड़ का हक कड़ी चुनौती देकर और लेकर ही प्राप्त किया। लगभग 10500 से अधिक परिवारों को मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र में जमीन, बसाहटें प्राप्त हुई। मैदानी क्षेत्र में बहुल जनसंख्या के बड़े गांवों की जनता, शाला, दवाखानें, दुकान-बाजार आज भी टूट रहे हैं और उन्हीं को फंसाकर करोड़ों की लूट अधिकारी, दलालों के गठबंधन से होने की जांच जारी है। महाराष्ट्र में भी विस्थापितों के लिए जमीन खरीदी में हुए 3 से 5 करोड़ रुपए के घोटाले में पांच  अधिकारियों का निलंबन हुआ और वसूली हो रही है । लेकिन मध्यप्रदेश में तो 2007 से उच्च न्यायालय में आंदोलन की याचिका से 2008 में गठित आयोग की 4 सालों की जांच से कई चौंकाने वाली बातें सामने आई है। बाकि मध्यप्रदेश – गुजरात की राजनीति आज भी छुपाने की कोशिश में लगी है, जो कि 1900 करोड़ पुनर्वास के मध्यप्रदेश के बजट में 1000 करोड़ रुपए की लूट की हकीकत है।
जमीन के साथ पुनर्वास की आदर्श नीति को 2000 में सर्वोच्च न्यायालय के फैसले से सशर्त मंजूरी भी मिलने पर मध्यप्रदेश शासन ने काला फांसने की साजिश रची। इसी के तहत पैसा वह भी केवल 5.5 लाख रुपए देकर। आधी रकम की पहली किश्त से ही पूरी जमीन खरीदने की चुनौती आदिवासी, सीमान्त, दलित आदि किसानों को दी गई, जबकि प्रत्यक्ष में अधिकारी और दलालों (कुछ वकील, शासन से जुड़े कर्मचारी, कुछ इर्दगिर्द के गांववासी भी) की साठगांठ की चंगुल में उन्हें फंसाया गया। दलित, आदिवासी समाज के शासन से भूमिदान में मिली जमीन पर जीने वाले गरीबों को पता भी नहीं चला कि उनकी जमीन झूठी रजिस्ट्रियों के आधार पर बेची गई। न्यायमूर्ति झा आयोग ने अब तक 4000 बयान, क्रेता-विक्रेताओं के, नोंद लेने पर अंदाज है कि 3000 तक रजिस्ट्रियां (3300 में से) फर्जी निकल आएगी। याने प्रत्येक की   5.5 लाख रुपए के विशेष पुनर्वास अनुदान से जमीन विस्थापितों को न मिलते हुए, उन्हीं को दोषी ठहराने की अधिकारियों की कोशिश, असफल तो रही ही, बल्कि शासन की तिजोरी से 5.5 गुणा 3000 याने 16500 लाख याने 165 करोड़ रुपए की चोरी भी तो उजागर हो रही हैं । अभी शेष है -हजारों बयान…. विस्थापितों के साथ राजस्व, नर्मदा विकास, रजिस्ट्रार कार्यालय के भी।
हर गांव में करीबन अपात्रों को पात्र बताकर करोड़ों का मुआवजा या अनुदान राशि निकालने वाले अधिकार कर्मचारियों ने, आज तक करोड़ों रुपए न केवल व्यर्थ गवाया, लेकिन अपना हिस्सा भी लिया। यह हकीकत भी न्या. झा आयोग आंदोलन से कोर्ट में प्रस्तुत हर प्रकार की जांच द्वारा सामने ला रहा है। इससे सही गरीब, विधवा, महिला को ही वंचित रखा जाने से, यह कार्य विस्थापितों को न्याय हक देने का भी है।
किसी परियोजना में नहीं हुआ हो, ऐसा पुनर्वास स्थलों का निर्माण जहां जमीन (पात्रपरिवारों के लिए) के अलावा, घर, प्लॉट्स और सभी सुविधाओं की सुनिश्चित की जानी थी और 1985 से गुजरात में, 1990 से महाराष्ट्र में तथा 1995 से मध्यप्रदेश में कुल करीब 300 से अधिक स्थलों का आधा या पूरा निर्माण हुआ। लेकिन मध्यप्रदेश में इन स्थलों पर आबंटित हुए घर प्लॉट्स की खरीदी बिक्री अभूत रूप से होने से कई गैर विस्थापितों का कब्जा, जिनमें अधिकारियों की झुंड भी शामिल है, सामने आया है। पुनर्वास स्थलों का नक्शा क्या मध्यप्रदेश शहर एवं ग्रामीण निवेश अधिनियम के तहत मंजूरी पाया हुआ है ? क्या नक्शा या आबंटित घर प्लाट्स भी बदलने का किसी को अधिकार है या ये स्थल अनाधिकृत कॉलोनियां घोषित होंगे, यह सवाल भी आयोग के सामने व्दिपक्षीय विवाद का मुद्दा बना है । आज तक सीधे सादे भोले आदिवासी या भूमिहीन दलितों को लाभों से  वंचित होना पडा है । लेकिन हकीकत कुछ और ही है । जिन्हें जमीन की नहीं, उन्हें वैकल्पिक विकास की पात्रता घोषित करने वाला नीति का फायदा उठाया,उसी भ्रष्टाचारी गिरोह  ने । जांच से आंदोलन ने सामने लाया कि हजारों भूमिहीनों को दुकान या डेयरी का   धंधा शुरू करने के झूठे कागजी पुरावे जोड़कर अनुदान दिया गया, जिसकी जांच में भी अब हजारों बयान रिकॉर्ड होने हैं, साथ ही दोषी अधिकारी ठहरे तो उनकी जांच।
भ्रष्टाचार का मुद्दा आज देश के राजनीतिक एजेंडा पर छाया हुआ है। इसे एक ही कानून के साथ हम निपटेंगे या आशावाद सपने जैसा ही है। भ्रष्टाचार को किस ओर से छूआ या रोका जाए यह पता नहीं, यह मानकर चुप तो नहीं बैठ सकते हैं, संवेदनशील लोग। हर कार्य में, जो भी हाथ लिया हो, उस क्षेत्र का भ्रष्टाचार उजागर करने के सिवाय और रास्ता भी क्या है। बड़ी परियोजनाओं में भी लाभों की पूर्ति नहीं किन्तु भ्रष्टाचार की मिश्रिति बाकी मिल रही है। टिहरी हो या गोसी खुर्द (विदर्भ) इस मुद्दे की हकीकत कभी महालेखा निरीक्षक से, तो कभी आंदोलन से ही उजागर होती रही है पर जब तक विस्थापित प्रभावित भी उनमें से भले ही छोटा समूह कमर कसकर भ्रष्टाचार विरोध में खड़ा रहकर खुद खड़ा नहीं होता, कार्यकर्ता भी केवल रास्ते पर की लड़ाई नहीं, तो उसके पार जाकर कानूनी जांच भरी संघर्ष की राह नहीं चुनते तब तक भ्रष्टाचार का मुद्दा राजनीतिक चुनौती बनकर विकास की पोल खोल तक नहीं पहुंचता। आदर्श, लावासा, हिरानंदानी हो या नर्मदा घाटी के बड़े बांध इन परियोजनाओं का विच्छेदन ऐसा ही भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन साबित हो रहा है।

साभारः सर्वोदय प्रेस सर्विस 

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