संघर्ष संवाद
Sangharsh Samvad

सरकारी इशारों पर नाचती निचली अदालतें

मुलताई गोलीकांड में 14 साल बाद पिछली 18 अक्टूबर को फ़ैसला आया और जैसा कि अंदेशा था, डा. सुनीलम समेत तीन लोगों को उम्र क़ैद की सज़ा सुनायी गयी। याद रहे कि 12 जनवरी 1998 को मध्य प्रदेश के बैतूल जिले की मुलताई तहसील के सामने किसानों ने बरबाद हो चुकी फ़सलों का मुआवज़ा दिये जाने की मांग को लेकर किसानों ने प्रदर्शन किया था। तब राज्य में दिग्विजय सिंह की सरकार थी। इस आंदोलन को कुचलने के लिए राज्य सरकार की शह पर गोलियां बरसायी गयीं जिसमें 24 किसान शहीद हुए और 150 घायल हुए। डॉ. सुलिलम सहित 250 किसानो पर 12 जनवरी 1998 को 66 फर्जी मुकदमे दर्ज किये गये थे, जिनमे से निॅम्न तीन प्रकरणो मे फैसला दिया गया है.

1. सत्रवाद क्रं. 277/6 यह प्रकरण थाना प्रभारी एस. एन. कटारे की राइफल छीनने और जान से मारने का है। डॉ. सुनीलम, अमरु, रजनीश, रामू, मदन, दिनकर, भारत ( अमरु और शरत की मुकदमे के दौरान मौत ) धाराए:-148, 145, 152, 333, 139, 307, 397

2. सत्रवाद क्रं. 278/6 यह प्रकरण सब इन्सपेक्टर सरनाम सिंह को जलाने एवं जान से मारने के प्रयास से संबंधित है। डॉ.सुनीलम, रामू पवॉर, दिनकर, सहदेव, मदन, शिवलू, टिक्कू, बब्बू (टिक्कू और बब्बू गोलीचालन के दौरान शहीद हुए थे) धाराए:-148, 145, 152, 332, 149, 307, 133

3. सत्रवाद क्रं. 280/6 धीर सिंह की हत्या का प्रकरण डॉ.सुनीलम, परषुराम, टंटी चौधरी, शेषू, रामू, अनिल, शिवलू, कृष्णकुमार, गुलाब, अमरु, भीमराव ।( भीमराव गोलीचालन मे शहीद ), अमरु की मुकदमे की दौरान मौत ) । धाराए:-302, 147, 148, 149, 307, 323, 451,( 3, 4 लोक संपत्ति हानि निवारण अधिनियम ) ( 14 वर्ष बाद सितम्बर 2012 को धारा 120 बी जोड़ी गई है।) 

आंदोलन की अगुवाई सुनीलम कर रहे थे। उन पर इसका इल्ज़ाम मढ़ा गया जबकि आरोप था कि गोलीकांड उनकी हत्या करने और आंदोलन को कुचलने के लिए हुआ था।


ख़ास बात यह कि इस मामले में शिवराज सिंह की मौजूदा भाजपाई सरकार भी कांग्रेसी सरकार जैसी निकली और उसने मामले की निष्पक्ष जांच कराये जाने में कोई दिलचस्पी नहीं ली। विभिन्न संगठनों ने इस गोलीकांड के लिए तब के पुलिस अधीक्षक और जिलाधिकारी को कठघरे में खड़ा किया था लेकिन जिले के आला अधिकारियों के ख़िलाफ़ मुक़दमा चलाये जाने की मांग को अनसुना कर दिया गया। पेश है इस मामले पर  लखनऊ से अदियोग की टिप्पणी;

मुलताई गोलीकांड और उस पर आया अदालती आदेश बानगी है कि सत्ता प्रतिष्ठान किस तरह लोगों की जायज़ मांगों पर आंख मूंदता है और जब लोग अपने हित-अधिकारों के लिए आवाज़ बुलंद करते हैं तो उन्हें सबक़ सिखाने के लिए अपनी ताक़त का बेजा इस्तेमाल करने में नहीं हिचकता और उन्हें ही गुनाहगार बना देता है। यह मामला इस बात की भी तस्दीक करता है कि निचली अदालतें किस तरह सरकारों के इशारे पर काम करती हैं और न्याय व्यवस्था की धज्जियां उड़ाने से परहेज़ नहीं करतीं। अब तक के तमाम मामले यही नज़ीर पेश करते हैं कि निचली अदालतें किस क़दर भ्रष्ट, जाहिल और सत्ता के तलुए चाटने में लगे जजों के हवाले हैं और उनका कुल मक़सद न्याय देना नहीं, सरकारों की सेवा-टहल करना है। बिनायक सेन से लेकर सुनीलम तक के मामले से यही साबित हुआ है।

यह सच शीशे की तरह साफ़ है कि निचली अदालतें न्याय को लंबा खींचने की साज़िश का हिस्सा हैं ताकि जनता की आवाज़ों को हैरान-परेशान किया जा सके। आंदोलनकारियों को क़ानून की गलियों में भटकाया जा सके। मुलताई गोलीकांड को ही लें। किसान बरबाद हो चुकी फ़सलों का मुआवज़ा मांग रहे थे। गोलीकांड ने इस मांग को पीछे ढकेलने का काम किया। सड़क का मोर्चा बिखर गया। स्वाभाविक रूप से आंदोलनकारी नेताओं को बचाने का सवाल पहला हो गया। असली मुद्दा अंधेरे कोने में ग़ायब हो गया।

ज़ाहिर है कि अब उच्च न्यायालय का दरवाज़ा खटखटाया जायेगा। इसमें भी समय लगेगा। क़ानूनी दांवपेंचों से दोचार होना पड़ेगा। धन और ऊर्जा का भी निवेश करना होगा। यह सबक़ देने का तरीक़ा है कि सत्ता की ताक़त को चुनौती दोगे तो बुरे फंसोगे। अदालत का चक्कर लगाने में एड़ियां घिसोगे। तो ख़बरदार जो आवाज़ उठायी। यही अच्छा है कि ज़ुबान बंद रखो, ज़ोर-ज़ुल्म को चुपचाप झेलो, उफ़ करने से पहले दस बार सोचो। कई मामलों ने तो यह भी साबित किया है कि उच्च न्यायालय के भी कुछेक जज सरकारी इशारों पर नाचते हैं और न्याय को शर्मसार करने में तनिक शर्म नहीं करते।

यह कहीं से लोकतांत्रिकता का लक्षण नहीं है। सत्ता दिनोंदिन निरंकुश और बर्बर होती जा रही है। दुखी-पीड़ित जनता के सामने अदालते हीं सबसे बड़ा आसरा होती हैं। उस पर से भी भरोसा उठ जायेगा तो लोग क्या करेंगे। उत्पीड़ित होते रहने की मजबूरी को अपनी नियति मान लेंगे, ख़ुदकुशी का रास्ता चुनेंगे या बदले की आग में हिंसा की राह पकड़ेंगे। तीनों विकल्प देश और लोकतंत्र की सेहत की सेहत के लिए ठीक नहीं। राजनेता इसे कब समझेंगे? कब सुधरेंगे और कैसे?

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