संघर्ष संवाद
Sangharsh Samvad

सिरसा नदी में न प्राण बचे और न प्राणी : औद्योगिक कचरे ने किया नदी को जहरीला

पिछले कुछ वर्षों में हिमाचल प्रदेश ने स्वयं को विकसित औद्योगिक राज्य की श्रेणी में लाने के लिए अपनी पर्यावरणीय श्रेष्ठता को नजर अंदाज किया। इसका परिणाम यह हुआ है कि वहां का पूरा वातावरण जिनमें नदियां भी शामिल है भयानक रूप से प्रदूषित होती जा रही है। पेश कुलभूषण उपमन्यु की रिपोर्ट जिसे हम सप्रेस से साभार साझा कर रहे है;

सिरसा नदी हरियाणा के पंचकुला जिले के कालका के पास के क्षेत्रों से निकल कर उत्तर-पश्चिम की ओर बहते हुए बहती में हिमाचल में प्रवेश करती है। बहती बरोटीवाला, नालागढ़ जो हिमाचल प्रदेश का प्रमुख औद्योगिक  क्षेत्र है, से गुजरते हुए यह पंजाब में प्रवेश करती है और रोपड़ के पास चक-देहरा में सतलुज नदी में मिल जाती है। बाहरी शिवालिक क्षेत्र में बहने के कारण यह बहुविध पारिस्थितिकीय भूमिका निभाती है। शिवालिक क्षेत्र आमतौर पर पानी के अभाव वाला क्षेत्र माना जाता है। एक सदानीरा नदी का इस क्षेत्र में होना ही अपने आप में प्रकृति की अद्भुत देन से कम नहीं है। सिंचाई, पेयजल, भूजल पुनर्भरण, जलीय जीवों के सुंदर आवास के अलावा इस नदी में किसी समय कई पनचक्कियां भी चलती थीं जहां सिंचाई की कुहलें नहीं पहुंचती थीं वहां लोगों ने नलकूप लगा कर सिंचाई की व्यवस्था कर ली थी।

प्रदेश के विकास के लिए औद्योगिकरण को बहुत जरूरी और रोजगार पैदा करने वाला माना जाता है। किन्तु यदि यह हमारे वातावरण, नदियों और भूजल को ही प्रदूषित कर दे तो  इससे बहुत सा रोजगार छीना भी जाता है। रहने के हालात कठिन हो जाते हैं। बीमारियों की भरमार हो जाती है। टिकाऊ विकास की व्यवस्थाएं नष्ट हो जाती हैं। ऐसा विकास थोड़े समय का तमाशा बन कर रह जाता है। इसलिए औद्योगीकरण के विपरीत प्रभावों को कम करने के लिए राष्ट्रीय और प्रादेशिक स्तर पर प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड़ों के माध्यम से मार्गदर्शिका जारी की जाती है। औद्योेगिक वर्ग लाभ कमाने के लालच में कई बहुत जरूरी सावधानियां की जानबूझ कर अनदेखी कर जाता है। इस वजह से वायु प्रदूषण भी एक बड़ा खतरा बन कर उभरता है। प्रदूषित वायु के भी कुछ अंश बारिश में धुल कर नदियासें, और जलस्त्रोतों में मिल जाते हैं और उन्हें भी प्रदूषित कर देते हैं। बी. बी. एन क्षेत्र भी इन विसंगतियों से अछूता नहीं है और इसका सबसे बड़ा शिकार सिरसा नदी हुई है।

दिल्ली विश्वविद्यालय के चौहान और साथियों द्वारा किये गए अध्ययन और उसके बाद हुए अध्ययनों से कई महत्वपूर्ण बातें समाने आई है। पहले अध्ययन में जैव अनुश्रवण अध्ययन किया गया था। इसके अंतर्गत जलीय जैव विविधता का सूचिकरण करके नदी प्रदूषण स्तर का पता लगाया जाता है। इस अध्ययन में  तीन क्षेत्रों बहती से ऊपर का क्षेत्र जहां औद्योगिक कचरा नहीं पंहुचता है। जगातखाना जहां से औद्योगिक कचरा शुरू हो जाता है और धनौली जहां औद्योगिक कचरे वाले क्षेत्र को लांघ कर नदी पंजाब में प्रवेश करती है। इन तीन स्थलों का नमूना अध्ययन किया गया इसमें पाया गया कि बहती के ऊपर वाले क्षेत्र से जगातखाना तक आते आते जैविक प्रदूषण, दो गुना हो जाता है। धनौली तक आते आते प्रदूषण का स्तर तीन गुना हो जाता है यानी खतरे के स्तर के ऊपर पंहुच जाता हैं। इसके कारण संवेदनशील जलीय जीव प्रजातियां लुप्त होती जाती है।

सिरसा नदी की सहायक खड्डे, बलद, चिकनी खड्ड, छोटा काफ्ता नाला, पल्ला नाला, जटा नाला और संधोली खड्ड हैं। नई ,खड्डों का भी हाल औद्योगिक प्रदूषण के चलते खराब हो चुका है। बी.बी. एन क्षेत्र लगभग 3500 हैक्टेयर में फैला हुआ है। इसमें लगभग 2063 उद्योग है इनमें से 176 लाल श्रेणी के, 779 संतरी श्रेणी के और 1108 हरी श्रेणी के हैं। यह वर्गीकरण इनकी प्रदूषण फैलाने की क्षमता के आधार पर किया गया है। लाल श्रेणी में थर्मल प्लांट, धागा उद्योेेग, स्टोन क्रशर, एल्युमीनियम स्मेल्टर, लेड-एसिड-बैटरी, और बायलर उद्योग आदि आते हैं। संतरी श्रेणी में ईट भटठा, नदी से रेत-बजरी-पत्थर आदि निकालने,ढांचागत निर्माण, और फार्मेसी आदि उद्योग रखे गए हैं। हालांकि प्रदूषण फैलाने में संतरी श्रेणी के उद्योगों का योेगदान भी कम नहीं है। बी.बी.एन क्षेत्र में प्रदूषण नियंत्रण प्रावधानों का उद्योगों द्वारा ठीक से पालन न करने के चलते ही केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने इसे ’’खतरनाक स्तर तक प्रदूषित’’ क्षेत्रों की सूची में डाला है।

खतरनाक कचरे को यहां वहां नदियों में डालना, प्रदूषित जल को खेतों व नदियों में छोड़ देना, अवैध खनन, आदि प्रमुख समस्याएं हैं। इनका सम्मिलित प्रभाव कृषि, पशुपालन, जलीय जैवविविधता,स्वास्थ्य, और स्वच्छता पर पड़ना स्वाभाविक ही है प्रशासन और प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की, पर्यावरणीय गाइड लाइन को लागू करने की सामर्थ्य, पर भी प्रश्न चिन्ह लग गया है। नदी और उसकी सहायक खड्डों में प्रदूषित पानी छोड़ने के साथ कुछ उद्योगों द्वारा प्रदूषित जल को जमीन के भीतर इंजेक्ट करने की भी सुचनाएं हैं।

60 प्रतिशत उ़द्योगों में जल उपचार संयंत्र ही नहीं लगे हैं। बघेरी क्षेत्र में हवा में पारे, लेड, और केडमियम की मात्रा सुरक्षित स्तर से काफी ज्यादा है। बारिश में घुल कर पारा नदी जल और भूजल मंे पहुंच जाता है मछली के शरीर में पहुंच कर पारा, मिथाइल पारे में बदल जाता है। यह शरीर में मस्तिष्क, हद्य, फेफड़े, और गुर्दे को नुकसानपहुचाता है। और रोगरोधी व्यवस्था को भी खराब करता है। नदियों के किनारे एक्सपायर दवाइयों की और अन्य खतरनाक ठोस कचरे की डंपिंग आम बात है। यह ’’खतरनाक अपशिष्ट नियम 2006’’ का उल्लंघन है। केंधुवाल में एक सांझा प्रदूषित जल संशोधित संयंत्र स्थापित करने की बात है। कुल इकाइयां 2063 हैं। शेष का क्या होगा। सिरसा नदी का जल ’’ई’’ श्रेणी का पाया गया है। यह जल के घोषित उपयोगों में से किसी के योग्य नहीं है। इसमें ऑक्सीजन की मात्रा इतनी कम है कि मछली जिंदा नहीं रह सकती। ई-कोलाई की मात्रा इतनी ज्यादा है कि यह पीने योग्य नहीं है।

क्रशर उद्योग के लिए सिरसा नदी और उसकी सहायक खड्डे बुरी तरह से खनन का शिकार हो चुकी हैं। ज्यादातर खनन अवैध है। नदी खनन से प्राप्त रेत, बजरी, पत्थर का प्रयोग हिमाचल और सीमा से सटे पंजाब के क्रशरों में भी अवैध रूप से होता है। खनन माफिया से स्थानीय राजनीतिज्ञों के तार भी जुडे़ हो सकते हैं। इसीलिये उनके हौंसले  इस कदर बढ़े हुए हैं की कुछ समय पहले अवैध खनन पर छापा मारने वाले तहसीलदार पर ही तलवारों से हमला हो गया था। इन खड्डों का तल 3 से 12 मीटर तक गहरा हो गया है। इसी कारण किशनपुर-हरिरायपुर, भुद्द और सन्धोली विभागीय सिंचाई योजनायें असफल हो गई हैं। इससे 415 हैक्टेयर भूमि सिंचाई से वंचित हो गई है। भूजल 200 फुट तक नीचे चला गया है। वहां भी पानी प्रदूषित है। परिणामस्वरूप कृषि बर्बाद हो गई है, खेतों में काम करना कठिन है। चर्मरोगों और प्रदूषित जलजनित रोगों का प्रकोप बढ़ रहा है। स्थिति की गंभीरता को समझा जाना चाहिए। परंतु इन सवालों को उठाने वालों को विकास विरोधी ठहराने के प्रयास किये जाते हैं। ताकि कोई बोलने का साहस न करे। किन्तु एक नदी को मरने से बचाना सबका सांझा हित है। अनुमान लगाएं कि जब जीवनदाई नदियां ही विषैली हो जांएगी तो जीवन कैसे चलेगा। यह राष्ट्रीय सुरक्षा के बराबर जरूरी मामला है।

(श्री कुलभूषण उपमन्यु स्वतंत्र लेखक हैं। हिमालय नीति अभियान के अध्यक्ष हैं।)

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