संघर्ष संवाद
Sangharsh Samvad

किसानों की उपेक्षा की एक दास्तां यह भी

Published on 24 Jul-2012, 

दैनिक भास्कर, डा. ए. के. अरुण

  


किसान और किसान आंदोलनों के साथ देश में स्थापित तंत्र का रवैया क्या है, इसकी एक मिसाल है मध्यप्रदेश का मुलताई कांड। वहां १२जनवरी 1998 को किसान आंदोलन पर हुए पुलिस गोलीकांड के बाद दर्ज 66 प्रकरणों में से तीन सर्वाधिक गंभीर प्रकरणों पर सोमवार को बहस के बाद अब फैसले की घड़ी आ गई है। पुलिस गोलीकांड में 24 किसानों की मौत तथा 150 किसानों को गोली लगने के बावजूद इस गोलीकांड के जिम्मेवार लोगों के खिलाफ एक भी प्रकरण दर्ज नहीं हुआ बल्कि 250 किसानों पर 66 प्रकरण दर्ज किए गए। इस मामले में फैसले का इंतजार करते-करते बीस से अधिक किसानों की मौत हो चुकी है। उनमें से एक अमरू नरवरे भी थे, जिनकी मौत 95 वर्ष की उम्र में हुई। उन पर हत्या और हत्या के प्रयास के 27 मुकदमे दर्ज थे।

मुलताई कांड की स्मृति में वहां के किसान हर माह की 12 तारीख को महापंचायत करते हैं। अब तक 185 से अधिक महापंचायतें हो चुकी हैं। हर वर्ष शहीद किसान स्मृति सम्मेलन भी होता है, जिसमें देश भर के जन संगठनों एवं किसान संगठनों के नेता शहीद किसानों को श्रद्धांजलि देने पहुंचते हैं।

घटना के तुरंत बाद नर्मदा बचाओ आंदोलन की पहल पर एक ही घटना के 66 मुकदमे दर्ज करने के खिलाफ सीबीआई से जांच कराने तथा सभी प्रकरण रद्द करने या एक साथ चलाने को लेकर जबलपुर हाईकोर्ट में याचिका दर्ज की गई थी। इस बीच किसानों के खिलाफ दर्ज 66 मुकदमों में से 50 को या तो समाप्त घोषित कर दिया गया या उसे वापस ले लिया गया। कुछ में आरोपियों को बरी कर दिया गया है।

सोमवार को जिन तीन प्रकरणों पर बहस हुई है, उनमें आरोप लगाया गया था कि वहां के पूर्व विधायक डॉ.सुनीलम ने किसान संघर्ष समिति का नेतृत्व करते हुए एक थानेदार को जलाने की कोशिश की, बाद में थाना प्रभारी की राइफल छीनकर उसे मारा। आरोप में यह भी बताया गया है कि पूर्व विधायक ने फायर ब्रिगेड के ड्राइवर को उतारकर पत्थर से मारा जिसके परिणामस्वरूप उसकी 4 दिन बाद मौत हो गई। इस तरह एक प्रकरण हत्या करने, बाकी दो प्रकरण हत्या का प्रयास करने, सरकारी काम में बाधा डालने, आगजनी करने, लूट-पाट करने आदि अपराधों से संबंधित हैं। सभी प्रकरणों में पुलिस और प्रशासन के गवाहों ने किसानों के खिलाफ गवाही दी है तथा सभी अन्य गवाहों ने न्यायालय को बताया है कि उनका नाम फर्जी तौर पर गवाह की सूची में डाल दिया गया था, जिन्हें अब न्यायालय द्वारा पक्ष विरोधी घोषित कर दिया गया है।

पूरे प्रकरण में सबसे खास बात यह है कि दो हजार पुलिसकर्मियों की उपस्थिति दिखाई गई है तथा गोली चालन के पहले तथा दो दिन बाद डॉ. सुनीलम की गिरफ्तारी तक किसी और को गिरफ्तार नहीं किया गया और न ही कोई वाहन जब्त बताया गया। घटना के पहले भी किसी तरह की गिरफ्तारी नहीं की गई। गोली चालन की सभी घटनाओं में यह बतलाया गया कि आंदोलनकारियों द्वारा पथराव किया गया था, जिस कारण आत्मरक्षा में पुलिस को गोली चलानी पड़ी।

यहां विशेष बात यह रही कि पुलिस ने घटनास्थल से एक भी पत्थर जब्त नहीं किया, न ही पथराव के लिए इस्तेमाल किए गए ट्रैक्टर जब्त किए या उनके सवारों को गिरफ्तार किया। आश्चर्यजनक तौर पर जो किसान गोली से मारे गए, उन्हीं को आरोपी भी बना दिया गया। पूरे प्रकरण में यह बात साफ हो गई कि वहां न तो धारा 144 लगाई गई थी, न ही लाठी चार्ज किया गया था या अश्रु गैस के गोले छोड़े गए, सीधे गोली चालन किया गया। दुकान से निकालकर किसी को गोली मारी गई। स्कूल के एक छात्र को स्कूल के मैदान में खेलते वक्त गोली मारी गई, दोनों के पिताओं ने गवाही देकर गोली चालन का विस्तृत वर्णन किया है।

गोली चालन की घटना के बाद मध्यप्रदेश विधानसभा में भी लंबी बहस हुई थी। तत्कालीन विपक्ष ने एसपी व कलक्टर पर हत्या का मुकदमा चलाने की मांग की थी, जिसका समर्थन तत्कालीन उपमुख्यमंत्री सुभाष यादव तथा पूर्व कृषि मंत्री एवं वरिष्ठ कांग्रेसी नेता डॉ. बलराम जाखड़ ने किया था। सरकार बदलने के बाद मप्र विधानसभा में तत्कालीन मुख्यमंत्री उमा भारती ने किसानों के मुकदमे वापस लेने की घोषणा की थी लेकिन भाजपा सरकार ने मुलताई के किसानों का एक भी मुकदमा वापस लेने की प्रक्रिया शुरू नहीं की। भाजपा सरकार ने अब तक 1,80,000 मुकदमे 8 वर्षों में वापस लिए हैं लेकिन मुलताई के मुकदमों पर उसकी नजर नहीं गई है।

देश में न्याय व्यवस्था के सुधार को लेकर तमाम संगठन काम कर रहे हैं लेकिन गत चौदह वर्षों में किसी भी संगठन ने नियमित रूप से गोली चालन के बाद किसानों पर लादे गए प्रकरणों पर कोई फॉलोअप नहीं किया है। किसान संघर्ष समिति के सभी मुकदमे छिंदवाड़ा की एडवोकेट आराधना भार्गव अपना समय और साधन लगाकर मलताई में लड़ रही हैं। वहां के किसानों के पास किसी बड़े वकील की सेवाएं लेने की हैसियत नहीं है।

राजनीतिक दलों ने भी प्रकरणों को लेकर कोई दिलचस्पी नहीं दिखलाई है। भाजपा ने शहीद किसानों की लाशों के पोस्टर बनाकर वोट लिए थे और कांग्रेस के खिलाफ मप्र में वातावरण तैयार करने में भी मुलताई गोलीकांड की अहम भूमिका थी। लेकिन आज तक मुलताई के किसानों को न तो उचित न्याय मिला है और न ही मुआवजा। मीडिया ने भी घटना के तुरंत बाद तो काफी शोर-शराबा किया लेकिन बाद में सबकी नजर से वह ओझल हो गया। आखिर किसानों के मामले में इस बेरुखी की क्या वजहें हैं? क्या इसी संस्थागत उपेक्षा से आज किसान खुदकुशी के लिए मजबूर हो रहे हैं?

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