संघर्ष संवाद
Sangharsh Samvad

नर्मदा घाटी के पुनर्वास में फर्जी रजिस्ट्रियां : मुख्यमंत्री से लेकर अधिकारी तक मिले हुए है, नहीं हो रही फर्जीवाड़ा करने वालों पर कार्यवाही



नर्मदा बचाओ आंदोलन द्वारा वर्ष 2007 में परियोजना के डूब क्षेत्र में सैकड़ों फर्जी रजिस्ट्रीयां होने व पुनर्वास बसाहटों में बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार होने को लेकर जबलपुर उच्च न्यायालय में याचिका लगाई गई थी। इस पर न्यायालय ने 2008 में जस्टिस झा आयोग का गठन किया था। आठ साल बाद इस वर्ष जस्टिस झा आयोग की रिपोर्ट भी विधानसभा में पेश हो गई लेकिन फर्जीवाड़ा करने वालों पर कार्यवाही नहीं की जा रही है क्योंकि इस भष्ट्राचार में मुख्यमंत्री से लेकर अधिकारी तक सब मिले हुए है । पेश है नर्मदा बचाओ आंदोलन की विज्ञप्ति; 

न्या. झा आयोग की रिपोर्ट से यह बात सामने आयी है कि सरदार सरोवर विस्थापितों को खेती लायक जमीन आंबटित करके पुनर्वसित करने बदले फर्जी रजिस्ट्रियों में फंसाया गया है। 2005 से 2007 तक नर्मदा बचाओ आंदोलन ने राज्य से केन्द्र तक, 2006 में हुए 21 दिन के उपवास द्वारा तथा अनेकानेक पत्र लिखकर राज्य शासन, नर्मदा घाटी विकास प्राधिकरण तथा केन्द्रीय नर्मदा नियंत्रण प्राधिकरण को भी ‘‘ फर्जीवाडा ‘‘ चलाया जा रहा है, यह खबर करने के बावजूद कोई कार्यवाही नहीं हुई। इस दौरान केन्द्रीय सचिवों ने (जल संसाधन व सामाजिक न्याय मंत्रालय से) बारबार मुख्य सचिव, मध्य प्रदेश को खबर की, कि इसकी जांच करवाये। आखिर 13/11/2007 तक ही जांच रिपोर्ट दी गयी, जिसमें रजिस्ट्रियों के क्रेता, विक्रेता के नामों सहित यह दावा किया गया कि 2818 में से 2777 रजिस्ट्रियों की जांच होकर ‘‘ 758 रजिस्ट्रियों फर्जी और बाकी सब वास्तविक है। बाद में 758 में दोबारा नाम काटकर संख्या 686 बतायी गयी।

झा आयोग की रिपोर्ट के आधार पर यह साबित होता है कि 1589 रजिस्ट्रियों फर्जी है, जिनमें से कम से कम 999 रजिस्ट्रियों के तो कागजात (फोटो/स.नं./हस्ताक्षर इत्यादि) पूर्णतः फर्जी है और अन्य 561 की लेनदेन फर्जी है। मूल विक्रेता मालिक ही जमीन पर कब्जा रखे हुए है। इससे दो सवाल उभरते है, जिसका जवाब शासन को देना ही पड़ेगा।

  1. 686 के अलावा (2777-686 ) 2091 रजिस्ट्रियाॅ वास्तविक बताने वाली जांच ही फर्जी यानि अधूरी थी। यह जांच किसने की? उन अधिकारियों को क्या निर्दोष माना जाएं या दोषी? इन्हीं के कारण फर्जी रजिस्ट्रियों की संख्या कम बताकर, फर्जीवाड़ा रोकने के बदले चालू रखा गया यह निश्चित होता है। 
  2. इसी दौरान, 12/05/2006 के रोज भोपाल में एक विशेष बैठक हुई जिसकी अध्यक्षता उस समय के उपाध्यक्ष न.घा.वि.प्रा, श्री उदयनवर्मा ने की और उसमें शरीक हुए कुल 38 वरिष्ठ व अन्य अधिकारी/कर्मचारी थे। इन्होने मिलकर जो निर्णय लिए, जिसका पत्र आयुक्त (पुनर्वास/फील्ड) ने प्रस्तुत किया और कलेक्टर्स तक ने इससे निर्देश प्राप्त किये। इस मीटिंग का उद्देश्य था, 2006 में हुए 21 दिन के उपवास दौरान 3 मंत्रियों की जांच के बाद भूतपूर्व महालेखाकार श्री. व्ही.के.शुंगलू की अध्यक्षता में होने वाली दूसरी जांच के पहले पुनर्वास कार्य में बढ़ोतरी दिखाना। मान ले कि आंदोलन ने 2005 से ही संबंधित अधिकारी एवम् राजनेताओं को इस बात से अवगत कराया था कि फर्जी रजिस्ट्रियों हो रही है। कुछ फर्जी रजिस्ट्रियों अप्रैल 2006 के पहले ही निकल आयी थी। जिसका जिक्र ‘‘ एसआरपी से भ्रष्टाचार हो रहा है ’’ यह कहते हुए 3 मंत्रियों की रिपोर्ट में भी आया है जो 9/4/2006 की है। 17 अप्रैल को अनशन तोड़ने  बाद घाटी के लोग दिल्ली से भोपाल आकर मुख्यमंत्री से भ्रष्टाचार पर चर्चा करने रुकने के लिए सैंकड़ो की संख्या में लेकिन मुख्यमंत्री ने झूठ बोलकर टाल दिया और वे भोपाल के बाहर चल पड़े हैं। 

इस परिप्रेक्ष्य में भोपाल में हुई 12/05/2006 की बैठक महत्वपूर्ण है। इस बैठक में उच्च स्तर से ही निर्णय दिया गया कि रजिस्ट्रियों के कागजात पेश करने बाद 24 घंटे में या अधिकतम 3 दिनों में रजिस्ट्रेशन किया जाए। इसका मतलब यह है कि रजिस्ट्रेशन बिना जांच के करने में उच्च स्तरीय सहमति ही नहीं, आग्रह था। जबकि भ्रष्टाचार की जानकारी शासन के हर स्तर पर हुई थी, तब भी जानबूझकर, सोच समझकर ‘‘ फर्जीवाडा ‘‘ जारी रखा जाने का आग्रह वरिष्ठों से किया गया। जबकि इसका उद्देश्य एक ओर ‘‘ पुनर्वास में प्रगति ’’ जमीन प्राप्त करने वालों की संख्या बढ़ा चढ़ाकर दिखाने का था, दूसरी और भ्रष्टाचार भी कारण जरूर था। इसलिए इस बैठक में शामिल उच्च अधिकारी, उपाध्यक्ष आयुक्त के अलावा, संचालक, उपसंचालक भी इस निर्णय के लिए और उससे बढ़ते गये भ्रष्टाचार के लिए जिम्मेदार माने जाने चाहिए।

इस पूरे घटना क्रम से तथा प्रक्रिया से यह स्पष्ट होता है कि ‘‘ फर्जीवाडा ‘‘ करने देने और बढाने में उच्च स्तरीय राजनेता व अधिकारियों का आशीर्वाद निश्चित था। आंदोलन के किसी भी पत्र का जवाब न देने वाली तथा कभी भी संवाद न करने वाली स्थिति मुख्यमंत्री ने हरदम बनायी। कभी भी आंदोलन ने यानि घाटी के सामान्य किसानों ने हिम्मत से निकाली जानकारी पर गंभीरता से ध्यान नहीं दिया, न ही उस पर कोई जांच करवायी। जो भी जांच करवायी गई वह केन्द्र की सचिवों के आग्रह पर की गई जिस की तरफ भी राज्य शासन ने पूर्णतः दुर्लक्ष किया। यहां तक की 2007 नवंबर में 686 तक फर्जी रजिस्ट्रियाॅ मंजूर करने के बाद भी किसी अधिकारी के खिलाफ कार्यवाही नहीं की गयी। इस फर्जीवाडे में तथा पुनर्वास के हर पहलू में हुए भ्रष्टाचार में मुख्यमंत्री भी निर्दोष नहीं माने जा सकते।

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