संघर्ष संवाद
Sangharsh Samvad

जलवायु परिवर्तन : खेती पर मंडराता खतरा

मौजूदा विकास के साथ जो संकट सर्वाधिक महसूस किया जा रहा है, वह है- जलवायु परिवर्तन का। जिस तौर-तरीके से हम अपना विकास करने में लगे हैं उससे धीरे-धीरे पहले प्रकृति, फिर वनस्पतियां और फिर खेती समाप्त होती जाएंगी। आम लोगों पर क्या होगा इसका असर? सप्रेस से साभार पंकज चतुर्वेदी का आलेख;

जलवायु परिवर्तन की ‘अंतर सरकारी समिति’ (आईपीसीसी) की ‘जलवायु परिवर्तन – 2022 के प्रभाव’ पर ताजा रिपोर्ट भारत के लिए खतरे की घंटी है। इसमें चेताया गया है कि जलवायु परिवर्तन के कारण भारत में बाढ़ और सूखे के हालात पैदा होने का खतरा बढ़ रहा है। यदि तापमान में एक से चार डिग्री सेल्सियस तक बढ़ोतरी होती है तो भारत में चावल का उत्पादन 10 से 30 प्रतिशत तक, जबकि मक्के का उत्पादन 25 से 70 प्रतिशत तक घट सकता है।

‘भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद’ का एक ताजा शोध बताता है कि सन 2030 तक धरती के तापमान में 0.5 से 1.2 डिग्री सेल्सियस तक की वृद्धि अवश्यंभावी है। साल-दर-साल बढ़ते तापमान का प्रभाव सन 2050 में 0.80 से 3.16 और सन 2080 तक 1.56 से 5.44 डिग्री हो सकता है। जान लें कि तापमान में एक डिग्री बढ़ौतरी का अर्थ है कि खेत में 360 किलो फसल प्रति हैक्टेयर की कमी आ जाना।

जलवायु परिवर्तन के चलते खेती के लिहाज से देश के 310 जिलों को संवेदनशील माना गया है। इनमें
से 109 जिले बेहद संवेदनशील हैं जहां आने वाले एक दशक में ही उपज घटने, पशुधन से लेकर मुर्गी पालन व मछली उत्पाद तक में कमी आने की संभावना है। तापमान बढ़ने से बरसात के चक्र में बदलाव, बैमौसम व असामान्य बारिश, तीखी गर्मी व लू, बाढ़ व सुखाड़ की सीधी मार किसान पर पड़ना है।

देश की अर्थ-व्यवस्था का मूल आधार कृषि है और कोरोना संकट में गांव, खेती-किसानी की ही उम्मीद बची है। आजादी के तत्काल बाद देश के ‘सकल घरेलू उत्पाद’ (जीडीपी) में खेती की भूमिका 51.7 प्रतिशत थी, जबकि आज यह घटकर 13.7 प्रतिशत हो गई है। यहां गौर करने लायक बात यह है कि तब भी और आज भी खेती पर आश्रित लोगों की आबादी 60 फीसदी के आसपास ही थी। जाहिर है, खेती-किसानी करने वालों का मुनाफा, आर्थिक स्थिति सभी कुछ दिनों-दिन जर्जर होती जा रही।

देश में किसान भी कम हो रहे हैं। सन 2001 से 2011 के बीच के दस सालों में किसानों की संख्या 85 लाख कम हो गई। वर्ष-2001 की जनगणना के अनुसार देश में किसानों की कुल संख्या 12 करोड 73 लाख थी, जो 2011 में घटकर 11 करोड़ 88 लाख हो गई। आज भले ही हम बढिया उपज या आयात के चलते खाद्यान्न संकट से चिंतित नहीं हैं, लेकिन आने वाले सालों में यही स्थिति जारी रही तो हम सुजलाम-सुफलाम नहीं कह पाएंगे। कुछेक राज्यों को छोड़ दें तो देशभर में जुताई का क्षेत्र घट रहा है।

भारत मौसम, भूमि-उपयोग, वनस्पति और जीवों के मामले में व्यापक विविधता वाला देश है और यहां जलवायु परिवर्तन का प्रभाव भी कुछ सौ किलोमीटर की दूरी पर अलग किस्म से हो रहा है, लेकिन पानी बचाने और कुपोषण व भूख से निबटने की चिंता सब जगह एकसमान है। हमारे देश में उपलब्ध ताजे पानी का 75 फीसदी अभी भी खेती में खर्च हो रहा है। तापमान बढ़ने से जल-निधियों पर मंडरा रहे खतरे तो हमारा समाज गत दो दशकों से झेल ही रहा है।

‘प्रोसिडिंग्स ऑफ नेशनल अकादमी ऑफ साइंस’ नामक जर्नल के नवीनतम अंक में प्रकाशित एक शोधपत्र के अनुसार भारत को कृषि पर जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को कम करते हुए यदि पोषण के स्तर को कायम रखना है तो रागी, बाजरा और जई जैसी फसलों का उत्पादन बढ़ाना होगा। इस अध्ययन को कोलंबिया यूनिवर्सिटी के ‘डाटा साइंस इंस्टीट्यूट’ ने किया है।

कोलंबिया यूनिवर्सिटी के ‘डाटा साइंस इंस्टीट्यूट’ के वैज्ञानिक डॉ. कैले डेविस ने भारत में जलवायु परिवर्तन के कृषि पर प्रभावों, पोषण स्तर, पानी की कमी, घटती कृषि उत्पादकता और कृषि विस्तार के लिए भूमि के अभाव पर गहन अध्ययन किया है। उनके अनुसार भारत में तापमान वृद्धि के कारण कृषि में उत्पादकता घट रही है और साथ ही पोषक तत्व भी कम होते जा रहे हैं।

भारत को यदि तापमान वृद्धि के बाद भी भविष्य के लिए पानी बचाना है और साथ ही पोषण स्तर भी बढ़ाना है तो गेहूं और चावल पर निर्भरता कम करनी होगी। इन दोनों फसलों को पानी की बहुत अधिक आवश्यकता होती है और इनसे पूरा पोषण भी नहीं मिलता। डॉ. कैले डेविस के अनुसार चावल और गेहूं पर अत्यधिक निर्भरता इसलिए भी कम करनी पड़ेगी, क्योंकि भारत उन देशों में शुमार है जहां तापमान वृद्धि और जलवायु परिवर्तन का सबसे अधिक असर पड़ने की संभावना है और ऐसी स्थिति में इनकी उत्पादकता और पोषक तत्व दोनों पर प्रभाव पड़ेगा।

जलवायु परिवर्तन या तापमान बढ़ने का बड़ा कारण विकास की आधुनिक अवधारणा के चलते वातावरण में बढ़ रही कार्बन डाईआक्साइड की मात्रा है। ‘हार्वर्ड टीएच चान स्कूल ऑफ पब्लिक हेल्थ’ की ताजा रिपोर्ट बताती है कि इससे हमारे भोजन में पोषक तत्वों की भी कमी हो रही है। रिपोर्ट चेतावनी देती है कि धरती के तापमान में बढ़ौतरी खाद्य सुरक्षा के लिए दोहरा खतरा है। ‘आईपीसीसी’ समेत कई अंतरराष्ट्रीय अध्ययनों में इससे कृषि उत्पादन घटने की आशंका जाहिर की गई है। इससे लोगों के समक्ष खाद्य संकट पैदा हो सकता है।

ताजा रिपोर्ट और बड़े खतरे की ओर आगाह कर रही है। दरअसल, कार्बन उत्सर्जन से भोजन में पोषक तत्वों की कमी हो रही है। रिपोर्ट के अनुसार कार्बन उत्सर्जन में बढ़ोतरी के कारण चावल समेत तमाम फसलों में पोषक तत्व घट रहे हैं। इससे 2050 तक दुनिया में 17.5 करोड़ लोगों में जिंक की कमी होगी, 12.2 करोड़ लोग प्रोटीन की कमी से ग्रस्त होंगे। दरअसल 63 फीसदी प्रोटीन, 81 फीसदी लौहतत्व तथा 68 फीसदी जिंक की आपूर्ति पेड़-पौधों से होती है, जबकि 1.4 अरब लोग लौहतत्व की कमी से जूझ रहे हैं जिनके लिए यह खतरा और बढ़ सकता है।

शोध में पाया गया है कि अधिक कार्बन डाई-ऑक्साइड की मौजूदगी में उगाई गई फसलों में जिंक, आयरन एवं प्रोटीन की कमी पाई गई है। वैज्ञानिकों ने अपने प्रयोगों के जरिए इस बात की पुष्टि भी की है। रिपोर्ट में कहा गया है कि कार्बन डाई-आक्साइड पौधों को बढ़ने में तो मदद करती है, लेकिन पौधों में पोषक तत्वों की मात्रा को कम कर देती है। यह रिपोर्ट भारत जैसे देशों के लिए अधिक डराती है क्योंकि हमारे यहां पहले से कुपोषण एक बड़ी समस्या है।

जलवायु परिवर्तन के प्रभाव के कारण कृषि पर मंडराते खतरों के प्रति सचेत करते हुए ‘इंटरनेशनल सेंटर फॉर रिसर्च इन एग्रो-फारेस्ट्री’ के निदेशक डॉ. कुलूस टोपर ने भी अपनी रिपोर्ट में बताया है कि आने वाले दिन जलवायु परिवर्तन के भीषणतम उदाहरण होंगे जो कृषि उत्पादकता पर चोट, जल दबाव, बाढ़, चक्रवात व सूखे जैसी गंभीर समस्याओं को जन्म देंगे। भारत की तो अर्थ-व्यवस्था का आधार ही खेती-किसानी है।

जलवायु परिवर्तन की मार भारत में जल की उपलब्धता पर भी पड़ रही है। देश में बीते 40 सालों के दौरान बरसात के आंकड़े देखें तो पता चलता है कि इसमें निरंतर गिरावट आ रही है। बीसवीं सदी के प्रारम्भ में औसत वर्षा 141 सेंटीमीटर थी जो नब्बे के दशक में कम होकर 119 सेंटीमीटर रह गई है। उत्तरी भारत में पेयजल का संकट साल-दर-साल भयावह रूप लेता जा रहा है। तीन साल में एक बार अल्प वर्षा यहां की नियति बन गई है।

तिस पर देश की सदानीरा गंगा-यमुना जैसी नदियों के उदगम ग्लैशियर बढ़ते तापमान से पिघल रहे हैं।
विभिन्न अध्ययनों के आधार पर यह तथ्य उभरकर सामने आया है कि यदि तापमान में वृद्धि होती है तो
उत्पादकता में कमी आयेगी। इसके अतिरिक्त वर्षा आधारित फसलों को अधिक नुकसान होगा, क्योंकि जलवायु परिवर्तन के प्रभाव के कारण वर्षा की मात्रा कम होगी जिसके कारण किसानों को सिंचाई हेतु जल उपलब्ध नहीं हो पायेगा।

(श्री पंकज चतुर्वेदी स्वतंत्र लेखक हैं। संप्रति नेशनल बुक ट्रस्ट के सहायक संपादक है पर्यावरण और
विकास के मुद्दों पर लंबे अरसे से लिख रहे हैं।)

तस्वीर : Aparna Pallavi

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