संघर्ष संवाद
Sangharsh Samvad

केन बेतवा नदी गठजोड़ – वरदान या अभिशाप

-गुंजन मिश्रा

विश्व जल दिवस पर माननीय प्रधान मंत्री की अध्यक्षता में उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्रियों के बीच केन बेतवा गठजोड़ को लेकर समझौता हुआ। जिस पर मुझे वर्ष 2001 से 2004 तक अध्धयन करने का मौका डॉ वंदना शिवा के मार्गदर्शन में मिला था। केन बेतवा गठजोड़, इसके अंतर्गत लगभग 50 वर्ग किलोमीटर में केन नदी पर पन्ना नेशनल टाइगर पार्क के बीच 73.4 मीटर ऊँचा और 1468 मीटर लम्बा बांध बनाकर और उससे 231.45 किलोमीटर लम्बी नहर निकालकर 1020 मिलियन क्यूबिक मीटर पानी बेतवा नदी में ट्रांसफर किया जाएगा। जिसकी लागत 2004 में रु 1988.74 करोड़ थी, आज इसकी लागत लगभग रु 45000 करोड़ हो गयी। इतना पैसा खर्च करने पर भी अगर 10 गांवों के स्थानीय लोगों को विस्थापित व् कृषि भूमि का अधिग्रहण करने के पश्चात भी स्थायी रोज़गार न मिल सके तब इतना पैसा विकास के नाम पर खर्च करने का कोई महत्व नहीं रह जाता है।

नहर जिसके रास्ते में कई राष्ट्रीय और राज्य मार्ग, रेलवे लाइन, पुल, घाटिया, पड़ेगे तब हो सकता है कि केन के जल को बेतवा तक ले जाने के लिए पंप भी करना पड़ सकता है। यानी जितनी बिजली, 72 मेगावाट, केन बेतवा गठजोड़ में बनेगी उससे कही ज्यादा पानी को पंप करने में खर्च हो जायेगी।

केन नदी में इतना पानी उपलब्ध ही नहीं है जितना कि बेतवा नदी में ट्रांसफर किया जाना है। क्योंकि रेत एवं पत्थर खनन व जलवायु परिवर्तन के कारण नदिया सूख रही है एवं भूमिगत जल पातल में जा रहा है। यही कारण है कि गर्मियों में केन नदी बाँदा जिले में सूख जाती है। बुंदेलखंड में जलवायु परिवर्तन के प्रभाव के कारण पहले लगभग 52 दिन बारिश होती थी, लेकिन अब बारिश की अवधि घटकर मात्र 25 दिन रह गयी है। इस परियोजना पर जो अध्धयन राष्ट्रीय जल विकास एजेंसी द्वारा किया गया अगर उसको भी ध्यान से देखा जाय तो स्पष्ट है कि केन में बेतवा नदी से कम पानी है। यानी इस परियोजना में छोटी नदी का पानी बड़ी नदी में ट्रांसफर किया जाना है। जो की नदी गठजोड़ परियोजना के सिद्धांत के विरूद्ध है।

पन्ना नेशनल टाइगर पार्क की लगभग 50 वर्ग किलोमीटर जमीन डूब क्षेत्र में आएगी जिससे पार्क में जंगली जानवरो की 10 ऐसी प्राजतिया है जो वन्य जीवन संरक्षण अधिनियम 1972 अनुसूची 1 के अंतर्गत आती है, 23 प्रकार की मछलिया, 153 प्रजाति के पंछी, 221 प्रजाति के पेड़ पौधे आदि डूब क्षेत्र में आकर नष्ट हो जायेगे। इसके अलावा सरकार की तरफ से इस गठजोड़ में किसानों की आमदनी बढ़ाने के लिए संपर्क नहर के किनारे नकदी फसलों को भी बढ़ावा दिया जाएगा यानी वो फैसले जिनमे सिंचाई की आवश्यकता ज्यादा होती है। कुल मिलाकर किसानों को जितना फायदा होगा वो रासायनिक खाद, कीटनाशकों एवं सिंचाई पर किसान को खर्च करना पड़ेगा। कोदो, कुटकी, जौ, बाजरा, इत्यादि की बात करे, ये वो अनाज है, जो की पिछले सेकड़ो सालो से बुंदेलखंड के लोगों की जरूरतों को पूरा कर रहे है। ये अनाज स्वास्थ की दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण होते है, क्योकि इन अनाजों में सबसे पहला गुण यह है कि ये क्षारीय होते है। ये बात वैज्ञानिक रूप से सिद्ध हो चुकी है की क्षारीय वातावरण में कोई भी बीमारी पैदा नहीं हो सकती। दूसरा, वैज्ञानिको द्वारा की गयी रिसर्च से ये साबित हो चुका है (नुट्रिशन रिसर्च. अप्रैल 2010; 30 (4 ) : 290-6 व जर्नल ऑफ़ एग्रीकल्चरल एंड फ़ूड केमिस्ट्री, 1 जून 2010; 47(11): 6706 -14) की छोटे अनाजों में हृदय से सम्बंधित बीमारिया को रोकने की क्षमता होती है व ये एंटीऑक्सीडेंट की तरह कार्य करते है। महिलाओं के लिए स्वास्थ की दृष्टि से ये छोटे अनाज तो एक तरह से वरदान होते है।

अतः आने वाले समय में बुंदेलखंड के किसानों का खेत एक मेडिकल स्टोर की तरह उनको व्यापार करने का व पैसा कमाने का मौका दे सकता है सिर्फ जरुरत है अपने पारम्परिक खेती के ज्ञान व तरीको को समृद्ध करने की। वो दिन दूर नहीं जब शहर के अमीर लोग पुरानी से पुरानी कार्बनिक मिटटी में पुराने बीजो से उगाये अनाजों को महँगी दवाइयों की तरह किसी भी कीमत पर खरीदने को मजबूर होंगे । दूसरा कारण दुनिया की कोई भी महंगी से महंगी दवाई का प्रभाव उतना स्पष्ट व स्वस्थ नहीं हो सकता जितना की एक स्वस्थ धरती से पैदा किया हुआ अनाज का। अगर व्यक्ति को सही तरीके से उगाया गया अनाज मिलने लगे तो जितनी भी ये भयानक व खर्चीली बीमारिया है, वो नहीं होगी। अगर हम सामाजिक स्तर पर भी इन छोटे अनाजों के गुणों को नज़रअंदाज़ नहीं कर सकते क्योकि इनमे सेरोटोनिन (मोनोएमीन न्यूरो ट्रांसमीटर) पाया जाता है। जो व्यक्ति के मष्तिष्क को शांत रखता है। जिससे परिवार व समाज में एक सौहार्द व प्रेम का वातावरण बना रहता है । अतः अगर किसान चाहे, तो विश्व से आतंकवाद जैसी समस्या को दूर कर सकता है।

केन नदी पर पन्ना नेशनल टाइगर पार्क के बीच जो दौधन बांध बनाया जाएगा उसकी डिज़ाइन में अवसादन दर 357 क्यूबिक मीटर प्रति वर्ग किलोमीटर प्रति वर्ष मानी गयी है लेकिन जंगल की कटाई होने के कारण अवसादन दर स्वभाभिक है ज्यादा होगी। राष्ट्रीय केंद्र मृदा सर्वेक्षण और भूमि उपयोग योजना के अनुसार मिटटी की अपरदित दर माध्यम से लेकर अपने उच्चतम दर पर आंकी गयी है। जिससे बांध की उपयोगिता 100 वर्ष जो अनुमानित है नहीं होगी वैसे भी दो पहाड़ियों के बीच बनाने वाले बांध में अवसादन दर बहुत ज्यादा होगी।

बुंदेलखंड में केन बेतवा गठजोड़ का विकल्प तालाब ही क्यों, इसका उत्तर तो चंदेल और बुंदेली राजाओं ने आज से 500 साल पहले बुंदेलखंड में तालाब बनवाकर दिया था। क्योंकि उनके बनवाये तालाब आज भी बुंदेलखंड के हर जिले में उपयोगी है । इसके अलावा बुंदेलखंड की कृषि भूमि में कार्बनिक कार्बन की मात्रा कम होने के कारण कृषि भूमि की नमी बनाये रखने के लिए तालाब का किसान के पास होना बहुत जरुरी है । क्योंकि अगर बांधो के माध्यम से बुंदेलखंड की प्यास पूरी होती या बुझती तो ललितपुर में एशिया में सबसे ज्यादा बांध है इसके बाबजूद वह की 30-40% कृषि भूमि असिंचित है। अगर बांध और तालाब की तुलना की जाय तो बांध से विस्थापन होता है, जंगल नष्ट होते है, किसान को सिंचाई के लिए कभी भी समय से पानी नहीं मिलता, बांध के सिर्फ 30-40% जल का उपयोग हो पाता है, बांध से जलवायु परिवर्तन को बढ़ावा मिलता है, लेकिन तालाब से ऐसा कुछ नुकसान नहीं होता है। खेत तालाब आत्महत्या, रोज़गार, कुपोषण, पलायन, अन्ना प्रथा, उपजाऊ मिटटी का क्षरण, पानी को लेकर लड़ाई झगडे, आदि को रोककर तालाब पशु पक्षियों को आमंत्रित करते है जिससे किसानों को कीटनाशकों का प्रयोग नहीं करना पड़ता है।

इस प्रकार किसान हिंसात्मक कृषि न करके महात्मा गाँधी, विनोवा, नाना जी देश मुख एवं तालाबों के जानकार अनुपम मिश्रा जी जैसे महान लोगों के विचार अगली पीढ़ी में स्थान्तरित करके उनको सच्ची श्रद्धांजलि दे पाते है एवं जैव विविधता का संरक्षण करके हम सब कोरोना वायरस जैसी बीमारियों से भी बचे रहते है । अगर हम आज की तारीख में केन बेतवा गठजोड़ की आधी कीमत यानी रु 22000 करोड़ को लेकर अगर तालाबों का निर्माण कराते है तो 1200 क्यूबिक मीटर क्षमता वाले, तालाब की कीमत रु 2 लाख भी लगाए तो, 14 लाख के आस पास तालाब बन जायेगे।

अगर वैश्विक स्तर देखा जाय तो भारत सरकार के पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय के द्वारा जो कम कार्बन जीवन शैली के दिशा निर्देशों व आकड़ो के माध्यम से कार्बन डाइऑक्साइड के उत्सर्जन की बोरवेल कारक के हिसाब से गणना की जाय तो पूरे बुंदेलखंड में तालाबों के माध्यम से लगभग 51 लाख टन कार्बन दी ऑक्साइड का ह्रास प्रतिवर्ष तालाबों के माध्यम से होता है जो की एक बहुत बड़ी मात्रा है । अतः यह कहा जा सकता है कि बुंदेलखंड की कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन की समस्या तालाबों के माध्यम से हल हो जायेगी एवं बुंदेलखंड वैश्विक स्तर पर जलवायु परिवर्तन में पेरिस समझौता में अपना सहयोग भी देता है या बड़े पैमाने पर दे सकता है।

यही वजह थी, कि तालाबों के उपरोक्त लाभों के कारण चित्रकूट से लौटकर 30 मार्च 2003 को नईदिल्ली के ताल कटोरा स्टेडियम में एक रैली में माननीय श्री अटल बिहारी बाजपेयी ने कहा था कि “नानाजी से सीखे, कैसे बदला जा सकता है देश”। चित्रकूट के उस इलाके में जहा डाकुओ का बड़ा जोर था, आतंक था, लोगों का जीना मुहाल था। लेकिन जब बारिश का पानी तालाबों के माध्यम से रोका गया तो खेतो में गेंहू की हरी हरी बालिया खड़ी हो गई और जिंदगी का रूप बदलने लगा। नानाजी ने भी एक बूढ़े किसान से सीख लेकर जल संरक्षण पर कार्य शुरू किया था और जल प्रबंधन योजनाओ के सुखद परिणाम को देखकर यही कहा था, कि पता नहीं क्यों राजनेता और नौकर शाह इसे सफल बनाने में रूचि नहीं रखते है।

इसलिए बुंदेलखंड में केन बेतवा गठजोड़ की नहीं बल्कि किसान को ऐसी कृषि से जोड़ने की जरूरत है जिसमे स्थानीय और वैश्विक पर्यावरणीय, सामाजिक और आर्थिक समस्याओं का समाधान हो।

(गुंजन मिश्रा, पर्यावरणविद है)

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