संघर्ष संवाद
Sangharsh Samvad

अब ये लोग गोली चलायेंगे

फ़ाइल तस्वीर

छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा (छमुमो) के नेता शंकर गुहा नियोगी ने आजादी के बाद श्रमिक आंदोलन को नई ऊँचाइयां प्रदान की थी। उनकी दूरदर्शिता और राजनीतिक परिपक्वता उन्हें एक महत्वपूर्ण राजनीतिक चिंतक के रूप में भी स्थापित करती है। इसी परिपक्वता के चलते उन्होंने अपनी हत्या तक की सटीक भविष्यवाणी कर दी थी। 28 सितंबर 1991 को उनकी गोली मारकर हत्या कर दी गई थी। उनकी 24वीं पुण्यतिथि पर श्रद्धांजलि स्वरूप यह आलेख जिसे राकेश दीवान ने अगस्त 1992 में लिखा था  हम  सप्रेस से साभार साझा कर रहे है;

नि योगी को जिलाबदर करने की सरकारी कार्रवाई पर उच्च न्यायालय द्वारा रोेक लगाये जाने के बाद एक मित्र ने उनसे पूछा था कि अब आगे क्या होगा। नियोगी का जवाब था, ‘‘गोली, अब ये लोग गोली चलायंेगे।‘‘ 10 अगस्त 1991 को छत्तीसगढ़ के पांच जिलों से निष्कासन की कार्रवाई पर उच्च न्यायालय द्वारा लगायी गयी रोक के करीब डेढ़ महीने बाद नियोगी की हत्या कर दी गयी।

नियोगी ने अपनी हत्या की आशंका दुर्घटना से कुछ सप्ताह पहले रिकार्ड किये गये टेप में भी व्यक्त की थी। इसमें उन्होंने अपनी हत्या, हत्यारों के नाम, छमुमो के भावी नेतृत्व को सुझाव और करीबी राजनैतिक दलों से संबंध के बारे में अपने विचारों का जिक्र किया है। नियोगी द्वारा व्यक्त आशंका की पुष्टि बाद में सी. बी. आई. द्वारा कोर्ट में प्रस्तुत किये गये आरोप पत्र से भी हो जाती है जिसमें भिलाई के कुछ उद्योगपतियों के नाम हत्या के षड्यंत्रकारियों के रूप में बताये गये हैं। सी.बी.आई. ने भिलाई के एक प्रमुख उद्योगपति के निवास से एक विस्तृत गोपनीय रपट भी बरामद की है जो कि छमुमो के आंदोलन और नियोगी को धीरे-धीरे निष्प्रभावी बना देने या खत्म कर देने की चरणबद्ध योजना का कच्चा चिट्ठा है।

29 अप्रैल 1991 और बाद में 4 जुलाई 1991 को नियोगी को मिले पत्रों में भी किन्हीं अज्ञात शुभचिंतकों ने उन्हें उनकी हत्या के बारे में आगाह किया था। इन पत्रों में लिखा था कि हत्या के लिए डेढ़ लाख रुपये में ठेका दिया जा चुका है और हथियार भी खरीदे जा चुके हैं। हत्याकांड के बाद सुश्री आशा गुहा नियोगी ने अपने पति की हत्या की रपट में हत्यारों की जगह नौ उद्योगपतियों के नाम भी दर्ज करवाये थे। दरअसल इन तमाम आशंकाओं, आरोपों और सरकारी रपटों के अलावा नियोगी हत्याकांड के पहले की घटनाओं को देखें तो यह बात और स्पष्ट हो जाती है कि जो हालात बनते जा रहे थे उनमें उद्योेगपतियों और सरकार के लिए आंदोलन को ठप्प कर देने का एकमात्र यही रास्ता बचा था। इस ‘एकमात्र रास्ते‘ का अहसास नियोगी सरीखे परिपक्व राजनीतिज्ञ को पहले से होना ही था।

छमुमो के भिलाई में पैर रखने के साथ ही यह बात साफ हो गयी थी कि उद्योगपति ‘भिलाई को दल्ली राजहरा‘ नहीं बनने देंगे। 29 नवम्बर 1990 को भिलाई की एक पत्रकार वार्ता में ‘भिलाई इंडस्ट्रीज एसोसिएशन‘ के अध्यक्ष बी. आर. जैन (भिलाई के बी.ई.सी. उद्योग के मालिक) ने मूलचंद शाह, राजेश माथुर, अरविन्द जैन, राजेश गुप्ता आदि उद्योगपतियों की उपस्थिति में खुलासा कर दिया था कि वे राजहरा के ‘कथित मजदूर नेता से किसी प्रकार का समझौता नहीं कर सकते हैं।‘

छमुमो को नकारने की इन कोशिशों में सरकारी अमले ने भी उद्योगपतियों का खुलकर हाथ बंटाया। ए.सी.सी. सीमेंट फैक्ट्री में छमुमो के नेतृत्व में मजदूरों की जीत होने के बाद दूसरे उद्योगों के मजूदरों ने भी तेजी से लाल-हरे झंडे तले एकजुट होना शुरू कर दिया था। भिलाई के मजदूरों को लेकर पंजीकृत की गयी चार यूनियनों में बड़े पैमाने पर मजदूरों द्वारा सदस्यता ले लेेने के बावजूद उद्योगपतियों ने उन्हंे मान्यता प्रदान नहीं की थी। उलटे उद्योगपतियों और उनकी हाँ-मेें हाँ मिलाने वाली जेबी यूनियनों को मान्यता दे दी गयी। इस सिलसिले में श्रमायुक्त श्री पांडे का कथन गौरतलब है। उन्होंने जून 1992 में छमुमो के उपाध्यक्ष का. गणेशराम चौधरी से कहा था कि छमुमो के आंदोलन के दबाव में सिम्प्लेक्स उद्योग समूह ने कम-से-कम एटक की यूनियन को पहली बार मान्यता दी है।

छमुमो के प्रभाव को रोक पाने में असफल इन तरकीबों के बाद उद्योगपतियों ने तरह-तरह के मनगढ़ंत आरोप लगाकर मजदूरों की छँटनी शुरू कर दी। एक ही दिन में विभिन्न उद्योगों से सैकड़ों मजदूरों को निकला गया। अब तक बर्खास्त किये गये मजदूरों की संख्या 4,200 तक पहुँच गयी है। इन मजदूरों का अपराध केवल इतना था कि वे छमुमो की यूनियनों की सदस्यता ले रहे थे। इसके बावजूद जब छमुमो के साथ मजदूरों के जुड़ाव की प्रक्रिया नहीं रुकी तो उन पर शारीरिक हमले शुरू किये गये। उद्योगपतियों की निजी सेनाओं, गंुडों तथा पुलिस ने मिल-जुल कर लगातार महिला-पुरुष मजदूरों और उनके वरिष्ठ साथियों पर तलवारों, लाठियों, लोहे के सरियों और चाकुओं से घातक हमले किये। छमुमो का आँकड़ा है कि मार्च 1990 से लेकर आज तक इन हमलों मे नियोगी के अलावा चार अन्य साथियों को भी अपनी जान गँवाना पड़ी। सैकड़ों मजदूर गम्भीर रूप से घायल हुए और कई तो आज तक स्वस्थ नहीं हो पाये हैं। भिलाई में औद्योगिक अशंाति का अध्ययन करने हेतु गठित नागरिक समिति की मार्च 1992 में प्रसारित रपट, ‘औद्योगिक कोहरे के पीछे‘ में आंदोलनरत मजदूरों पर पुलिस के समर्थन में (और सीधे पुलिस के द्वारा भी) उद्योगपतियों के इशारे पर सक्रिय गुंड़ों द्वारा की गयी बर्बर हिंसा के आँकड़े दिये गये हैं। इनको देखकर न केवल रोंगटे खड़े हो जाते हैं, बल्कि भारत के संविधान और लोकतंत्र पर किये जा रहे कुठाराघात भी उजागर होते हैं।

मजदूरों पर दमन के इन हथकंडों से जब उद्योगपतियों को कोई फायदा नहीं हुआ तो उन्होंने छमुमो के वरिष्ठतम साथी शंकर गुहा नियोगी पर सरकार के साथ मिलकर हमले शुरू किये। सबसे पहले 4 फरवरी 1991 को उन्हें बालोद (जिला दुर्ग) तथा राजनांदगांव में लम्बित 5 से 9 साल पुराने प्रकरणों में न्यायालय से अनुपस्थित रहने के आरोप में गिरफ्तार कर लिया गया। भिलाई में छमुमो के अपेक्षाकृत ताजा पैर जमाते आंदोलन से उसके प्रमुख नेता को कानून के सहारे दूर रखने का षड्यंत्र सिर्फ दो महीने ही चल पाया। 27 मार्च 1991 को उच्च न्यायालय ने नियोगी को जमानत पर रिहा करने का आदेश दिया जिसके कारण 3 अप्रैल 1991 को शासन नियोगी की रिहा करने को बाध्य हुआ। उच्च न्यायालय के आदेश में स्पष्ट कहा गया था, ‘‘चूँकि आवेदक एक प्रतिष्ठित श्रमिक नेता है, इसलिए यह न्यायालय उसे व्यक्तिगत मुचलके पर रिहा करने का आदेश देता है।‘‘ इस आदेश में यह भी कहा गया, ‘‘नियोगी एक जाना-माना मजदूर नेता है, जो समाज के निचले तबके के हित में कार्यरत है। उसे जेल में ठँूसकर रखना न्याय के हित में कतई नहीं होगा।‘‘

नियोगी के विरुद्ध उद्योगपतियों द्वारा सरकार के जरिये की गयी कार्रवाई का दूसरा कदम था नियोगी को छमुमो के कार्यक्षेत्र दुर्ग और सीमावर्ती चार जिलों से बाहर करना। अंग्रेजी राज के जमाने के कुख्यात कानून ‘‘मध्य प्रांतों और बरार गंुडा अधिनियम-1946‘ की तर्ज पर ‘मध्य प्रदेश राज्य सुरक्षा अधिनियम‘ बनाया गया है। इसी अधिनियम की धारा पांच के अंतर्गत दुर्ग जिलाधीश ने जुलाई 1991 में हास्यास्पद और मनगढ़ंत आरोप लगाकर नियोगी को जिलाबदर का नोटिस दिया था।

दुर्ग, राजनांदगांव, बिलासपुर, रायपुर और बस्तर से जिलाबदर करने के लिए लगाये गये आरोपों में कहा गया था कि नियोगी ने मजदूरों में धीरे-धीरे अपना स्थान बनाया तथा सियाराम मजदूर की लड़की को आशा नाम देकर उससे विवाह कर लिया। इस तरह मजदूरों के बीच भावनात्मक रिश्ता जोड़कर अपना कार्यक्षेत्र राजहरा माईन्स तक बढ़ा लिया। मजदूर की लड़की से विवाह करने, मजदूरों से भावनात्मक रिश्ता जोड़ने और मजदूरों के बीच काम करने को अपराध मानकर दिये गये जिलाबदर के आदेश पर एक बार फिर उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति एस.के.झा और न्यायमूर्ति आर.डी. शुक्ला ने 10 अगस्त 1991 को रोक लगा दी।

मजदूरों की छँटनी और उन पर दमन करने, उन्हें कानूनी अधिकारों से वंचित रखने नियोगी को जेल तथा जिलाबदर के जरिये कार्यक्षेत्र से बाहर रखने की कोशिशों की विफलता के बाद अब उद्योगपतियों के पास एकमात्र विकल्प बचा था – नियोगी की हत्या। उद्योगपतियों को पूरा भरोसा था कि इससे एक तो छमुमो का नेतृत्व स्थायी रूप से छिन्न-भिन्न हो जायेगा और दूसरे, अपने प्रिय नेता की मृत्यु से मजदूर भड़क कर हिंसक हो जायेंगे। तब कानून व्यवस्था का डंडा लेकर आंदोलन से निपटना आसान हो जायेगा। लेकिन छमुमो के परिपक्व नेतृत्व ने  इन तमाम घिनौनी आशाओं पर पानी फेर दिया और नियोगी मरकर भी एक संयत और परिपक्व छमुमो के रूप में जीवित हैं।

 श्री राकेश दीवान वरिष्ठ सामाजिक कार्यकर्ता एवं स्वतंत्र पत्रकार हैं। 

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